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लोकतंत्र की चुनावी व्यवस्था क्या वास्तव में जनता के हित का शासन हैं?

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भोपाल। सभी शासन व्यवस्थाओ में शासक, चाहे वह वंशानुगत हो अथवा निर्वाचित हो, गद्दी संभालते वक्त उसे एक शपथ यानि कि कसम लेनी होती है कि वह प्रजा के हितों का ध्यान रखेगा और सभी फैसले वह बिना किसी भय या पक्षपात के करेगा। यह शपथ लेने के तुरंत बाद ही इसको भुला दिया जाता है। यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा झूठ है जो सत्ता अपने नागरिकों से बोलती है और आदमी है कि वह बात – बात पर न्याय और सत्य प्रतिज्ञान के लिए सत्ता को दोष देता रहता है, यही अब्राहम लिंकन के लोकतंत्र की परिभाषा की अन्त्येष्टि है।
इसका ताज़ा उदाहरण दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति नऊ द्वारा मार्शल ला घोषित किए जाने की थी। घोषणा के तत्काल बाद ही वहां के सभी सांसदों ने बल्कि आम जनता ने त्वरित विरोध करते हुए सड़कों पर उतार आई।

सभी को उम्मीद थी कि अब राष्ट्रपति को महाभियोग का सामना करना पड़ेगा और उन्हे गद्दी छोड़नी पड़ेगी। संसद में महाभियोग प्रस्ताव को समूचे सदन का समर्थन था। परंतु प्रस्तव को अमलीजामा देने के लिए जरूरी सदस्यों का बहुमत नहीं मिल सका। क्यूंकि राष्ट्रपति की पार्टी के जिन सांसदों ने महाभियोग का समर्थन किया था वे ही 48 घंटे बाद शांत पड़ गए, उनका कहना था कि राष्ट्रपति के पद त्याग से बात बन जाएगी । फिर राष्ट्रपति को महािभयोग से हटाना न केवल देश वरन पार्टी और प्रजातंंत्र को बदनाम करेगा। तो आपने देखा कि सत्य और न्याय का जज्बा कितने घंटा जीवित रहा।

इसलिए जन असंतोष या सत्ता के भ्रष्टाचार को लेकर लोकतंत्र की दुहाई देना व्यर्थ है। अब दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति यूनु अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और क्लिंटन की भांति अपने सभी कु कर्मों (अपराधों) के उल्लेख के बिना पदत्याग कर देंगे। अब इसमें विधि के शासन कानून के सामने सभी को समानता का अधिकार आदि सिद्धांत भी नीरो के रोम में भष्म हो गए। जिन लोगों ने सत्ता के अन्याय के विरुद्ध लड़ाई छेड़ी वे तब ही सफल हुए जब वे जमीन के आदमी रहे जैसे महात्मा गांधी और अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर परंतु दोनों की ही सत्ता के दलालों द्वारा हत्या करवा दी गई।

यह थी लोकतंत्र की हकीकत का एक पक्ष, अब दूसरा पक्ष देखते हैं अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में जहां बात सिद्धांतों और वाद – विवाद की भी होती है। भाषण भी दिए जाते हैं चुनावी चन्दा भी बटोरा जाता है। उम्मीद तो यह थी की सब कुछ शांत और सामान्य वातावरण मे होगा। परंतु शायद ट्रम्प को हमारे मोदी जी कुछ ज्यादा ही बहलाने लगे फलस्वरूप जो – जो हथकंडे भारत में विगत 14 सालों में सत्ता द्वारा अपने विरोधी को दबाने भगाने और यहां तक दलबदल करने की कोिशश भी हुई। अब देखिए अपना भारत कितना महान कि अमेरिका को पिछलग्गू बना दिया। linkdiin नामक वेबसाइट के मालिक रीड हाफ मैन ने ने ट्रम्प के खिलाफ उम्मीदवार कमला हैरिस को लाखों डालर चुनावी फंड में चंद दिया था, अब उन्होंने एक बयान में कहा है की वे ट्रम्प के बदले की भावना से बचने के लिए वे देश (अमेरिका) छोड़ने का फैसला कर रहे हैं।

अब इसकी तुलना हम चुनावी बांड स्कीम में काँग्रेस को चन्दा देने वालों की दुर्गति से कर सकते हैं। वैसे देश छोड़कर जाने वालों में सबसे अधिक संख्या गुजरात के उद्योगपतियों की है और उन पर भारतीय बैंक से करोड़ों नहीं वरण अरबों रुपये का गबन करने का आरोप हैं। इन सभी गुजराती सेठों के विरुद्ध अपराध दर्ज हैं, इंटरपोल को खबर भी कर दी गई है परंतु चौदह साल में एक भी उद्योगपति को विदेश से भारत नहीं लाया जा सका। अब यह बिना सरकार की मर्जी के तो हो नहीं सकता। रही बात दलबदल की तो ट्रम्प साहब ने तो केवल एक भारतीय मूल की डेमोक्रेटिक सांसद को संघीय नियुक्ति दी है। नरेंद्र मोदी जी के काल में तो देश के हर राज्य में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो भ्रष्ट नेता माने गए कानून ने भी उनके विरुद्ध आपराधिक मामले चलाए। परंतु जैसे ही उन लोगों ने सत्तारूढ़ दल बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की – वे बिल्कुल टिनोपाल से साफ़ होकर बिल्कुल श्वेत बन कर निकले।

तो यह है लोकतंत्र की हकीकत, आज सभी लोकतान्त्रिक देशों में सत्ता उस देश के पूँजीपतियों की जेब में हैं। किसानों का हजार रुपये का बकाया माफ नहीं होगा उसके जानवरों, घर की कुर्की हो जाएगी, पर दिवालिया पूंजीपति को बैंक से कर्ज मिल जाएगा। सत्ता के सहयोगी सेठ बैंक से कर्ज लेंगे फिर उसी से सरकार की संपत्ति खरीद लेंगे। सस्ता कोयला सरकारी खानों से लेकर अच्छी क्वालिटी का बात कर उसे दसियों गुण दाम पर सरकार को हो बेच देंगे। सरकार की कानूनी एजेंसियां भी उन्हीं के खिलाफ कार्रवाई करती है जो सत्ता के विरोधी हैं। अभी महाराष्ट्र में अजित पँवार की 1000 करोड़ की जायदाद आयकर विभाग ने मुक्त कर दिया, उनके द्वारा बीजेपी सरकार को समर्थन देने के 48 घंटे बाद। है न सत्ता का कमाल, बाद कुछ और।

संयुक्त राज्य अमेरिका में हुए राष्ट्रपति के चुनाव ने यह संकेत तो दे दिया हैं कि निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प आम अमेरिकी के सुख -सुविधा से ज्यादा अपने वफादार समर्थकों के व्यवसायिक लाभ की परवाह करते हैं। ऐसा करते हुए उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं है कि ऐसा करके वे राजनीति और सत्ता में कुछ बचे – खुचे नैतिक मूल्यों की धज्जिया उड़ा रहे हैं। अन्य राष्ट्रों में जहां शासकीय फैसलों में पछपात अपराध है वहीं ट्रम्प साहब खुलेआम समर्थकों के लाभ के लिए किसी भी प्रतिबंध को मंजूर नहीं करते। उदाहरण के तौर पर कोई भी राष्ट्रपति खुलेआम मातहतों को निर्देश नहीं देगा कि विदेशी मेहमानों को उसके निजी उद्योग समूह के होटलों में टिकाया जाए। पर अपने प्रथम शासनकाल में ट्रम्प ने यह सब किया। आमतौर पर लोकशाही में शासक या मंत्री शपथ लेता है कि वह – पद पर रहते हुए कोई भी फैसला बिना पछपात और भय के लेगा। पर ट्रम्प जी का तो उसूल है कि सत्ता में आए हैं तो फायदा तो लेना ही होगा।

अभी ट्रम्प साहब ने राष्ट्रपति पद को सम्हाल नहीं है परंतु उन्होंने अपने रिश्तेदारों वफ़ादारों को रेवडिया बाँटनी शुरू कर दी हैं। और ऐसा करते हुए उन्हे किसी भी प्रकार का संकोच या शरम नहीं हैं। अपने समधी जेरूसलम में प्रतिनिधि नियुक्त किया हैं। गौर तलब हैं की यह सज्जन यहूदी है, जो टैक्स अपवंचना के अपराधी रहे हैं। दूसरे को फ्रांस में विशेष दूत बना दिया।

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