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योजनाओं का हो ‘सोशल ऑडिट’

हर तरफ़ से तबाही के विचलित करने वाले दृश्यों को देख मन में यही सवाल उठा की इस साल मानसून की पहली बारिश से जो हाल हुआ है क्या उसै वास्तव में प्राकृतिक आपदा मानी जाए? क्या इस तबाही के पीछे इंसान का कोई हाथ नहीं? क्या भ्रष्ट सरकारी योजनाओं के चलते ऐसा नहीं हुआ? कब तक हम ऐसी तबाही को कुदरत का क़हर मानेंगे?

कई दशकों पहले देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह बात स्वीकार की थी कि जनता के विकास के लिए आवंटित धनराशि का जो प्रत्येक 100 रूपया दिल्ली से जाता है, वह जमीन तक पहुँचते-पहुँचते मात्र 14 रूपये रह जाता है। 86 रूपये रास्ते में भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं। सारा विकास केवल कागजों पर ही होता है। परंतु बीते दशकों में प्रशासनिक भ्रष्टाचार के बावजूद नागरिकों को कुछ सुविधाएँ अवश्य मिली हैं। लेकिन बीते वर्षों में जिस तरह के विकास का जो प्रचार हुआ है उसने एक बार फिर से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कही बात याद दिला दी है।

इंद्र देव के क़हर के कारण देश के कई भागों से काफ़ी दर्दनाक दृश्य सामने आए। हर तरफ़ से तबाही के विचलित करने वाले दृश्यों को देख मन में यही सवाल उठा की इस साल मानसून की पहली बारिश से जो हाल हुआ है क्या उसै वास्तव में प्राकृतिक आपदा मानी जाए? क्या इस तबाही के पीछे इंसान का कोई हाथ नहीं? क्या भ्रष्ट सरकारी योजनाओं के चलते ऐसा नहीं हुआ? कब तक हम ऐसी तबाही को कुदरत का क़हर मानेंगे?

सरकार चाहे किसी भी दल या राज्य की क्यों न हो जनता के वोट पाने के लिए विकास के कार्यों की अनेक जनोपयोगी व क्रांतिकारी योजनाओं की घोषणाएँ की जाती हैं। ऐसी घोषणाओं को सुन कर हर कोई मानता है कि नेता जी ने एक बड़ा सपना देखा है और ये सारी योजनाएँ उसी सपने को पूरा करने की तरफ एक-एक कदम है।

बीते कुछ वर्षों में घोषित की गई योजनाओं में से कुछ योजनाओं का निश्चित रूप से लाभ आम आदमी को मिला है। वहीं दूसरी ओर घोषित की गई कई योजनाएँ केवल काग़ज़ों पर ही दिखाई दी। यदि कोई प्रधान मंत्री या किसी भी राज्य के मुख्य मंत्री जनता के कल्याण हेतु दकियानूसी परंपराओं को तोड़कर क्रांतिकारी योजनाएँ लाते हैं, तो यह भी जरूरी है कि समय-समय पर वे इस बात का जायजा भी लेते रहें कि उनके द्वारा घोषित कार्यक्रमों का क्रियान्वयन कितने फीसदी हो रहा है।

तीसरी बार प्रधानमंत्री बने मोदी जी हों या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ही क्यों न हों, उन्हें जमीनी सच्चाई जानने के लिए गैर-पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसियाँ या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद ही कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाएँ होती हैं। इसलिए देश या सूबे के मुखिया को गैर-पारंपरिक ‘फीड-बैक मैकेनिज्म’ का सहारा लेना पड़ेगा, जैसा आज से हज़ारों साल पहले भारत के पहले सबसे बड़े मगध साम्राज्य के शासक सम्राट अशोक किया करते थे। जो जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे।

आज के सूचना प्रौद्योगिकी के युग में यह काम बहुत आसानी से किया जा सकता है। यदि मोदीजी या देश के अन्य मुख्यमंत्री ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें इसका बहुत बड़ा लाभ होगा। यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आँकड़े प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाएँगे। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। ऐसी अप्रत्याशित स्थिति से निपटने का यही तरीका है कि अफसरशाही के अलावा जमीनी लोगों से भी हकीकत जानने की गंभीर कोशिश की जाए। यह पहल प्रशासनिक मुखिया को ही करनी होगी, फिर वो चाहे देश के प्रधानमंत्री हों या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री।

मिसाल के तौर पर इस साल की पहली बारिश के चलते देश के कई एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, ट्रेनों, सड़कों, पुलों आदि पर हुए नुक़सान को गंभीरता से लेना चाहिए। विपक्ष चाहे जैसे भी हमले करे पर केंद्र व राज्य सरकार को इन दुर्घटनाओं से सबक़ लेते हुए संबंधित राज्य सरकारों, मंत्रालयों, विभागों और अफ़सरशाही से समय बाधित रिपोर्ट लेनी चाहिए और दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। इतना ही नहीं, घोषित की गई विकास की योजनाओं का ‘सोशल ऑडिट’ भी बहुत ज़रूरी है। इसके लिए देश के मुखिया या राज्य के मुख्य मंत्रियों को अपने विश्वसनीय सेवानिवृत अधिकारियों, पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं और स्थानीय प्रबुद्ध नागरिकों की एक संयुक्त टीम बनानी चाहिए जो वस्तु स्थिति का मूल्यांकन करें और उन तक निष्पक्ष रिपोर्ट भेजे। यदि वे ऐसा करते हैं तो वे विपक्ष के हमले का कड़ा उत्तर दे पायेंगे।

‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि चुनावी सभा में हर दल के नेता बार-बार ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए निर्वाचित होने के बाद उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आएगा।

आशा की जानी चाहिए कि आने वाले समय में देश के कोने-कोने से जागरूक नागरिकों द्वारा प्रधानमंत्री व राज्यों के मुख्य मंत्रियों को इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाने के लिए आह्वान किया जाएगा। इससे देश में नई चेतना और राष्ट्रवाद का संचार होगा और बरसों से चली आ रही भ्रष्टाचार पर लगाम भी कसेगी। नेताओं द्वारा जनहित की योजनाओं की घोषणाएँ भी केवल काग़ज़ों पर नहीं बल्कि ज़मीन पर सफल होती नज़र आएँगी।

By रजनीश कपूर

दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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