श्रीराम सामाजिक समरसता का आइना हैं। अपने जीवन के सबसे पीड़ादायक दौर में श्रीराम ने सहयोगी और सलाहकार वनवासियों को ही बनाया, जिसमें केवट निषाद, कोल, भील, किरात और भालू शामिल रहे। अगर श्रीराम चाहते, तो अयोध्या या जनकपुर से सहायता ले सकते थे। लेकिन उनके साथी वे लोग बने, जिन्हें आज आदिवासी, दलित, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है। इन सभी को श्रीराम ने ‘सखा’ कहकर संबोधित किया, तो वनवासी हनुमान को लक्ष्मण से अधिक प्रिय बताया है।
दीपावली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। यह 500 वर्षों के संघर्षपूर्ण इतिहास में पहली बार है, जब रामलला ने अपने भव्य मंदिर में दीपावली मनाई हैं। करोड़ों आस्थावान हिंदुओं के लिए श्रीराम, भगवान विष्णु के सातवें अवतार के साथ राष्ट्रपुरुष के रूप में भी स्थापित है। उनका पूरा जीवन ही भारतीय जीवनमूल्यों का मापदंड है। इसलिए जहां सत्कारयोग्य गुरु ग्रंथ साहिब जी में हरि सहित अन्य आराध्यों के साथ प्रभु श्रीराम के नाम का उल्लेख ढाई हजार से अधिक बार है, वही गांधी का सच्चा लोकतंत्र, सुराज और सुशासन मुखर तौर पर रामराज्य से प्रेरित रहा। स्वामी विवेकानंदजी भी राम-सीता को भारतीय राष्ट्र का आदर्श मानते थे। यह इसलिए भी स्वभाविक है, क्योंकि रामकथा उन सभी जीवनमूल्यों का मिश्रण है, जो मानव, समाज और विश्व को सुखी और संतुष्टमयी रहने का रास्ता दिखाता है।
श्रीराम सामाजिक समरसता का आइना हैं। अपने जीवन के सबसे पीड़ादायक दौर में श्रीराम ने सहयोगी और सलाहकार वनवासियों को ही बनाया, जिसमें केवट निषाद, कोल, भील, किरात और भालू शामिल रहे। अगर श्रीराम चाहते, तो अयोध्या या जनकपुर से सहायता ले सकते थे। लेकिन उनके साथी वे लोग बने, जिन्हें आज आदिवासी, दलित, पिछड़ा या अति-पिछड़ा कहा जाता है। इन सभी को श्रीराम ने ‘सखा’ कहकर संबोधित किया, तो वनवासी हनुमान को लक्ष्मण से अधिक प्रिय बताया है। “सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥” हनुमानजी न केवल राम दरबार के प्रमुख हैं, साथ ही देश में उनके मंदिर श्रीराम से कहीं अधिक है।
भील समुदाय की शबरी माता का पिछड़ापन दोहरा है, क्योंकि वे गैर कुलीन वर्ग की स्त्री हैं। श्रीराम शबरी के झूठे बेर सप्रेम ग्रहण करते हैं। राम को देखकर जब शबरी अपनी स्थिति व्यक्त करती हैं, तब रघुनाथ कहते हैं- कह रघुपति सुनू भामिनी बाता। मानाउँ एक भागति कर नाता।। जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धनबल परिजन गुन चतुराई।। भगति हीन नर सोइह कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।” भावार्थ— मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल। मां सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले मांसाहारी गिद्धराज जटायु, जोकि वर्तमान में एक निकृष्ट पक्षी है— उन्हें श्रीराम कर्मों से देखते है और एक पितातुल्य बोध के साथ उसका अंतिम-संस्कार करते है। यह सूचक है कि श्रीराम के लिए केवल कर्म की प्रधानता है, शेष निरर्थक।
रावण कौन था? वह पुलस्त्य कुल में जन्मा ब्राह्मण, प्रकांड पंडित, सर्वशक्तिशाली, महान शिवभक्त, सोने की लंका का स्वामी था। परंतु वह आचरण से दुष्ट, कामुक और भ्रष्ट था। इसलिए हनुमानजी ने अधर्म के प्रतीक लंका का दहन, तो श्रीराम ने रावण का वध किया। इससे यह रेखांकित होता है कि आध्यात्मिक मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की रक्षा हेतु सभ्य समाज को पद-कद-वर्ग आदि की चिंता किए बिना इन जीवनमूल्यों के शत्रुओं को दंडित करना चाहिए। यदि मौजूदा हालात में इस मूल्य को पुनर्स्थापित किया जाए, तो हम स्वस्थ समाज की रचना कर सकते है।
बालि संहार के पश्चात श्रीराम, सुग्रीव को किष्किन्धा का राजपाट सौंपते है, तो बालिपुत्र अंगद को इसका उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। जब लंका में श्रीराम विजयी होते हैं, तब वे न केवल लक्ष्मण को विभिषण के राजतिलक आदेश देते है, साथ ही विभिषण से घर की सभी महिलाओं को सांत्वना देने का अनुरोध भी करते है। राम शक्तिशाली और धर्मानुरागी होने के कारण समाज के अपराधी को तो दंडित करते है, लेकिन पराजितों के धन-संपदा राज्य आदि से मोह नहीं रखते। यदि युद्धभूमि में इन मूल्यों का पालन किया जाता, तो विश्व का भूगोल और इतिहास कुछ और होता।
एक मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में कैसा आचरण करना चाहिए, उसके लिए भी श्रीराम आदर्श हैं। पिनाक (शिवधनुष) टूटने पर जब लक्ष्मण के तानों से महान शिवभक्त परशुरामजी क्रुद्ध हो उठते हैं और दोनों के बीच भीषण टकराव की संभावना बन जाती है, तब श्रीराम अपने विन्रम व्यवहार और मधुर-वाणी से स्थिति को संभालते है और क्रोधित परशुरामजी शांत होकर हिमालय चले जाते है। सफलता के शिखर पर पहुंचकर भी एक व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए, उसका श्रीराम प्रतिरूप हैं।
एक शत्रु के प्रति हमारा रवैया कैसा होना चाहिए? जब विभिषण अपने भाई रावण के किए पर शर्मिंदा होकर उसके देह का अंतिम संस्कार करने में संकोच करते है, तब श्रीराम कहते हैं, “मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।” अर्थात्- बैर जीवन कालतक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अंत हो जाता है। श्रीराम सदैव मर्यादा की परिधि में रहे, इसलिए वे मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए। राजधर्म की कीमत होती है, जिसे उन्होंने चुकाया भी। जब वे अयोध्या नरेश बने, तब उनके लिए प्रजा सर्वोपरि और शेष निज-संबंध गौण हो गए।
भारतीय वांग्मयों की मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों ने अपने कुटिल एजेंडे के अनुरूप गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामायण की चौपाई: “ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।” की शरारतपूर्ण विवेचना की है। श्रीरामचरितमानस को तुलसीदासजी ने अपने शब्दों में पिरोया है। इसमें विभिन्न पात्रों की बातचीत भी है। उसमें शब्द ना ही श्रीराम के हैं और ना ही रामायण के ऐसे चरित्र के, जिन्हें हिंदू आराध्य मानते हो। सच तो यह है कि श्रीरामचरितमानस में अन्य नारियों के साथ माता शबरी, केवट, निषादराज और गिद्धराज जटायु को जिस श्रेष्ठ भाव से काव्यग्रंथ में चित्रित किया गया है, वह भारतीय समाज के सभी वर्गों (दलित-वंचित सहित) को जोड़नेवाला और सम्मान देनेवाला है।
परंतु मार्क्स-मैकॉले समूह का मुख्य मकसद समाज से किसी कुरीति को मिटाना नहीं, बल्कि उनका अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल करके ‘असंतोष’ का निर्माण करना है। श्रीराम का जन्म किसी दलित की हत्या करने हेतु नहीं हुआ। उनका अवतार रावण रूपी अन्याय, दुराचार और घमंड को समाप्त करने हेतु था। श्रीराम की जीवनयात्रा का ईमानदार विवेचनात्मक अध्ययन, बहुत से स्थापित मिथकों को ध्वस्त करता है।