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शाक्तमत की शुरूआत और विकास

शाक्त मत में शक्ति को ही विश्व का प्रधान ईश्वर माना जाता है। शाक्तों की ईश्वर संबंधी धारणा स्त्रैण है। विश्व के किसी भी अन्य धर्म में ईश्वर को स्त्री रूप में नहीं पूजित किया गया है। उसे ईश्वर की सहायक शक्ति अवश्य कहा गया है, किन्तु एकमात्र शाक्त मत में ही संसार की सर्वोपरि सत्ता एक नारी है। इस अवधारणा ने शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्म सभी मतों को प्रभावित किया।

वैदिक मतानुसार जगत के निर्माणकर्त्ता, पृथ्वी आदि जड़ और जीव से अतिरिक्त सब सृष्टिगत पदार्थों में पूर्ण पुरुष ईश्वर है। आरंभ में उस एकमात्र निराकार ईश्वर के गुण, स्वरूप के नाम, स्मरण, ध्यान, उपासना की जाती थी, लेकिन कालांतर में वेदमन्त्रों के सत्यार्थ को भूल जाने के कारण बहुदेववाद की प्रथा चल पड़ी। और ॐ नामधारी उस एकमात्र परमात्मा की प्रार्थना, उपासना के स्थान पर विभिन्न देवी- देवताओं की पूजा- अर्चना की परिपाटी चल पड़ी।

ईश्वर के विभिन्न रूपों की कल्पना के क्रम में ईश्वर के स्त्री रूप ईश्वरी की भी कल्पना की गई। और उसे गौरवपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए पूजा -अर्चना किया जाने लगा, जिससे शाक्तमत जैसे देवी पूजकों का भारत में उदय हुआ। वैदिक मतानुसार इस जगत का जन्म, स्थिति और प्रलय जिससे होता है, वह ब्रह्म है। यह समस्त जगत इसको बनाने वाले निमित्त कारण परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है। परमेश्वर ने इस जगत को उपादान कारण अर्थात सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म व मूल प्रकृति से बनाया है। इस मूल प्रकृति को ईश्वर ने उत्पन्न नहीं किया।

संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति, यह तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। इन जीव और ब्रह्म में से एक जीव है, वह इस संसार में पाप पुण्य रूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है, और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात भीतर व बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप व तीनों अनादि हैं।

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात जिनका जन्म कभी नही होता और न कभी यह तीन पदार्थ जन्म लेते हैं अर्थात ये तीन पदार्थ सब जगत के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ शुभ व अशुभ कर्म के बन्धनों में फंसता है और उसमें परमात्मा नहीं फंसता, क्योंकि वह प्रकृति व उसके पदार्थों का भोग नहीं करता।

सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति (सत्व), शुद्ध (रजः), मध्य (तमः) जाड्य अर्थात जड़ता के गुणों से युक्त है। यह तीन गुण मिलकर इनका जो संघात है, उस का नाम प्रकृति है अर्थात सत्व, रज व तम गुणों का संघात प्रकृति के सूक्ष्तम कण की एक इकाई के समान है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर इस प्रकृति के सूक्ष्म सत्व, रज व तम कणों में अपनी मनस शक्ति से विकार व विक्षोभ उत्पन्न कर इनसे महतत्व बुद्धि, उस महतत्व बुद्धि से अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पांच भूत ये चौबीस पदार्थ बनते हैं।

पच्चीसवां पुरुष अर्थात जीव और परमेश्वर है। इनमें से सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति अधिकारिणी और महतत्व बुद्धि, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य हैं। यही पदार्थ इंद्रियों, मन तथा स्थूल भूतों के कारण हैं। पुरुष अर्थात जीवात्मा न किसी की प्रकृति, न किसी का उपादान कारण और न किसी का कार्य है। यह प्रकृति ही शक्ति कहलाती है, जिसे पौराणिक ग्रंथों में देवी, भगवती, शक्ति, आदिशक्ति, पराशक्ति आदि नामों से संबोधित किया गया है, और वंदनीय माना गया है।

उल्लेखनीय है कि जगत की उत्पत्ति के तीन कारण निमित्त, उपादान तथा साधारण-  में से सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। प्रकृति अर्थात परमाणुरूप प्रकृति को सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं। वह जड़ होने से अपने आप न बन और न बिगड़ सकती है, किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है। यदा -कदा जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथ्वी से गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं, और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं। परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और बिगड़ना परमेश्वर और जीव के अधीन है।

वैदिक मत में ईश्वर एक है, वह ब्रह्मस्वरुप, निराकार, सर्वज्ञानी, सम्पूर्ण जगत में व्यापक सृष्टि को निर्माण के साथ चलाने वाला फिर कल्याणार्थ नष्ट कर के प्रकृति को मूल अवस्था में पंहुचा देने वाला और जीवात्मा को सुषुप्ता अवस्था में पंहुचा देने वाला परमेश्वर शरीर धारण नहीं करता। उसके अनेक दिव्य गुण होने के कारण अनन्त नाम हैं। और उसी परमात्मा की उपासना सभी मनुष्यों को करनी चाहिए।

लेकिन कालांतर में प्राचीन भारतीय आर्यों के साथ आर्येतर सांस्कृतिक धाराओं का समन्वय होने के परिणामस्वरूप वैदिक धर्म में बहुदेववाद और फिर शक्तिपूजा की धारा सबलतर हुई। और शाक्त परंपरा का उद्भव हुआ, जिसका सूत्र काल, महाकाव्य काल, पुराण काल और पुराणोत्तर युग में क्रमिक विकास हुआ।

शाक्त मत में शक्ति को ही विश्व का प्रधान ईश्वर माना जाता है। शाक्तों की ईश्वर संबंधी धारणा स्त्रैण है। विश्व के किसी भी अन्य धर्म में ईश्वर को स्त्री रूप में नहीं पूजित किया गया है। उसे ईश्वर की सहायक शक्ति अवश्य कहा गया है, किन्तु एकमात्र शाक्त मत में ही संसार की सर्वोपरि सत्ता एक नारी है। इस अवधारणा ने शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्म सभी मतों को प्रभावित किया। भारत में ही ईश्वर की स्त्री रूप में कल्पना करने वाला शाक्तमत का उदय हुआ। नारी के प्रति ऐसा पूज्य भाव उसे विश्व के अन्य मतों से पृथक स्थान का अधिकारी बनाता है और गौरवपूर्ण स्थान दिलाता है।

सिंधु घाटी आदि प्राचीन भारतीय सभ्यताओं के अध्ययन से शक्तिपूजा की प्राचीनता और विश्वसजनीनता का पता चलता है। देवीपूजा संबंधी अनेक बातें सैन्धव सभ्यता में विद्यमान थी। उनका समाज मातृसत्तात्मक था। सिंधु घाटी सभ्यता के पुरास्थलों की खुदाई में मातृदेवी की अनेक मृण्मूर्तियां मिली है। लिंग और योनि के भी अनेक प्रतीक मिले हैं, जो शक्तिवाद के सैंन्धव संस्कृति से प्रारंभ होने के संकेत सूचक है। वर्तमान समय में सनातन धर्म में यह लिंग और योनि क्रमशः शिव और देवी का प्रतीक है।

यद्यपि प्राचीन भारतीय आर्यों का धार्मिक ज्ञान श्रेष्ठ था, और वे एकेश्वरवादी थे। उनमें एकमात्र निराकार ब्रह्म की उपासना, यज्ञ व हवन आदि प्रचलित थे, तथापि कालांतर में वैदिक सत्य ज्ञान से दूर होने के बाद अन्य लोगों से समन्वय के क्रम में उनमें मंदिर में ईश्वर की पूजा, शिव तथा देवी का धार्मिक और दार्शनिक स्वरूप, लिंग-योनि पूजा, पवित्र तीर्थ स्थान, यौगिक क्रियाएं, कर्म व पुनर्जन्म का सिद्धांत, पूजा की धार्मिक विधि तथा मूर्ति-पूजा आदि बातें भी सम्मिलित हो गईं। इस समन्वय के बाद ही शक्तिवाद को संस्कार, विश्वास, पूजा और कल्पना जैसे तत्त्व मिले। वैदिक विचारधारा से शाक्त मत को दार्शनिक आधार मिला, अध्यात्म की अनुभूति मिली। वै

दिक ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वेदों में अंकित पुरुष नामधारी देवताओं के नाम के आधार पर ही बाद में देव पत्नी के रूप में देवियों की परिकल्पना की गई। यह देवियां यद्यपि गौण स्थान रखती हैं, किन्तु कालांतर में शक्तिवाद के उदय के बीज तत्व इन देवियों की कल्पना में ही विद्यमान है।

गौ, सरस्वती, उषा, अदिति, रात्रि, वाक्, दिति, श्री, पृथ्वी, श्रद्धा, सरण्यू, पुरंधि, मही, धीषणा, सिनीवाली, अरण्यानी, रुद्राणी, सूर्या, शचि, सीता, भारती और उर्वरा आदि देवियों को ऋग्वेद के देव मंडल में स्थान मिला है। और इन स्त्री देवताओं की प्रकृति के विभिन्न रूपों में मनोहारी वर्णन करते हुए आदर -सम्मान व्यक्त किया गया है।

ऋग्वेद में अतिशय आदर- सम्मान प्राप्त अनेक देवियों को कालांतर में इसी भावना के साथ देवी के रूप में मानवीकरण कर लिया गया। इसी कारण उषा, अदिति, रात्रि, श्रद्धा, श्री, गौ, सरस्वती, वाक (वाणी), सीता आदि ऋग्वैदिक देवियों को पौराणिक काल आते तक मानवीकरण हो गया और पूजनीय देवियों का स्थान प्राप्त हो गया। वैदिक ग्रंथों में पुरुष देवताओं की अपेक्षा देवियों को संख्या और महत्त्व की दृष्टि से गौण स्थान प्राप्त है। स्पष्ट रूप से तो नहीं, परंतु सूत्र ग्रंथों, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में शाक्त परंपरा की अविच्छिन्न धारा का प्रवाह सर्वत्र विद्यमान है।

कालांतर में देवी उपासना का क्रमिक विकास के साथ देवियों के महात्म्य में वृद्धि हुई। यही कारण है कि अनेक नवीन देवियों के पूजा -अर्चना का वर्णन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है। वर्तमान में शाक्तगण अपनी वांछित मनोकामना पूर्ति हेतु देवीपूजा नित्यप्रति के साथ ही आश्विन व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि के मध्य क्रमशः शारदीय व वासन्तीय नवरात्रि में विधि- विधान से करते हैं।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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