Bollywood news: ऐसे बहुत से शीर्षक हैं जिन पर दो-तीन-चार या और ज़्यादा बार फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन किसी महत्वपूर्ण या हिट फ़िल्म के शीर्षक के दोहराव की आज़ादी उसके जलाल के दोहराव की गारंटी नहीं होती।
इसलिए कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि अगर कहानी अलग है तो नाम भी अलग हो। समस्या उन फ़िल्मकारों के साथ भी है जो अपनी कोई फ़िल्म चल जाने पर उसके सीक्वल ही बनाते चले जाते हैं। ‘स्त्री’, ‘भूलभुलैया’ और ‘सिंघम’ के मामले में हम यही देख रहे हैं।
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परदे से उलझती ज़िंदगी
शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का ‘देवदास’ ऐसा उपन्यास है जिस पर देश में बार-बार और कई भाषाओं में फ़िल्में बनी हैं। प्रमथेश चंद्र बरुआ अमेरिका और यूरोप से फ़िल्म तकनीक का प्रशिक्षण लेकर आए थे। लौट कर उन्होंने पहले कुछ मूक फ़िल्में बनाईं और जब सवाक फ़िल्में शुरू हुईं तो उनमें भी सफल हुए। (Bollywood news)
वे कई फ़िल्मों में नायक भी बने। अपनी कंपनी फेल हो गई तो न्यू थिएटर्स में काम करने लगे जहां उन्होंने कई महत्वपूर्ण फ़िल्मों का निर्माण किया। देश में फ़्लैशबैक और मिक्सिंग इत्यादि के तकनीकी प्रयोग उन्होंने ही पहली बार किए थे।
उन्होंने ही एक-एक साल के अंतर से, पहले बांग्ला में, फिर हिंदी में और फिर असमी में ‘देवदास’ बनाई। बांग्ला में तो प्रमथेश खुद नायक भी थे।
मगर हिंदी वाली ‘देवदास’ में उन्होंने केएल सहगल को लिया। यह फ़िल्म 1936 में रिलीज़ हुई और जिसे कहते हैं कि इन्स्टेंट हिट साबित हुई।
इसके गीत हर तरफ़ गूंज रहे
इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि इसके गीत हर तरफ़ गूंज रहे थे और इसमें सहगल के पहने कपड़े फ़ैशन बन गए थे। दावा किया जाता है कि बहुत से युवा नशा करके इस फ़िल्म के नायक की तरह गाने और लड़खड़ाने की नकल किया करते थे।
बांग्ला के बाद हिंदी वाली ‘देवदास’ शुरू होने पर शरत चंद्र की दिलचस्पी भी शूटिंग में बढ़ गई थी और वे अक्सर कलकत्ता के टालीगंज में न्यू थिएटर्स के स्टूडियो आने लगे थे।
इसके रिलीज़ होने पर जब देश भर से इसकी सफलता और दर्शकों की दीवानगी की ख़बरें आने लगीं, कहते हैं कि तब एक दिन शरत चंद्र ने प्रमथेश चंद्र बरुआ से कहा – ‘ऐसा लगता है मानो मैंने इसी उपन्यास को लिखने के लिए जन्म लिया था और तुमने इस पर फ़िल्म बनाने के लिए।’
इस फ़िल्म में कैमरा बिमल रॉय ने संभाला था। उनके मन में यह कहानी कहीं फंसी रही। और ‘परिणीता’ की सफलता के बाद 1955 में इन्हीं बिमल रॉय ने दिलीप कुमार को लेकर फिर ‘देवदास’ बनाई। इसे भी ज़बरदस्त प्रशंसा मिली। कई पुरस्कार मिले। लेकिन यह फ़िल्म चली नहीं।
दिलीप कुमार की मैथड एक्टिंग ने इसे हिंदी की एक कालजयी फ़िल्म बना दिया, मगर अपनी लागत का पांचवां हिस्सा भी यह बॉक्स ऑफ़िस से नहीं निकाल सकी। उसी साल दिलीप कुमार की ‘आज़ाद’, ‘इंसानियत’ और ‘उड़न खटोला’ भी रिलीज़ हुई थीं।
ये सब सफल रही थीं, बल्कि ‘आज़ाद’ तो उस साल की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्मों में थी। मगर ‘देवदास’ का भट्टा बैठ गया था।
दिलीप कुमार की देवदास जैसी फ़िल्म नहीं चली
कई बड़े फ़िल्म समीक्षकों को लगता है कि जब यह फ़िल्म आई तब तक दर्शकों में बड़ी संख्या में केएल सहगल वाली ‘देवदास’ के मुरीद मौजूद थे। उसे उन्नीस साल ही तो बीते थे। यानी दिलीप कुमार की ‘देवदास’ जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्म इसलिए नहीं चल सकी थी कि सहगल की ‘देवदास’ की यादें अभी धूमिल नहीं हुई थीं।
आप कह सकते हैं कि संजय लीला भंसाली की शाहरुख खान को लेकर बनाई गई ‘देवदास’ का चलना इसलिए संभव हुआ कि पिछली ‘देवदास’ को सैंतालीस साल गुज़र चुके थे, दर्शकों की लगभग दो पीढ़ियां बदल चुकी थीं और नई उम्र के अधिकांश लोग उसके बारे में ठीक से जानते तक नहीं थे। (Bollywood news)
इन लोगों के लिए शाहरुख की ‘देवदास’ ही पहली ‘देवदास’ रही होगी। 2002 में आई इस फ़िल्म में भंसाली ने कहानी में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया, लेकिन परिवेश बेतरह भव्य बना दिया। बेहद महंगे सेट लगाए। बहुत खर्चा किया। इसके बावजूद इस फ़िल्म ने अपने बजट से दोगुने से भी ज़्यादा पैसे वसूल लिए।
इसका मतलब हुआ कि अगर कहानी और शीर्षक समान हैं तो बॉक्स ऑफ़िस को पिछली फ़िल्म को भुलाने के लिए पर्याप्त समय चाहिए। क्या इसीलिए गुलज़ार ने विमल राय की ‘दो दूनी चार’ की कहानी को चौदह साल बाद 1982 में नए सिरे से बनाया तो नाम बदल कर ‘अंगूर’ रखा और कामयाब रहे? इसके बत्तीस साल बाद सुभाष घई ने 2014 में इसी कहानी पर धर्मेंद्र और जिप्पी ग्रेवाल को लेकर एक पंजाबी फ़िल्म ‘डबल दी ट्रबल‘ बनाई तो वह भी ख़ासी सफल रही।
मगर जब रोहित शेट्टी ने 2022 में इसी पर आधारित ‘सर्कस’ बनाई तो वह इतनी बड़ी फ़्लॉप साबित हुई कि रोहित शेट्टी को अपने ‘कॉप यूनीवर्स’ में लौट जाना ही बेहतर लगा। यानी अगर आप उसी कहानी का नाम बदल दें, तब भी निर्माण का स्तरीय होना अनिवार्य शर्त है।
लेकिन इससे बड़ा मसला है, केवल शीर्षक के दोहराव का। मतलब कहानी तो नई होगी, लेकिन शीर्षक किसी पुरानी सफल फ़िल्म का ले लिया जाएगा। मसलन, पिछले साल यानी 2023 में आदित्य राय कपूर और मृणाल ठाकुर की एक फ़िल्म आई जिसका नाम ‘गुमराह’ था।
टी सीरीज़ वालों की इस क्राइम थ्रिलर का कहीं किसी को पता तक नहीं चला जो कि 2019 की एक तमिल फ़िल्म ‘थडम’ का रीमेक थी। मतलब, रीमेक किसी और फ़िल्म का और शीर्षक किसी और फ़िल्म का। इससे पहले 1993 में महेश भट्ट ने भी श्रीदेवी और संजय दत्त को लेकर एक ‘गुमराह’ बनाई थी।
इसकी कहानी हाल में आई आलिया भट्ट की ‘जिगरा’ से मिलती-जुलती थी। इस फ़िल्म ने कमाई भी अच्छी की थी। इसके बावजूद ‘गुमराह’ का नाम सुनते ही आज भी ज़्यादातर लोगों को सबसे पहले बीआर चोपड़ा की उस फ़िल्म का ख़्याल आता है जिसमें अशोक कुमार, सुनील दत्त और माला सिन्हा थे और जिसने हमें ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं’ जैसा अमर गीत दिया था।
ऐसे बहुत से शीर्षक हैं जिन पर दो-तीन-चार या और ज़्यादा बार फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन किसी महत्वपूर्ण या हिट फ़िल्म के शीर्षक के दोहराव की आज़ादी उसके जलाल के दोहराव की गारंटी नहीं होती। इसलिए कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि अगर कहानी अलग है तो नाम भी अलग हो।
समस्या उन फ़िल्मकारों के साथ भी है जो अपनी कोई फ़िल्म चल जाने पर उसके सीक्वल ही बनाते चले जाते हैं। ‘स्त्री’, ‘भूलभुलैया’ और ‘सिंघम’ के मामले में हम यही देख रहे हैं।
कोई दावा नहीं कर सकता कि ऐसी श्रृंखलाओं का हर संस्करण चलेगा। और जब भी कोई संस्करण नहीं चलेगा तो उसकी मूल फ़िल्म की आभा भी जस की तस नहीं रह पाएगी। उस पर भी कुछ खरोंचें पड़ेंगी।
अब लौटते हैं वाशु भगनानी और उनके बेटे जैकी भगनानी पर। इस परिवार के प्रोडक्शन हाउस पूजा एंटरटेनमेंट ने ही वह ‘बड़े मियां छोटे मियां’ बनाई थी जिसमें अमिताभ बच्चन और गोविंदा दोनों की दोहरी भूमिकाएं थीं। रवीना टंडन और राम्या के अलावा एक गीत के लिए इसमें माधुरी दीक्षित को भी लिया गया था।
एक तरफ़ दो चोर थे और दूसरी तरफ़ दो पुलिसवाले थे और दोनों जोड़ियों का मज़ेदार मिक्सअप था। डेविड धवन के निर्देशकीय अंदाज़ ने इसमें खासी मज़ाहिया स्थितियां प्रस्तुत की थीं।
यह 1998 में रिलीज़ हुई थी और इतनी चली थी कि उस साल की सबसे ज़्यादा कमाऊ फ़िल्म ‘कुछ कुछ होता है’ को टक्कर दे रही थी, जिसे करण जौहर ने बनाया था।(Bollywood news)
छब्बीस साल बाद भगनानी परिवार ने इसी ‘बड़े मियां छोटे मियां’ नाम से एक और फ़िल्म बनाई जिसमें अक्षय कुमार, टाइगर श्रॉफ और पृथ्वीराज सुकुमारन का भारी-भरकम एक्शन था।
पिछले अप्रैल में रिलीज़ हुई करीब साढ़े तीन सौ करोड़ की यह फ़िल्म इस साल की सबसे बड़ी फ़्लॉप मानी गई है। कई फ़िल्मों के बाद इसके भी पिटने से बॉलीवुड में ऐसा सन्नाटा छाया कि ‘स्त्री 2’, ‘भूलभुलैया 3’ और ‘सिंघम अगेन’ की सफलता के बावजूद उससे अभी तक पूरी तरह उबरा नहीं जा सका है।
आखिर भगनानी परिवार ने इसे बनाते समय क्या सोचा होगा? क्या दो दोहरी भूमिकाओं के हेर-फेर वाली किसी कॉमेडी फ़िल्म के शीर्षक पर कोई ‘साइंस फ़िक्शन एक्शन’ फ़िल्म बनाई जा सकती है?
जिन लोगों ने भी पहली वाली ‘बड़े मियां छोटे मियां’ देखी होगी वे सोच भी नहीं सकते होंगे कि उसी नाम की फ़िल्म में वे घनघोर एक्शन देखने जा रहे हैं। (Bollywood news
यह ऐसा ही है कि किसी दिन हम ‘नदिया के पार’ नाम की किसी फ़िल्म में देखें कि देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर एक नदी है जिसके पार कुछ न्यूक्लियर गोरखधंधा चल रहा है और हमारा रणबांकुरा हीरो उस ठिकाने को नेस्तनाबूद करके ही दम लेता है। या ‘आनंद’ नाम की किसी फ़िल्म का नायक लॉरेन्स बिश्नोई जैसा कोई गैंग्स्टर है जो नामी-गिरामी हस्तियों को जान से मारने की धमकियां देकर आनंदित होता रहता है।
या ‘कागज़ के फूल’ नाम की कोई फ़िल्म हमें बताए कि ग्लोबल वार्मिंग के चक्कर में जब फूलों का उगना मुश्किल हो गया तो हमारे हीरो ने एकदम असली जैसे दिखने वाले कागज़ के फूलों के उत्पादन का स्टार्टअप शुरू किया और वह देखते-देखते बहुत बड़ा उद्योगपति बन गया और अब देश में फूलों की कोई कमी नहीं है, बल्कि भारत उन्हें बड़े पैमाने पर निर्यात भी कर रहा है।
या फिर ‘दो आंखें बारह हाथ’ नाम से कोई ऐसी फ़िल्म आए जो प्रत्यारोपण के लिए शारीरिक अंगों की ख़रीद-फ़रोख़्त के रैकेट पर आधारित हो। यह कितनी शॉकिंग स्थिति होगी। (अगली बार भी इसी बारे में)