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शंघाई सहयोग संगठन में असहज हो गया है भारत?

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) ने अपने 24वें शिखर सम्मेलन के साथ एक नया मुकाम तय किया है। कजाख़स्तान की राजधानी अस्ताना में हुए इस शिखर सम्मेलन के साथ ही एससीओ प्लस के सरकार प्रमुखों की बैठक भी हुई। यानी सीएसओ के नौ पूर्ण सदस्यों के अलावा इसमे पर्यवेक्षक (ऑब्जर्वर) का दर्जा रखने वाले तीन देशों और 14 डायलॉग पार्टनर देशों के नेताओं को भी बुलाया गया। इसके अलावा अतिथि के तौर पर तुर्कमेनिस्तान इसमें शामिल हुआ। इसी यानी अतिथि की श्रेणी में कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भी भागीदारी हुई। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से महासचिव एंतोनियो गुटारेस खुद आए। संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त निम्नलिखित समूहों ने शिरकत कीः

  • 10 सदस्यीय आसियान (एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियान नेशन्स)
  • 38 सदस्यीय ओईसीडी (ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनमिक कॉ-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट। यह सबसे धनी देशों का संगठन है।)
  • 9 सदस्यीय सीआईएस (कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंटेट स्टेस्ट्स। यह पूर्व सोवियत गणराज्यों का संगठन है।)
  • 6 सदस्यीय सीएसटीओ (कॉलेक्टिव सिक्युरिटी ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन। यह मध्य एशियाई देशों का सुरक्षा संगठन है।)
  • 27 सदस्यीय सीका (कॉन्फ्रेंस ऑन इन्टरेक्शन एंड कॉनफिन्डेंस बिल्डिंग मीजर्स इन एशिया। यह एशिया में शांति, सुरक्षा एवं स्थिरता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से काम करने वाला संगठन है।)

अब यह साफ हो चुका है कि 24 साल पहले एससीओ का गठन भले एक क्षेत्रीय सुरक्षा संगठन के रूप में हुआ, लेकिन अब इसका प्रभाव क्षेत्र काफी फैल चुका है। या, जैसाकि चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने अपने संपादकीय में कहा- ‘गुजरे 23 वर्षों में कई उतार-चढ़ाव से गुजरने के बाद एससीओ धीरे-धीरे एक क्षेत्रीय संगठन से एक वैश्विक प्रभाव वाले संगठन में तब्दील हो गया है।’ (The choice jointly made by SCO is crucial to the world: Global Times editorial – Global Times)

एससीओ की स्थापना तब हुई थी, जब चीन के शिनजियांग प्रांत पर वीगर आतंकवाद का खतरा मंडरा रहा था। तब सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ वर्ष पूर्व ही स्वतंत्र अस्तित्व में आए मध्य एशियाई देश भी इस्लामी कट्टरपंथ से जूझ रहे थे। उधर रूस अपने क्षेत्र चेचन्या में इसी तरह की चुनौती से उबरने की कोशिश में था। तब इलाकाई जुड़ाव वाले इन देशों ने आतंकवाद का मुकाबला करने, क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने, और सीमाई विवादों को बातचीत एवं सद्भाव से हल करने के मकसद से इस संगठन को स्थापित किया था। यह वो दौर था, जब दुनिया एक-ध्रुवीय समझी जाती थी और अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने की बात अभी किसी देश की कल्पना से भी बाहर थी।

मगर धीरे-धीरे इस संगठन की भूमिका बदलती गई है। आज दावा किया जाता है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस संगठन से संबंधित है। इसी तरह परचेजिंग पॉवर पैरिटी के हिसाब से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (चीन), सबसे तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था (भारत), और 1990 के दशक के झटकों से उबर कर फिर से महाशक्ति के रूप में खड़ा हुआ देश (रूस) इस संगठन के सदस्य हैँ। उनके अलावा ईरान भी इसका पूर्ण सदस्य है, जो पश्चिम एशिया के समीकरणों में एक प्रमुख निर्णायक शक्ति बना हुआ है।

अस्ताना सम्मेलन में बेलारुस को दसवें पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल किया गया। बेलारुस पहला यूरोपीय देश बना है, जिसने एससीओ की सदस्यता ली है। इस तरह संगठन का दायरा एशिया से आगे बढ़ा है। बेलारुस चूंकि रूस का निकट सहयोगी है, इसलिए उसके एससीओ में शामिल होने की पश्चिमी मीडिया में खास चर्चा हुई है। कुछ सुर्खियों में कहा गया है कि एससीओ ने इस कदम के साथ अपने पश्चिम विरोधी तेवर को और स्पष्ट कर दिया है।

हालांकि अस्ताना में एससीओ नेताओं ने जोर दिया कि यह संगठन किसी देश या राष्ट्र-समूह के खिलाफ नहीं है, मगर अब बनी परिस्थितियों में यह धारणा गहराती जा रही है कि एससीओ पश्चिमी वर्चस्व को खत्म कर बहु-ध्रुवीय दुनिया बनाने की दूरगामी परियोजना का एक प्रमुख मंच बन गया है। ऐसी चर्चाओं में अब अक्सर एससीओ, ब्रिक्स प्लस और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन (ईएईयू) की एक साथ- यानी एक त्रिमूर्ति के रूप में- चर्चा की जाती है। ब्रिक्स प्लस और ईएईयू आर्थिक सहयोग के मंच हैं, जबकि एससीओ सुरक्षा एवं रणनीतिक सहयोग का भी मंच है। लाजिम है, शक्ति संतुलन की चर्चाओं में एससीओ को अधिक तव्वजो दी जाती है।

भारत की विडंबनाएं

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस समय जबकि एससीओ की वैश्विक भूमिका तेजी से बढ़ रही है, भारत ने इस संगठन के भीतर अपना रोल घटा लिया है। इसका पहला ठोस संकेत पिछले साल मिला, जब भारत ने एससीओ शिखर सम्मेलन की मेजबानी की। तब अचानक भारत सरकार ने नेताओं की व्यक्तिगत उपस्थिति के बजाय ऑनलाइन माध्यम से आयोजन करने का फैसला किया। बताया गया कि उससे एससीओ के सदस्य देश नाखुश हुए, मगर भारत ने उसकी परवाह नहीं की।

इस वर्ष जब मेजबानी कजाख़स्तान ने की, तो उस क्रम में हुई विदेश मंत्रियों की बैठक में भारत ने विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी को भेजा। और अब 3-4 जुलाई को हुए शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं गए। उनकी जगह विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत का प्रतिनिधित्व किया।

भारत ने अपनी विदेश नीति में इस मंच का महत्त्व क्यों घटाया, इसको लेकर कई कयास हैं। भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान ने जुड़े विश्लेषकों के मुताबिक 2017 में जब भारत एससीओ का सदस्य बना, उस समय इस संगठन में रूस अगर सर्व प्रमुख नहीं, तो कम-से-कम चीन के साथ प्रमुख सह-भूमिका में था। लेकिन अब सूरत बदल गई है। 2022 आते-आते रूस ने चीन के साथ रणनीतिक धुरी बना ली और दोनों देश मिल कर नई विश्व व्यवस्था के गठन का इरादा खुलेआम जताने लगे। बल्कि पिछले दो साल में तो चीन सबसे प्रमुख भूमिका में आ गया है। इस बीच 2020 में लद्दाख में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद सुलग गया।

वैसे भी नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से भारत की प्राथमिकता अमेरिकी नेतृत्व वाली धुरी के करीब जाने की रही है। मोदी काल में भारत ने ग्लोबल साउथ के साथ अपने हितों को देखने के बजाय विकसित पश्चिमी देशों के साथ “ऊंचे टेबल” पर बैठने को ज्यादा तरजीह दी है। स्वाभाविक है कि उन देशों के वर्चस्व को तोड़ने की योजना के साथ आगे बढ़ रहे देशों के समूह के साथ भारत का अंतर्विरोध ना सिर्फ उभरा है, बल्कि गुजरते वक्त के साथ अधिक तीखा होता जा रहा है। इस बीच भारत ने दोनों खेमों के बीच पैठ बनाए रखने और उनके बीच संतुलन बना कर चलने की कोशिश की है। सरकारी हलकों में इसे all-alignment यानी सबसे संबंध रखने की नीति कहा गया है।

कुछ समय पहले म्यूनिख सिक्युरिटी कॉन्फ्रेंस में विदेश मंत्री जयशंकर ने भारत की नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि भारत पश्चिम विरोधी नहीं है। वह गैर-पश्चिमी देश है। इसका अर्थ समझा गया कि भारत जी-7, क्वैड, अन्य पश्चिमी समूहों के साथ संबंध बनाए रखते हुए भी एससीओ, ब्रिक्स, जी-77 आदि समूहों के साथ भी जुड़ा रहेगा। मगर जिस वक्त खासकर एससीओ-ब्रिक्स एक नया रूप ग्रहण कर रहे हैं, और उनका पश्चिम विरोधी तेवर उभर रहा है, ऐसी नीति पर चलना लगातार कठिन होता जा रहा है।

स्पष्टतः भारत को भरोसा रूस के साथ अपने पारंपरिक संबंधों पर है। रूस के साथ भारत के आज भी गहरे सुरक्षा एवं आर्थिक संबंध हैं। इसके अलावा चीन के साथ भारत के बिगड़े संबंधों के बीच रूस एक ऐसी शक्ति है, जिससे बढ़ते तनाव के समय मध्यस्थता की उम्मीद की जा सकती है। वैसे 2020 की गलवान घटना के बाद बने नए हालात के बावजूद गुजरे चार वर्षों में भारत की चीन पर व्यापार निर्भरता बढ़ती चली गई है। भारत का कॉरपोरेट सेक्टर चीन से यह रिश्ता तोड़ने के पक्ष में नहीं है। बल्कि हाल में ऐसी खबरें आई हैं कि अडानी ग्रुप सहित कई कंपनियों ने भारत सरकार से कहा है कि वह ग्रीन एनर्जी जैसे क्षेत्रों में चीनी विशेषज्ञों को अधिक उदारता से वीजा दे। ऐसा ना होने की वजह से उनका कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

मगर मोटे तौर पर भारतीय शासक वर्ग का झुकाव पश्चिम की तरफ रहा है, लेकिन कॉरपोरेट सेक्टर की चीन पर अनेक निर्भरताएं हैं। पश्चिम की तरफ झुकाव की वैसे तो कई वजहें हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण भारतीय प्रभु वर्ग के अमेरिका एवं यूरोपीय देशों से जुड़े हित हैं। वित्तीय पूंजीवाद के इस दौर में दोनों देशों के साथ वित्तीय कारोबार में लेन-देन बढ़ता चला गया है। भारतीय प्रभु वर्ग में अपने बाल-बच्चों को अमेरिका या यूरोप में पढ़ाने एवं वहीं बसा देने की कोशिश का चलन भी बढ़ता चला गया है। हाल में दुबई जैसी जगहों पर बसने या जायदाद में अपनी संपत्ति लगाने का रुझान बढ़ा है, इसके बावजूद आज भी पश्चिम उनकी प्राथमिकता है। इनके अतिरिक्त औपनिवेशिक अतीत के कारण बनी मानसिकता भी- जिसमें स्वाभाविक रूप से पश्चिम को श्रेष्ठतर समझा जाता है- पश्चिम की तरफ झुकाव की एक वजह है। इन कारणों से मोदी सरकार की विदेश नीति संबंधी प्राथमिकताओं के पक्ष में मजबूत समर्थन है। बल्कि कहा जा सकता है कि यही वो समर्थन आधार है, जो सरकार की विदेश नीति को प्रेरित करता है। कुल मिला कर शासक वर्गीय राजनीति के दायरे में पश्चिम के प्रति झुकाव की नीति पर आम सहमति है।

नतीजा यह है कि आम तौर पर भारतीय सार्वजनिक विमर्श नए घटनाक्रमों से अपरिचित-सा बना हुआ है। नतीजतन, नए आर्थिक एवं व्यापारिक समीकरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी जुड़ाव, सूचना तकनीक संबंधी मानदंडों में विभाजन की बन रही स्थिति, नई तकनीक में चीन के अग्रिम स्थान हासिल कर लेने, नए सैन्य समीकरणों, और ग्लोबल साउथ के बहुत बड़े हिस्से में पश्चिमी वर्चस्व खत्म करने के गहराते संकल्प, आदि से संबंधित परिघटनाओं की जानकारी से भारतीय जन मानस वंचित बना हुआ है।

इसीलिए एससीओ-ब्रिक्स-ईएयूई जिस तरह की धुरी के रूप में उभर रहे हैं और ग्लोबल साउथ को अपने साथ जोड़ने में सफल हो रहे हैं, उसकी अनदेखी करने की भारत सरकार की नीति को देश के अंदर कोई चुनौती मिलती नहीं दिखती। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि तीन दिन तक संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चली चर्चा के दौरान विपक्ष की तरफ से विदेश नीति संबंधी कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं पूछे गए।

परिणाम यह है कि भारत ने नई वैश्विक व्यवस्था बनाने की आगे बढ़ी रही परिघटना के बीच नेतृत्वकारी भूमिका गंवा दी है। उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त होने के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत ने ऐसी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जबकि आज वह दो खेमों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में ही जुटा दिखता है। यह तो निर्विवाद है कि जी-7 के खेमे में किसी “गैर-पश्चिमी” देश की पिछलग्गू की भूमिका हो सकती है। जबकि भारत दुनिया के जिस खंड का हिस्सा है, वहां फिलहाल वह बस अपनी उपस्थिति भर जता देना आज काफी समझ रहा है!

बहरहाल, यह तो साफ है कि जिन वस्तुगत परिस्थितियों के कारण आज जो नई वैश्विक परिघटना (यानी ग्लोबल साउथ का उदय) उपस्थित हुई है, उसे रोकना लगभग असंभव है। इस परिघटना की नेतृत्वकारी कतार में बेशक आज चीन और रूस सबसे आगे हैं। उनके साथ ग्लोबल साउथ के देशों की एक लंबी कतार आ खड़ी हुई है। एससीओ के अस्ताना शिखर सम्मेलन ने इस बात पर और अधिक रोशनी डाली। अब सितंबर में जब रूस के कजान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन होगा, तो वहां भी नजारा कुछ अलग नहीं होगा। इसके बावजूद कि ब्रिक्स नेतृत्व ने फिलहाल धीमे चलने का फैसला किया है। अति उत्साह में अधिक देशों को खुद से जोड़ने की कोशिश ने कुछ चुनौतियां पेश कर दीं। तो इस बार के शिखर सम्मेलन में इसका और विस्तार ना करने का एलान मेजबान रूस ने किया है।

अब इस पर कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या प्रधानमंत्री मोदी कजान जाएंगे, या वहां भी नुमाइंदगी की जिम्मेदारी जयशंकर ही निभाएंगे? अगर भारत की मौजूदा सोच को ध्यान में रखें, तो ऐसा लगता है कि एससीओ में अगले दो साल भारत के लिए असहज रहने वाले हैं। इसलिए कि इसी वर्ष अक्टूबर में एससीओ की शिखर बैठक की मेजबानी पाकिस्तान करेगा। उसके बाद मेजबानी चीन को मिल जाएगी, जहां 2025 का शिखर सम्मेलन होगा।

भारत अपनी विडंबनाओं से कैसे निकलेगा, यह खुद उसको ही तय करना है। मगर कहा जाता है कि समय की धारा किसी का इंतजार नहीं करती। आज यह धारा ग्लोबल साउथ के पक्ष में है। हमारी आंखों के सामने जो भावी इतिहास लिखा जा रहा है, उसमें अपनी भूमिका की तलाश भारतीय नेतृत्व को करनी है। फिलहाल, अस्ताना में इस इतिहास का एक और पन्ना लिख दिया गया है।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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