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सबसे पीछे फ़िल्मी ख़बर

सोशल मीडिया के हल्ले में आजकल फ़िल्मी लोगों के ढेरों इंटरव्यू होने लगे हैं। लगभग हर दिन ऐसे इंटरव्यू ख़बरें दे रहे हैं। अगर उनमें ख़बर नहीं मिली तो कोई पुराना इंटरव्यू निकाल लिया जाता है। जैसे संजय मिश्रा का यह इंटरव्यू तीन साल पुराना था, फिर भी इसकी ख़बर सब जगह आई। कोई कलाकार या फ़िल्मकार किसी शो में जाते हैं और वहां दो-चार बातें कह देते हैं तो वह भी ख़बर बन जाती है और हर कहीं छपती है, एक साथ।

परदे से उलझती ज़िंदगी

अभिनेता संजय मिश्रा का कहना है कि पढ़ाई में उनका मन बिलकुल नहीं लगता था और लगभग बीस बरस की उम्र में भी वे स्कूल में ही थे। दिल्ली के गोल मार्केट वाले केंद्रीय विद्यालय में। घर के पास ही स्कूल था। रोज लंच के लिए परांठे और सब्ज़ी का डब्बा लेकर घर से निकलते, लेकिन स्कूल की बजाय तालकटोरा गार्डन पहुंच जाते। वहां कोई बड़ा निर्माण कार्य चल रहा था। पता लगा कि उनके घर का पुराना नौकर जयहिंद वहां मजदूरों की इंचार्जी कर रहा है। संजय ने उससे बात करके तय किया कि वे रोज सुबह नौ बजे वहां आ जाया करेंगे और शाम साढ़े चार बजे तक रहेंगे। इस बीच उनसे कुछ भी काम करवा लो। जयहिंद ने संजय को सरिया मोड़ने का काम दे दिया जिसके एवज़ में रोजाना उन्हें पांच रुपए मिलते थे। ये बातें खुद संजय मिश्रा ने नीलेश मिस्रा को दिए एक इंटरव्यू में बताई थीं। वही, ‘गांव कनेक्शन’ वाले नीलेश मिस्रा।

तो घर से निकल कर संजय तालकटोरा गार्डन जाते, स्कूल की यूनीफॉर्म उतार देते और एक गमछा जैसा लपेट कर सरिया मोड़ने के काम में जुट जाते। वहां उनका मन सिर पर पत्थर ढोने वाली एक मजदूर युवती के कारण भी लग गया था। लंच होने पर दोनों साथ बैठ कर खाना खाते। संजय अपना डब्बा उसे दे देते और खुद पास के तंदूर से एक रुपए की चार रोटियां और दाल लेकर आते। इस तरह, बढ़िया गुज़र रही थी। लेकिन एक दिन, जब वे सरिया मोड़ने में लगे थे तो पीछे से किसी ने उनके कंधे पर हाथ रखा। मुड़े तो सामने पापा खड़े थे, और पूछ रहे थे, ‘क्या भई, बाप प्रधानमंत्री के साथ आया है और बेटा सरिया मोड़ रहा है। अच्छा ग्रो कर रहे हो। कितने दिन से स्कूल नहीं गए हो?’

पापा शंभूनाथ मिश्रा पीआईबी यानी प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो में बड़े पद पर थे। दिल्ली के बहुत से पत्रकार उनके परिचित और दोस्त थे। और पापा एशियन गेम्स के लिए तालकटोरा गार्डन में चल रहे निर्माण कार्य के निरीक्षण के लिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ आए अधिकारियों में शामिल थे। खैर, घर लौटे तो फिर पूछताछ हुई कि कितने दिनों से स्कूल से गायब हो। स्कूल का प्रिंसिपल पापा को जानता था। उसने कहा कि मेडिकल सर्टीफ़िकेट दे दो, सब ठीक हो जाएगा। मगर पढ़ने-लिखने में उनका मन ही नहीं था। कुछ दिन बाद मां के पचास रुपए लेकर संजय ने घर छोड़ दिया। कहां जाते? पहाड़गंज की दुकानों के बाहर या नई दिल्ली स्टेशन पर यों ही कहीं सो जाया करते। किसी जगह कुछ लोग जुआ खेल रहे थे, तो वे भी उसमें शामिल हो गए और करीब पांच सौ रुपए जीत गए। जीत के बाद, मानो जश्न की तरह, कबाब खाने का मन हुआ तो घर के पास गोल मार्केट की उसी मशहूर कबाब की दुकान पर गए जिसका उन्हें चस्का था। खा ही रहे थे कि घर की डॉगी ने उन्हें पहचान लिया जो कि पापा के साथ उधर से गुज़र रही थी। यानी फिर पापा ने ही उन्हें पकड़ा, और जैसे ही पता चला कि मां बीमार हैं तो कबाब छोड़ कर संजय पापा के साथ घर चल दिए।

यह काफी लंबा इंटरव्यू था जिसमें संजय के पटना, बनारस, दिल्ली और फिर एनएसडी यानी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा औऱ फिर अपनी फ़िल्मी यात्रा के बहुत रोचक किस्से थे, जिनमें उनका हंसना भी शामिल था और रोना भी। लेकिन इस इंटरव्यू में से खबर यह बनी कि संजय जब बगैर किसी को बताए तालकटोरा में मजदूरी का काम कर रहे थे, तभी राजीव गांधी के साथ आए उनके पिता ने उन्हें देख लिया और कहा कि पिता प्रधानमंत्री के साथ आया है और बेटा सरिया मोड़ रहा है। इस ख़बर को लगभग एक महीना हो गया। सभी बड़े अखबारों और न्यूज़ साइटों में यह ख़बर थी। मगर किसी अख़बार ने या किसी साइट ने और अगर टीवी चैनलों पर भी यह ख़बर चली है तो उन्होंने भी यह ध्यान नहीं दिया कि दिल्ली में एशियन गेम्स 1982 में हुए थे और तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे।

राजीव गांधी तो 1984 में 31 अक्टूबर को हुई इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने थे। इससे पहले वे कांग्रेस के महासचिव थे और एशियन गेम्स की तैयारियों में देरी के अंदेशे के चलते इंदिरा गांधी ने सभी स्टेडियम और बाकी इंतजाम समय पर पूरे कराने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप रखी थी। राजीव गांधी इसी हैसियत से निर्माण कार्य का निरीक्षण करने तालकटोरा गए होंगे और उनके साथ बहुत से अधिकारीगण भी आए होंगे। मतलब यह कि जिस समय की बात संजय कर रहे हैं उस समय प्रधानमंत्री राजीव गांधी नहीं, इंदिरा गांधी थीं।

संजय मिश्रा हिंदी सिनेमा के उन कलाकारों में हैं जिन्होंने बहुत मेहनत से अपनी जगह बनाई है। एक समय था जब उन्हें राजपाल यादव का प्रतिद्वंद्वी भर मान लिया गया था, लेकिन धीरे-धीरे वे अपने ऊपर से कॉमेडियन का ठप्पा हटवाने में भी कामयाब हुए हैं। ‘मसान’, ‘अनारकली ऑफ़ आरा’, ‘वध’ और हाल ही की ‘गुठली लड्डू’ जैसी फ़िल्मों से यह संभव हो सका। इस इंटरव्यू में संजय ने जो कुछ कहा वह उनकी यादों में विसंगति या उनमें तारतम्यता के अभाव का मामला हो सकता है। हैरानी की बात तो यह है कि नीलेश मिस्रा ने इंटरव्यू के बीच ही संजय को क्यों नहीं टोका कि आप कुछ चूक कर रहे हैं। लेकिन नीलेश ही क्यों, हमारे अख़बारों या न्यूज़ साइटों को भी इसे प्रकाशित करने से पहले कोई खटका नहीं हुआ।

सोशल मीडिया के हल्ले में आजकल फ़िल्मी लोगों के ढेरों इंटरव्यू होने लगे हैं। लगभग हर दिन ऐसे इंटरव्यू ख़बरें दे रहे हैं। अगर उनमें ख़बर नहीं मिली तो कोई पुराना इंटरव्यू निकाल लिया जाता है। जैसे संजय मिश्रा का यह इंटरव्यू तीन साल पुराना था, फिर भी इसकी ख़बर सब जगह आई। कोई कलाकार या फ़िल्मकार किसी शो में जाते हैं और वहां दो-चार बातें कह देते हैं तो वह भी ख़बर बन जाती है और हर कहीं छपती है, एक साथ। बगैर यह सोचे कि इसमें कुछ गलत तो नहीं कहा गया। इनमें बहुत सी ख़बरें वे लोग प्रसारित करते हैं जिन्हें इसके लिए पैसा मिलता है। इन्हें आप पेड न्यूज़ भी कह सकते हैं। जैसे अनेक स्वतंत्र फ़िल्म समीक्षक ऐसे हैं जो लगभग हर फ़िल्म को अच्छा बताते हैं। आप पाएंगे कि जब भी कोई बड़ी फ़िल्म आने वाली होती है तो उससे संबंधित ख़बरों की बाढ़ आ जाती है। इसका कारण उसके प्रचार पर होने वाला भारी-भरकम खर्च होता है। उसका पोस्टर या फर्स्ट लुक रिलीज़ होना भी ख़बर है। ट्रेलर आना भी ख़बर है। फिर प्रमोशन के लिए उसकी टीम जब शहर-शहर घूमती है तो हर जगह अलग खबर बनती जाती है।

बड़े स्टारों के जन्मदिन पर उनके घरों के बाहर भीड़ के वीडियो और ख़बर बनवाना बाकायदा मैनेज किया जाता है। रात को तीन बजे भी कोई बड़ा स्टार अमेरिका से लौट रहा है तो एयरपोर्ट पर कैमरे मौजूद रहेंगे। दिन में तो खैर एयरपोर्ट पर फोटोग्राफरों की ड्यूटी ही लगने लगी है। विदेशी तर्ज़ पर इन फ़ोटोग्राफ़रों को पहले ‘पैपराज़ी’ कहा जाता था, लेकिन अब यह सिकुड़ कर ‘पैप्स’ हो गया है और हिंदी अख़बार भी यही शब्द छापने लगे हैं। ‘हॉस्पिटल्स’ के ‘बेड्स’ की तरह। पता नहीं, राजकिशोर जी आज होते तो कितने आक्रांत रहते। अब तो बहुत से कलाकारों की पैप्स से दोस्ती भी होने लगी है। एक फोटोग्राफर की चप्पल गिर गई तो आलिया भट ने उठा कर उसे पकड़ाई। एक नई गायिका नेहा भसीन एक जिम के बाहर दिखीं तो पैप्स की मांग पर उन्होंने वहीं दो लाइनें गाकर सुनाईं। दिलचस्प बात तो यह है कि ये सब ख़बरें बनती हैं। बल्कि कौन कलाकार कहां किस रंग और डिजाइन के लिबास में नज़र आया, यह भी ख़बर है। उसका हेयर स्टाइल भी। उसका बैग कैसा था, वह हाथ में क्या पकड़े था और कैसा लग रहा था, यह सब भी। यहां तक कि पैप्स ने किसी कलाकार को देख क्या टिप्पणी की, यह भी खबर है। मसलन, एक अभिनेत्री के लिए पैप्स ने कहा कि यह तो अपनी बेटी की बहन लग रही है। बस यही हेडलाइन हो गई।

अक्सर ख़बर आती है कि किस कलाकार ने कितने करोड़ में घर खरीदा या किस कलाकार का घर अंदर से कैसा है या कोई कलाकार किस बात पर ट्रोल हो गया या ट्रोल क्या कह रहे हैं। दो दिन पहले एक अख़बार की साइट पर ख़बर थी कि ‘सिज़ेरियन से मां बनी हैं ये एक्ट्रेसेज़’। इसमें दी गई सूचनाएं सही हों तो भी यह किस लिहाज़ से ख़बर है, इस पर आप चाहें तो सिर पीट सकते हैं।

फ़िल्मी ख़बरों को वैसे भी गंभीर ख़बरों के दायरे में नहीं रखा जाता। इसीलिए उन्हें ‘मूवी मसाला’ जैसे नाम दिए जाते हैं। एनडीटीवी जैसे गंभीर माने जाने वाले चैनल ने भी फ़िल्मी कार्यक्रम को ‘रात बाकी’ नाम दिया था। अगली समस्या यह है कि अख़बारों और चैनलों में परदे की दुनिया के गंभीर मुद्दों की तलाश कम से कमतर होती जा रही है। लेकिन जब मुख्य धारा की गंभीर मानी जाने वाली राजनीतिक और आर्थिक ख़बरें भी राजनीति और खेमेबंदी के प्रपंचों में फंस गई हों, ऐसे दौर में दूसरे विषयों की खबरों को बाज़ार छिछला बनाए तो उसे कैसे रोका जा सकता है? ऐसे में फ़िल्मी ख़बरों की ख़ामियां दूर करने की कौन सोचे?

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By सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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