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संघ परिवार: क्षुद्र मानसिकता का प्रसार

हिन्दी फिल्म उद्योग पर कोलतार पोतना संघ-परिवार की फूहड़ ‘नरेटिव’ योजना का ही ट्रेडमार्क नमूना है। उन का आईटी सेल अनाम पोस्टों द्वारा फिल्मी हस्तियों, गतिविधियों पर कीचड़ उछालता रहता है। इस के बावजूद कि फिल्मी दृश्यों, संवादों में वही संदेश या संकेत रहता रहा है, जो खुद गाँधीजी से लेकर आज के हिन्दू नेताओं‌ तक के प्रवचनों और औपचारिक शिक्षा में रहा है। जिसे संघ-भाजपा नेतृत्व भी दशकों से सोत्साह चला रहे हैं। पर वही संवाद किन्हीं फिल्मों में होने का उदाहरण देकर इसे ‘ऊर्दूवुड’ कह कर लांछित करवाते हैं।

कुछ वर्षों से प्रोपेगंडा चल रहा है कि ‘हिन्दी सिनेमा पर इस्लामिक संस्कृति थोपी गई’, उस का ‘उर्दूकरण’ किया गया। इस प्रोपेगंडा पर भरोसा करने वाले एक मोटी बात से अनजान लगते हैं कि बंबईया हिन्दी फिल्म उद्योग लगभग पूरी तरह पंजाबियों ने खड़ा किया था। देश-बँटवारे से पहले फिल्मों का केंद्र लाहौर था। वहीं सब से पहली सवाक् फिल्म बनी थी। बँटवारे के बाद अधिकांश कलाकर्मी लाहौर से बंबई आए जो आगे बड़े निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, आदि बने।

उस पंजाब में सदियों से शिक्षा और ज्ञान की भाषा फारसी और संस्कृत रही थी। पंजाबी भाषा भी अधिकतर फारसी लिपि में लिखी जाती थी। भगत सिंह अपने परिवार को उर्दू में चिट्ठियाँ लिखते थे। कवि अज्ञेय का शिक्षारंभ फारसी-अंग्रेजी-संस्कृत सीखने से हुआ था। तो जिन लेखकों कलाकारों की सहज भाषा ही फारसी थी, वे मुहावरों, उपमाओं, आख्यानों में क्या देते?! उन की प्रस्तुतियों, और रचनात्मकता पर फारसी-अरबी के साथ-साथ संस्कृत-हिन्दी भावभूमि की छाप भी गहरी थी। वरना, ऐसा सरस फिल्म उद्योग किसी इस्लामी देश में भी बन सकता।

हीर-राँझा, सोहनी-महीवाल, आदि पारंपरिक किस्से पंजाबी हैं। उन किस्सों में क्या इस्लामी, क्या हिन्दू, और क्या सिख है, या नहीं है – पहले कोई यह तो बताए? फिर महबूब खान, साहिर, मजरुह, शकील, या रजा के गीतों-संवादों में क्या ‘थोपा’ गया, कोई प्रचारक सामने आकर कहे! ऐसी कोई बात दिखाए जो गाँधीजी से लेकर वाजपेईजी तक ने भी बार-बार न ‘थोपी’ हो।

बल्कि, संपूर्णत: तीन कलाकारों – शकील, नौशाद, और रफी – की अदभुत रचना ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज…’ के जोड़ की कलाकृति आज तक किस राष्ट्रवादी ‘बौद्धिक’दाता ने दी है? संघ-परिवार अपने एक स्वयंसेवक को ‘कला-ऋषि’ की उपाधि दे चुका है। सो बताए कि उस के किस कलाकार की कोई कृति शकील, साहिर, रफी, महमूद, या रजा के समक्ष रखने लायक भी है?

जबकि, दरअसल गाँधीजी से लेकर विविध संघ नेताओं ने ही तमाम हिन्दू-घाती प्रस्थापनाएं थोपी हैं। मनगढ़ंत बातें बनाकर, उसे हिन्दू समाज पर विश्वासघात करते हुए लादी! खुद भरमते और सब को भरमाते हुए कि वही सच्चा हिन्दुत्व है। उन्हीं प्रस्थापनाओं और नीतियों ने हिन्दुओं को स्वतंत्र भारत में तीसरे दर्जे का नागरिक बना दिया। उसे छोड़ने, बदलने के बजाय संघ-भाजपा उन्हीं को चलाते रहे। आज भी मुस्लिम ‘तृप्तिकरण’ और हर बात में ‘ब्राह्मण-दोषी’ के भाषण देते रहते हैं। पर प्रोपेगंडा उस ‘ऊर्दूवुड’ के खिलाफ, जिस ने मनोरंजन और अविस्मरणीय गीत-संगीत से समाज को समृद्ध किया।

वस्तुत:, विविध हिन्दू नेताओं द्वारा ही हानिकारक विचार  गढ़ना, फैलाना विगत सौ साल से निरंतर जारी है। पहले भी गैर-इस्लामी भाव वाले जिन्ना को अपमानित कर कांग्रेस से धकियाया गया, और पक्के इस्लामी अली-बंधु, मौलाना आजाद, आदि को सिर चढ़ाया गया था। आज भी तसलीमा, रुश्दी को अपमानित उपेक्षित, जबकि वहीदुद्दीन, ओवैसी को सिर-आँखों बिठाया जाता है। यह सब हमारे नेता अपनी परमबुद्धि लगाकर कर रहे हैं। जैसे तब के महापुरुष ने अपनी चरमबुद्धि लगाकर ‘खलीफत जिहाद’ फैलाया था।

यह उसी का एक उदाहरण है। साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन से दूर, इस के कखग से भी लगभग अनजान, वे साहित्य, कला, और फिल्म जगत पर फतवे दे रहे हैं! सब पर दलबंदी का झाड़ू फेर रहे हैं। ताकि मुस्लिम-विरोधी भावनाएं फैलाकर गद्दी खरी करें। चाहे फिर नीतियों, कानूनों, शैक्षिक सामग्रियों में वही‌ इस्लाम-परस्ती, चादर चढ़ाते रहें। ऊपर से अपनी ऐसी नीतियों पर इतराएं भी कि, ‘कांगेस ने तो मुसलमानों को ठगा, जबकि हम उन को इतना अभूतपूर्व दे रहे हैं’! यानी, बेतहाशा बढ़ती विशेष ‘अल्पसंख्यक’ परियोजनाएं, जिसे कोई सलमान खान नहीं चलवा रहे। क्या यही सब छिपाने के लिए खास-खास समय पर मुस्लिम-विरोधी भाषणों की झड़ी लगाई जाती है?

वस्तुत: संघ-परिवार ने हालिया दशकों में सिद्धांत-व्यवहार का जो दो-मुहाँपन बनाया है, उसी क्रम में फिल्म जगत पर कालिख पोतवाना भी है। ताकि हिन्दुओं में हौआ खड़ा कर अपने साथ रखें। ताकि वे ‘वरना मुस्लिम राज बन जाएगा’ के डर से संघ-भाजपा को समर्थन दें। इस से अधिक उन के नेताओं का कभी कोई आशय न रहा, यह यदा-कदा उन के ही नेता कह चुके हैं।

परन्तु क्षुद्र मानसिकता फैलाना हर हाल में अनुचित है। हर बात में दूसरे नाम-अनाम का षड्यंत्र देखना। फिर बिना जिम्मेदारी लिए उसे फैलाना। कुल यही बौद्धिकता संघ-परिवार ने बनाई है। जो उन की सत्ता और दबाव के बदौलत आज असंख्य लेखकों पत्रकारों में छूतहे रोग-सा फैल गया है!

जबकि प्रत्यक्ष रूप से संघ-परिवार नेता ही हिन्दू-विरोधी अपकर्म करते हैं! वे पक्के इस्लामियों – देवबंदियों और फतवेदारों – को खुद पोषित और पुरस्कृत करते हैं। पर परोक्ष रूप से आम मुस्लिम लेखक कलाकारों के विरुद्ध उकसाते हैं। बिना परवाह किए कि कोई इस्लाम का पोषक है भी या नहीं। यद्यपि खुद एक नहीं, दो-दो बार राष्ट्रीय सम्मान देकर सब से घातक मौलानाओं में से एक को प्रतिष्ठा दी। उन से अपने एक संघ-संगठन का उदघाटन कराया! वह भी तब, जब एक गंभीर इतिहासकार मौलाना के विचारों और क्रियाकलापों का कच्चा-चिट्ठा सप्रमाण प्रकाशित कर चुके थे।

अतएव, इस्लामपरस्त मुस्लिमों को बढ़ावा, और मानवतावादी मुस्लिमों के विरुद्ध उकसावा – यदि यह डफरता नहीं, तो क्या है? याद रहे, संघ नेता सदैव ‘व्यवहारिक’ काम का दंभ रखते हैं, इसलिए विवेक-विचार से उन की जन्मजात शत्रुता है।

पर वे पंडित दिखने का भी लोभ रखते हैं! चाहे पठन-पाठन, चिंतन-मनन से वितृष्णा के कारण उन की बुद्धि अतिसरल, निरापद कल्पनाओं में सीमित घूमती रहती है। फलत: वे अनर्गल नारे और उटपटाँग मनोवृत्तियाँ फैलाते हैं।

सो, बड़े पत्रकारों या फिल्मकारों के प्रति थोक भाव में द्वेष फैलाना सरल काम है। बस ‘प्रेस्सीच्यूट’, या ‘ऊर्दूवुड’ जैसी गालियाँ और लांछन भर गढ़ना। बाकी लोगों में प्रचलित आम ईर्ष्या-द्वेष की भावना का दोहन कर सस्ते में विचारक बन लिया जाता है। यह आरामदेह, निरापद भी है। पर्दे के पीछे रहकर आरोप लगाना। चाहे संघ-भाजपा नेता भी हू-ब-हू वही विचार और नीति चलाते रहें जो नेहरूवादी सेक्यूलर वैचारिकी ने निर्धारित किया था।

अतः हिन्दी फिल्म उद्योग पर कोलतार पोतना संघ-परिवार की फूहड़ ‘नरेटिव’ योजना का ही ट्रेडमार्क नमूना है। उन का आईटी सेल अनाम पोस्टों द्वारा फिल्मी हस्तियों, गतिविधियों पर कीचड़ उछालता रहता है। इस के बावजूद कि फिल्मी दृश्यों, संवादों में वही संदेश या संकेत रहता रहा है, जो खुद गाँधीजी से लेकर आज के हिन्दू नेताओं‌ तक के प्रवचनों और औपचारिक शिक्षा में रहा है। जिसे संघ-भाजपा नेतृत्व भी दशकों से सोत्साह चला रहे हैं। पर वही संवाद किन्हीं फिल्मों में होने का उदाहरण देकर इसे ‘ऊर्दूवुड’ कह कर लांछित करवाते हैं।

वरना, 1950  से 1980  के दशक तक उन के ‘ऋषि’ और ‘विचारक’ संघ-महापुरुषों को यह नहीं दिखा था जब फिल्मों में महबूब खान, पृथ्वीराज कपूर, कमाल अमरोही, युसूफ खान, महमूद, मीना कुमारी, मुमताज, साहिर, मजरूह, आदि का जलवा रहा था? तब उन्हें कुछ ‘थोपना’ नहीं दिखा था? क्या तब के संघ नेता मंददृष्टि थे और आज वाले दिव्यदृष्टि से त्रिकाल देख रहे हैं?

सुरक्षित बैठे, सुरक्षित समय, सुरक्षित बहादुरी, और सस्ती कीचड़-उछाल – यही बचकानी, गैरजिम्मेदार बौद्धिकता संघ-परिवार ने फैलाई है। ‘ऊर्दूवुड’ के खिलाफ प्रोपेगंडा भी आईटी सेल माध्यम से प्रायोजित है। ताकि पूछने पर अपना पल्ला झाड़ा जा सके। पर कोई ‘ऊर्दूवुड’ न तो गुरु गोलवलकर, न दीन दयाल उपाध्याय को दिखा था, जबकि संघ में वे ही बड़े दीदावर कहे जाते हैं। इसलिए नहीं दिखा था क्योंकि वह बात ही नहीं थी, जो अभी फैलाई जा रही है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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