पीपल, वट (बड़ या बरगद), अशोक, आम, तुलसी, कदम्ब, बेल (बिल्व), पलाश, आक, केला, आंवला, हरसिंगर, कमल, कैथ, इमली, अनार, गुगल, नीम, बहेड़ा, हरैया, करंज, जामुन आदि अनेक वृक्षों को महत्वपूर्ण देवता मानकर उनकी पूजन परंपरा चल पड़ी। उनको पूजन सामग्री के रूप में भी प्रयुक्त किया गया। उनके औषधीय गुणों को परखकर अनेक पौधों को औषधीय पादपों के रूप में रोगों के उपचार के कार्य में लिया जाने लगा।
आदि सृष्टि काल से पौधे, वृक्ष व वन मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी रहे हैं। पौधे और वन का का उपयोग मनुष्य अपने आदि रचना काल से ही करता रहा है। हमारे आरंभिक पूर्वजों को भी वृक्षों और वनों की महता, उपयोगिता व आवश्यकता की अनुभूति थी। उन्हें यह मालूम था कि प्राकृतिक स्रोतों का मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्व है। इन्हें कोई हानि पहुंचने पर मानव समाज का ही अहित होगा। इसलिए उन्होंने मानव धर्म में इन्हें सम्मिलित कर इनके संरक्षण, संवर्द्धन पर बल दिया। इनका ही परिणाम है कि भारतीय परिवारों में पौधे उनके जीवन के आवश्यक अंग के रूप में स्वीकार किए गए।
पीपल, वट (बड़ या बरगद), अशोक, आम, तुलसी, कदम्ब, बेल (बिल्व), पलाश, आक, केला, आंवला, हरसिंगर, कमल, कैथ, इमली, अनार, गुगल, नीम, बहेड़ा, हरैया, करंज, जामुन आदि अनेक वृक्षों को महत्वपूर्ण देवता मानकर उनकी पूजन परंपरा चल पड़ी। उनको पूजन सामग्री के रूप में भी प्रयुक्त किया गया। उनके औषधीय गुणों को परखकर अनेक पौधों को औषधीय पादपों के रूप में रोगों के उपचार के कार्य में लिया जाने लगा। इनमें औषधीय गुणों के साथ-साथ पर्यावरण को भी स्वच्छ व ठीक रखने की अपार क्षमता है। ये अनेक प्रकार के दोषों का भी निवारण करते हैं। मनुष्य के दैनिक जीवन में इनकी अत्यधिक उपयोगिता भी है।
भारतीय संस्कृति में वृक्ष, पेड़, पौधों को विशिष्ट महत्ता प्रदान की गई है। मान्यता है कि वृक्ष हमारी संस्कृति के संरक्षक हैं। इसीलिए वृक्षों, वनों, पौधों और पत्तों तक को देवतुल्य मानकर उनकी पूजा किए जाने की परंपरा है। देवालयों के परिसर में स्थित वृक्षों को भी देवता मानकर पूजा जाता है। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेद में भी वृक्षों और वनों की महता, आवश्यकता का वृहत वर्णन करते हुए कहा गया है कि अनेक पौधे, वृक्ष तथा वन्य जीव मनुष्य-जीवन के लिए उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं। ऋग्वेद में पौधों को लगाना एक नियमित कार्य बताया गया है, जिससे पृथ्वी पर स्वर्ग बनता है। भारतीय परंपरा में उपयोगी पौधों तथा वृक्षों के संरक्षण के लिए उनको देवी-देवताओं से भी संबंधित किया गया है।
तुलसी को भगवान राम, शिव, विष्णु, कृष्ण, लक्ष्मी तथा जगन्नाथ से जोड़कर उसे महाऔषधि बताया गया। वत्ता को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा काल के रूप में माना गया। अशोक वृक्ष को बुध, इंद्र, आदित्य और विष्णु के रूप में अभिहित किया गया। पीपल को विष्णु, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूप में मानकर औषधि के रूप में उसको प्रयुक्त किया गया। आम को गोवर्धन, लक्ष्मी तथा बुध के रूप स्वीकार करके आम्रपल्लव को पूजा में रखने का प्रावधान और हवन में समिधा के रूप में इसका प्रयोग किया गया। कदंब वृक्ष को कृष्ण से और बेल को शिव, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य और लक्ष्मी से जोड़ा गया। इसे औषधि के रूप में भी प्रयुक्त किया गया। पौधों और वृक्षों की धार्मिक रूप से पवित्रता और उसकी उपयोगिता को देखकर उसके संरक्षण पर भी महत्व दिया गया।
प्राचीन काल में हरे वृक्षों को काटना वर्जित था। तत्कालीन समाज को यह भली-भांति पत्ता था कि पौधों को काटना और वनों को नष्ट करना, मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत हानिकारक है, क्योंकि इनके अभाव में बीमारियां फैलती हैं और पर्यावरण प्रदूषित होता है। भारतीय संस्कृति में वट वृक्ष को विशेष महत्व प्राप्त है। इस वृक्ष को प्रकृति के सृजन का और चैतन्य सत्ता प्रतीक माना जाता है। भारतीय संस्कृति में वृक्ष व वनस्पति रूद्र के रूप में मानी गयी है, क्योंकि वे वैषैली व हानिकारक हवा (गैस) पीकर प्राणवायु प्रदान करते हैं।
इसलिए पेड़ पौधों को सींचना, उन्हें जल प्रदान करना साक्षात महादेव शिव अर्थात रुद्र का जलाभिषेक करने के समान माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में एक वृक्ष को सौ पुत्र के समान कहा गया है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजन सृष्टि के प्रारंभ से ही चल रहा है। सदा सत्य पर आधारित सदा नूतन रहने वाले सनातन धर्म में प्रकृति और पुरुष दोनों की आराधना होती है। इसमें पांच तत्वों आकाश, जल, पावक, पृथ्वी (भूमि), वायु को भगवान स्वरूप माना जाता है, शिव तत्व माना जाता है और इनकी पूजा होती है। प्रत्येक जीव-जंतु प्राणी में ब्रह्म का दर्शन करने-कराने वाला धर्म है सनातन धर्म।
वृक्षों, पेड़, पौधो, झाड़ियों (हर्ब-सर्ब) के गुण आदि का विशेष वर्णन आयुर्वेद ग्रंथों में है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में वापी, पाली और जलाशयों का निर्माण कर वहां वृक्षारोपण करना किसी यज्ञ के पुण्य समान माना गया है। यहाँ हवन, यज्ञ आदि में समिधा का प्रयोग होता है, वह भी वृक्षों की देन है, जिसे पवित्र मानकर उपयोग किया जाता है। विष्णु पुराण के अनुसार एक सौ पुत्रों की प्राप्ति से भी बढ़कर एक वृक्ष लगाना और उसका पालन-पोषण करना है, इससे व्यक्ति पुण्य प्राप्ति करता है। चरक संहिता में प्राकृतिक औषधियों व जड़ी-बूटियों का चिकित्सकीय दृष्टि से उपयोग का वर्णन किया गया है। मत्स्य पुराण में दस पुत्रों, बावड़ियों, तालाबों एवं पुत्रों से बढ़कर एक वृक्ष को माना गया है।
ब्रह्माण्ड पुराण में लक्ष्मी को कदम्ब वन वासिनी कहा गया है। कदम्ब के पुण्यों से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। पद्म पुराण में भगवान विष्णु को पीपल वृक्ष, भगवान शंकर को वटवृक्ष और ब्रह्मा को पलाश वृक्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया है। वृहदारण्यक उपनिषद में पुरुष को वृक्ष का स्वरूप माना गया है। प्राचीन भारतीय राजवंश अपने गोत्रोच्चार में गोत्र, प्रबर, वेद, नदी आदि के साथ अपने मान्य व पूज्य वृक्ष का नाम भी बोलते थे, जो उनके कुल का द्योतक होता था। यहाँ वृक्ष को ब्रह्म स्वरूप कहा गया है। पौराणिक मान्यतानुसार ईशान कोण में आंवला नैऋत्य कोण में इमली, आग्नेय कोण में अनार, वायव्य कोण में बेल, उत्तर दिशा में कैथ व वाकूड़, पूरब में बड़ (बरगद), दक्षिण दिशा में गुगल और गुलाब तथा पश्चिम दिशा में पीपल का वृक्ष लगाना अथवा रहना शुभ माना गया है।
तुलसी को आंगन में उत्तर-पश्चिम कोण में प्रांगण या बाहर उत्तर की ओर लगाना या रखना ठीक है। पूरब दिशा में भी रहना कल्याणकारी है। माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घर में श्वेत आक (मदार) केला, आंवला, हरसिंगार, अशोक, कमल आदि को रोपण (लगाना) शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। घर, मकान के सामने शमी पेड़ को लगाना व पूजन करना कई कठिनाइयों का हरण करता है। कदम्ब के वृक्ष के नीचे परिवार सहित भोजन करने से परिवार फलता -फूलता है। शिवालय अथवा शिवमंदिर के निकट बेल (बिल्व) वृक्ष लगाने से उसका पूजन हो जाता है और पत्तों (त्रिपत्र) को शिवार्पण करने से अनके लाभ होता है। तुलसी एकादशी के दिन तुलसी के पौधों की अपनी पुत्री के समान विवाह की रीति संपन्न करने की परंपरा है। पथ के किनारे वृक्षारोपण करने से दुर्गम फल की प्राप्ति होती है, जो फल अग्निहोत्र से भी उपलब्ध नहीं होता, वह मार्ग के किनारे वृक्ष लगाने से मिल जाता है। वृक्ष पूजा की परंपरा में कार्तिक मास में महिलाओं द्वारा पीपल व वटवृक्ष की पूजा कर पानी से सींचने से पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है।
तुलसी को विष्णु प्रिया, केला को वृहस्पति और संतानदाता तथा पीपल को ब्रह्मा, विष्णु महेश के निवास के रूप में पूजा जाता है। चंदन भक्त और भगवान के माथे की शोभा है। भाल पर चंदन घिसकर लगाने से अदभुत शांति मिलती है। सब कार्य सिद्ध होते हैं। कार्तिक पक्ष की शुक्ल नवमी के दिन आंवला की विशेष पूजा का विधान है, इसे आंवला नवमी कहते हैं। पीपल को पुत्रदा कहा गया है। पीपल वृक्ष को नियमपूर्वक जल चढ़ाने से पुत्र की प्राप्ति होती है और शनि का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है। चैत्र कृष्ण दशमी को दशामाता कहा जाता है, महिलाएं इस दिन पीपल की पूजा करती है। ज्येष्ठ पूर्णिमा को स्त्रियां वटसावित्री का व्रत रखकर वटवृक्ष को जल सींचते हैं। वट सावित्री दिवस को बरगद की विशेष पूजा स्त्रियां करती हैं।
हरियाली अमावस्या और श्रीपंचमी (वसंत पंचमी) आदि पर्वों पर व्रत उपवास के साथ वनस्पति पूजा होती है। झारखण्ड के सदानों में शादी के पूर्व वर के द्वारा आम्र वृक्ष की पूजन कर बारात निकालने का प्रचलन है। आम्र वृक्ष की पूजन के बाद वर उस वृक्ष का फल उम्र भर नहीं खाता। झारखण्ड, बिहार सहित कई राज्यों में करमा वृक्ष के डाल के पूजन का विधान है। छत्तीसगढ़ के रतनपुर क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में आम के वृक्ष से आम तोड़ने से पहले उसके विवाह की विधि संपन्न की जाती है। पीपल, बरगद को ब्रह्म स्वरूप माना जाता है। उन्हें काटना ब्रह्म हत्या के समान माना जाता है। पक्षियों के घोंसले वाले वृक्ष तथा देवालय और श्मशान की भूमि पर लगे बड़, पीपल, बहेड़ा, हरड़, नीम, पलाश आदि वृक्ष को काटना शास्त्रानुकूल नहीं है। महुआ वृक्ष को काटना पाप का भागी बनना है।