नरेंद्र भाई हवा का रुख भांप गए थे कि स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाने की दलील दे कर आरएसएस इस बार उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देगा। सो, उन्होंने भाजपा संसदीय दल की बैठक ही नहीं होने दी और एनडीए के सहयोगी दलों से समर्थन की चिट्ठियां इकट्ठी कर ख़ुद को ख़ुद ही प्रधानमंत्री नामित कर लिया। अनुचरों ने पूरी निर्लज्जता से इसे ‘मोदी-3.0’ का ख़िताब दे दिया और हमारे नरेंद्र भाई ने इसे ‘एनडीए की निरंतरता’ के ज़ुमले से नवाज़ दिया।
सोचिए कि अगर नरेंद्र भाई मोदी का जन्मदाता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही जब दस बरस की उन की ऐंठू कार्यशैली को ले कर इतना उकता गया था कि संघ-प्रमुख मोहन भागवत से अपना दर्द खुलेआम व्यक्त करते रहा नहीं गया तो ग़ैर-अंधभक्त भारतवासी इस बीच किस क़दर कसमसाते रहे होंगे? कहने वाले तो अभी भी कह रहे हैं कि अगर इवीएम नहीं होतीं तो भारतीय जनता पार्टी पौने दो सौ सीटें भी पार नहीं कर पाती, मगर अगर 2024 के चुनाव नतीजे पूरी तरह पवित्र भी हैं तो सब पर अकेले भारी पड़ने वाले नरेंद्र भाई से बुरी तरह ऊबे हुए देश का संदेश उन के लिए साफ है।
बावजूद इस संदेश के नरेंद्र भाई ने ख़ुद को देश पर फिर थोप दिया। वे हवा का रुख भांप गए थे कि स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाने की दलील दे कर आरएसएस इस बार उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देगा। सो, उन्होंने भाजपा संसदीय दल की बैठक ही नहीं होने दी और एनडीए के सहयोगी दलों से समर्थन की चिट्ठियां इकट्ठी कर ख़ुद को ख़ुद ही प्रधानमंत्री नामित कर लिया। अनुचरों ने पूरी निर्लज्जता से इसे ‘मोदी-3.0’ का ख़िताब दे दिया और हमारे नरेंद्र भाई ने इसे ‘एनडीए की निरंतरता’ के ज़ुमले से नवाज़ दिया। दस साल में पहली बार उन के मुखारविंद से ‘एनडीए-सरकार’ का उच्चार सुन कर हमारे लोकतंत्र की झोंपड़ी के भाग्य खुल गए। वरना एनडीए तो एनडीए, भाजपा-सरकार का नाम सुनने को भी, आपके-हमारे तो क्या, भाजपाइयों के कान भी, दस बरस में तरस गए थे।
ऐसा नहीं है कि आरएसएस-प्रमुख ने पिछले दस साल में, और ख़ासकर पिछले पांच साल में, नरेंद्र भाई की कार्यशैली से असहमति के संकेत नहीं दिए थे। वे कम-से-कम आधा दर्जन बार सार्वजनिक तौर पर ये इशारे कर चुके थे कि प्रधानमंत्री के कामकाज में जिस ठेंगा-शैली के दीदार हो रहे हैं, वह भारतीय जनमानस के मूल स्वभाव से मेल नहीं खाता है। चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आते गए, यह साफ होता गया कि इस बार संघ के स्वयंसेवक पहले सरीखे उत्साह के साथ भाजपा की डोली उठाने को तैयार नहीं हैं। आरएसएस की पारंपरिक सोच के अनुगामी यह देख कर बहुत असहज महसूस कर रहे थे कि उनके परिश्रम के गर्भ से जन्मे मौजूदा प्रधानमंत्री का रवैया अपने पितृ-संगठन को अनुदत्त मान कर चलने का हो गया है।
यह वज़ह रही कि संगठन की शक्ति को व्यक्ति से ज़्यादा तरज़ीह देने वाले स्वयंसेवकों को भाजपा के मोदीकरण से चिढ़ होने लगी थी। वे हर धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि पर अपनी मुहर ठोकने की नरेंद्र भाई की हवस को ले कर क्षुब्ध होने लगे थे। भाजपा के बहुत-से ज़हीन सांसद भी निजी बातचीत में कहने लगे थे कि हर चीज़ में ‘मैं मैं’ की यह रट इतनी भयावह होती जा रही है कि जिस दिन मोदी डूबेंगे, पूरी भाजपा तिरोहित हो जाएगी। संघ और भाजपा का यह अंतःकक्ष इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि भाजपा की प्राण-रक्षा के लिए उसे मोदी-मुक्त करना ज़रूरी है।
तो नरेंद्र भाई तीसरी बार फ़िलहाल प्रधानमंत्री तो बन बैठे हैं, मगर भाजपा के मोदी-मुक्त होने की शुरुआत भी, मुझे तो लगता है कि, हो गई है। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि जुलाई की शुरुआत में भाजपा को मिलने वाला अध्यक्ष नरेंद्र भाई की ख़ालिस काष्ठपुत्तलिका नहीं होगा। उस के पहले से कहीं ज़्यादा स्वायत्त और अधिकारसंपन्न होने की उम्मीद तब तक तो कायम रखिए, जब तक कि ‘मोशा’-जोड़ी उसे पूरी तरह रौंद ही न दे।
चुनाव के अंतिम दिनों में भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा के दिए इंटरव्यू में आरएसएस के बारे में कही गई बातों के बाद नरेंद्र भाई और मोहन भागवत के बीच का शीतयुद्ध अपने पूरे उफ़ान पर आ गया था। बोझ बनते नरेंद्र भाई से छुटकारे की संघ की छटपटाहट भी इस के बाद बेपर्दा होने लगी। छटे चरण के मतदान वाले दिन एक राष्ट्रीय दैनिक में आरएसएस के राम माधव का लेख प्रकाशित हुआ। उस में नरेंद्र भाई को स्पष्ट संकेत दिए गए कि संघ रोज़मर्रा की राजनीति में टुच्चेपन को बढ़ावा देने के बजाय राष्ट्रनिर्माण को प्राथमिकता देने का पक्षधर है। चुनाव नतीजों के बाद तो राम माधव अपने लेख में साझा सरकार की दीर्घजीविता को ले कर भी संशय ज़ाहिर कर चुके हैं। इस बीच आरएसएस के विद्यावान अध्येता और संतुलित विचारक रतन शारदा ने ‘ऑर्गेनाइजर’ में लेख लिख कर बहुत तफ़सील से उन कारणों का ज़िक्र किया है, जो भाजपा को स्पष्ट बहुमत की दहलीज़ तक नहीं पहुंचने देने के लिए ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने मोदी के ‘मैंमैंवाद’ को खुल कर कोसा है।
भाजपा के नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी ने तो नरेंद्र भाई की नीतियों पर प्रहार करने में दस साल से कोई कसर बाकी रखी ही नहीं थी, मगर अब आरएसएस और भाजपा के बाकी बड़े-छोटे नेता भी बरसों से दबा अपना गुस्सा खुलेआम ज़ाहिर कर रहे हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि इस सब के बाद प्रधानमंत्री जी अपने कामकाज के तौर-तरीके बदलेंगे। मगर मुझे पूरा यक़ीन है कि वे न अपने तेवर बदलेंगे, न अपने तरीके। प्रधानमंत्री पद की तीसरी बार शपथ लेने के फ़ौरन बाद उन्होंने जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों-कर्मचारियों की लंबी-चौड़ी बैठक की, लंबा भाषण दे कर उन की पीठ थपथपाई और इस आयोजन को बढ़-चढ़ कर प्रचारित-प्रसारित किया, उस ने यह मंशा साफ कर दी है कि वे पीएमओ को आने वाले दिनों में राष्ट्रीय नियंत्रण कक्ष का संस्थागत स्वरूप बाक़ायदा दे देंगे।
नियंत्रण कक्ष तो पीएमओ दस साल से वैसे भी है ही और सरकार का हर, यानी हर, यानी अमित शाह तक का गृह मंत्रालय भी, पीएमओ के डायरेक्टर और ज्वाइंट सेक्रेटरी को ही रिपोर्ट करता है और कोई भी, यानी कोई भी, फ़ैसला पीएमओ के दिशा-निर्देश के बिना नहीं लिया जाता है; मगर अभी तक यह व्यवस्था संरचित ज़रूर है, पर उस तरह संस्थागत नहीं। कहने को भले ही नरेंद्र भाई ने कहा है कि वे चाहते हैं कि पीएमओ जन-पीएमओ बने, मोदी का पीएमओ नहीं, मगर आप देखेंगे कि अपने तीसरे कार्यकाल में वे जल्दी-से-जल्दी कैसे पीएमओ को ‘मोदी-समर्पित निपाती पलटन’ में तब्दील करते हैं।
एक बात और, चुनाव नतीजों के बाद नरेंद्र भाई की खुल कर ख़ामियां निकालने वाले अपने इंतज़ाम ज़रा पुख़्ता कर लें। अगर वे यह सोच रहे हैं कि संसद के भीतर शक्ति संतुलन की तराजू पर नरेंद्र भाई का पलड़ा पहले से थोड़ा हलका हो गया है, इसलिए वे विनत, उदार और समावेशी होने के लिए मजबूर हैं तो उन की उम्मीदों पर पानी नहीं, तेजाब फिरने वाला है। प्रतिशोध और पलटवार की अपनी मूल प्रवृत्ति छोड़ देना नरेंद्र भाई के वश की बात नहीं है। सो, बाक़ी-तो-बाक़ी, मोहन भागवत जी भी अपने गणवेष की पेटी ठीक से कस कर बांध लें। नरेंद्र भाई का सियासी-खंज़र अब तक उन की तलाश में निकल चुका होगा। भागवत जी का पुच्छकंटक विघात योग आरंभ हो चुका है। इसलिए मेरी तो उन से यही गुज़ारिश है कि निश्चिंत झपकियां लेने के दिन अब समाप्त हुए। यह समय एक-एक पल सतर्कता बरतने का है। धर्मयुद्ध अपने सत्रहवें दिन में पहुंच गया है।