उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं। कहा जाता है कि उनके इन्हीं गुणों के कारण सात सौ ब्राह्मणों ने भी उनसे दीक्षा ले ली थी। आज भी रविदासिया पंथ के लाखों लोग उनके बताए मार्ग पर चलते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। Ravidas Jayanti 2024
24 फरवरी -संत रविदास जयंती
संत शिरोमणि कवि रविदास न केवल सच्चे समाज सुधारक, पाखंड विरोधी तथा सदभक्त संत कवि थे, बल्कि उन्होंने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताकर सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। आदर्श आचरण तथा व्यवहार, विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे मनुष्योचित गुणों के कारण संत रैदास को तत्कालीन समाज में अत्यधिक सम्मान मिला। उनका वह सम्मान आज भी उन्हें प्राप्त है, और आज भी लोग उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण व नमन करते हैं।
मध्यकाल में स्वस्थापित रविदासिया पंथ के माध्यम से जाति- पाति का घोर खंडन कर आत्मज्ञान का मार्ग दिखाने वाले संत रविदास द्वारा रचित और गुरु अर्जुन साहिब द्वारा संपादित चालीस पद (भजन) सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल होने के कारण भी वे स्मरणीय, नमनीय और सर्वधर्म सम्मानीय हैं। परंतु ऐसे सर्वधर्म स्वीकार्य मध्यकालीन संत कवि गुरु रविदास (रैदास) के जन्म वर्ष के संबंध में आज भी विद्वानों में मतभेद बना हुआ है। एक मत के अनुसार रविदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1377 को हुआ था। लेकिन उनके संबंध में एक प्रचलित दोहे में उनका जन्म विवरण निम्न रूप में प्राप्त होता है- चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री गुरु रविदास। कुछ विद्वान इनका जन्म 1338 में मानते है। एक अन्य मत के अनुसार रविदास का जन्म सन 1398 में माघ पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। आज के तुक्की लगाने वाले इतिहासकार इनका जन्म 15वीं शताब्दी के आस-पास भारत के वाराणसी में होने की बात स्वीकारते हैं। और उनकी जन्मतिथि लगभग 1450-1470 ईस्वी के मध्य मानते हैं। लेकिन सभी मतों में उनका जन्म माघ पूर्णिमा के दिन होने की बात स्वीकारी गई है, इसलिए रविदास जयंती प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। वर्ष 2024 में रविदास जयंती 24 फरवरी को मनाई जाएगी।
संत रविदास के पिता का नाम संतोख (संतोष) दास तथा माता का नाम कलसां (कर्मा) देवी था। उनके दादाजी का नाम कालूराम और दादीजी का नाम लखपति था। रविदास का जन्म रविवार के दिन होने के कारण उनका नाम रविदास रखा गया। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी और पुत्र का नाम विजय दास था। रविदास को संत रामानंद का शिष्य और कबीर का गुरुभाई माना जाता है। कबीर द्वारा स्वयं रविदास को संतन में रविदास कहकर मान्यता दी गई है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया था। राजस्थान की मशहूर कृष्ण भक्त मीराबाई भी उनकी शिष्य बन गई थी। कहा जाता है कि चित्तौड़गढ़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी भी उनकी शिष्य रह चुकी थी। चित्तौड़गढ़ में संत रविदास की छतरी भी बनी हुई है। कहा जाता है कि मैं चित्तौड़गढ़ में ही वे स्वर्ग रोहन कर गए थे। इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वाराणसी में 1540 ईस्वी में उन्होंने अपना देह छोड़ दिया था। वाराणसी में संत रविदास का एक भव्य मंदिर और मठ है जहां हर जाति के लोग दर्शन करने जाते हैं। Ravidas Jayanti 2024
कवि रविदास चंद्रवंशी (चंवर) चर्मकार कुल से वास्ता रखने के कारण जीवन निर्वाह के लिए अपना पैतृक कार्य जूता बनाने का व्यवसाय किया करते थे। उन्हें यह कार्य करके बहुत खुशी होती थी, और वे कार्य का निष्पादन समय से पूरी लगन तथा परिश्रमपूर्वक किया करते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग उनसे अत्यंत प्रसन्न रहा करते थे। प्रारम्भ से ही रविदास परोपकारी तथा दयालु प्रवृति के व्यक्ति थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको परम आनन्द की अनुभूति मिलती थी। वे उन्हें प्राय: मूल्य प्राप्त किए बिना ही जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे।
इसलिए कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग घर बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करने लगे। शेष समय वह ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत किया करते थे। रविदास समय व वचन के पालन के पक्के थे। एक पर्व के अवसर पर गंगा स्नान के लिए जा रहे लोगों ने उन्हें भी चलने का आग्रह किया, तो उन्होंने कहा कि गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता, किन्तु गंगा स्नान के लिए जाने पर मेरा मन तो यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य की प्राप्ति मुझे कैसे होगी? मन अन्त:करण से जिस कार्य के लिए तैयार हो वही काम करना उचित है। मन के सही अर्थात शुद्ध, स्वच्छ होने पर इस कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। मान्यता है कि रविदास के इस प्रकार के व्यवहार से ही मन चंगा तो कठौती में गंगा, जैसी कहावत में प्रचलन में आई।
संत रविदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जिस समय उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था। और हर तरफ अत्याचार निर्धनता, भ्रष्टाचार और अशिक्षा का माहौल था। उस समय मुस्लिम शासक ज्यादा से ज्यादा लोगों को मुस्लिम बनाने के प्रयस में लगे रहते थे। रविदास की ख्याति दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही थी। इस कारण उनके लाखों भक्त थे। जिसमें हर जाति के लोग शामिल थे। रविदास की इस ख्याति को देखकर एक परिद्ध मुस्लिम सदना पीर उनको मुस्लिम बनाने आया। उसका मानना था कि यदि उसने संत रविदास को मुस्लिम बना लिया तो उनसे जुड़े लाखों भक्त भी मुस्लिम बन जाएंगे। इसलिए मुसलमान बनाने को लेकर हर प्रकार का दबाव रविदास पर बनाया गया, लेकिन संत रविदास ने सदना पीर की बात नहीं मानी।
रविदास ऐसे संत कवि थे, जो स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना किया करते थे, और उन्हें स्वयं ही भाव विभोर होकर गाया भी करते थे। कवि रैदास की रचनाओं का कोई व्यवस्थित संकलन उपलब्ध नहीं है। अनन्यता, भागवत प्रेम, दैन्य, आत्म वेदन और सरल हृदयता आदि गुणों से युक्त इनकी रचनाओं की भाषा सरल, प्रवाहमयी आदि गुणों से युक्त है। जन सामान्य को निश्चल भाव से भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न करती हुई इनकी प्रमुख रचनाएं – रैदास वाणी, रैदास जी की साखी तथा पद प्रहलाद लीला आदि के रूप में प्राप्य हैं। रविदास की रचनाएँ प्रेम, भक्ति और समानता का सार्वभौमिक संदेश देती हैं, जो उन्हें विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए सुलभ और प्रेरक बनाती हैं।
उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित भावना तथा सद्वयवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। उनके अनुसार ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है। अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। उनकी वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था।
उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे। उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं। कहा जाता है कि उनके इन्हीं गुणों के कारण सात सौ ब्राह्मणों ने भी उनसे दीक्षा ले ली थी। आज भी रविदासिया पंथ के लाखों लोग उनके बताए मार्ग पर चलते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
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