राज्य-शहर ई पेपर पेरिस ओलिंपिक

यायावरी रंगमंच का सितारा

भोपाल। स्कूल के दालान में चारों तरफ सैकड़ों स्कूली बच्चे बैठे हैं और बीचों बीच एक साधारण कुर्सी रखी हुई है। दैनंदिन पहनने वाली साधारण वेशभूषा में एक नौजवान रंगकर्मी बीचों बीच वाले स्थान में प्रवेश लेता है और विद्यार्थियों से अपना संवाद शुरू करता है, कहानी सुनाने के अंदाज में। यह कहानी हाशिये पर पड़े परिवार के एक बच्चे की है जो स्कूल में पढ़ता भी है और मजदूरी करने को भी विवश है। अभाव ग्रस्त जीवन जी रहे स्कूली बच्चे की कहानी में उसके माँ-बाप भी हैं, शिक्षक हैं, सहपाठी हैं और पूरा समाज है लेकिन मंच पर अकेला अभिनेता है जो बदल-बदल कर अलग-अलग पात्रों को अभिनीत करता है। बीच-बीच में वह दर्शकों को भी नाटक का पात्र बना देता है। एकल अभिनय का यह अद्भुत नाटक प्रस्तुत करते हैं युवा रंगकर्मी लकी जी गुप्ता जो दर्शकों को खूब हंसाते भी है और आंखांे में आंसू भी ला देते हैं। अपनी इस प्रस्तुति वह मंच पर ही नहीं बल्कि दर्शक बच्चों की भीड़ में जाकर अभिनय करते हैं।

बंद आडिटोरियम के बदले खुले मैदान या खुली जगह में होने वाले इस नाटक के लिये दर्शकों का चारों तरफ फैलकर बैठना जरूरी नहीं। यह दर्शकों की संख्या पर निर्भर करता है। अधिक संख्या हुई तो खुले मंच के सामने वे बैठ जाते हैं। यह प्रस्तुति इतनी अनौपचारिक और आत्मीय होती है कि इसके लिये किसी खास अनुशासन की भी जरूरत नहीं है। अभिनेता निदेशक लकी जी गुप्ता अपने आप में पूरा थियेटर हैं। न सेट, न लाइट, न परदा, न माइक, कुछ भी नहीं केवल कथ्य और अभिनय। इसी के चलते इस एकल नाटक का मंचन प्रायः दिन में होता है और ज्यादातर स्कूलों में स्कूली बच्चों के बीच।

लकीजी की थियेटर शैली इतनी अनौपचारिक है कि लखनऊ जाते वक्त ट्रेन में सहयात्री को वे अपने नाटक के बारे में बता रहे थे। वह यात्री इतना प्रभावित हुआ कि उन्होंने लकी जी को अपने गांव आने का आमंत्रण दिया। लकीजी ने कहा कि कहो तो अभी चलते हैं और वे सहयात्री के साथ लखनऊ से पहले स्टेशन पर उतरे और उनके गांव चले गये। वहां उनके नाटक को इतना पसंद किया गया कि आसपास के गांवों में दस दिनों तक वे अपने नाटक का मंचन करते रहे।

लकीजी का यह नाटक है ”माँ मुझे टैगोर बना दे“ जो पंजाबी लेखक मोहन भंडारी की कहानी का नाट्य रूपांतर है। बस यही एक नाटक वे देश भर में मंचित कर रहे हैं, एक दशक से अधिक समय से और अब तक लगभग तेरह सौ प्रदर्शन इस नाटक के हो चुके हैं। चंूकि इस एकल नाटक के मंचन में कोई तामझाम नहीं है और अभिनेता भी एक ही है, इसलिये यह बिल्कुल भी खर्चीला नहीं है, इससे स्कूलों व अन्य संस्थाओं को लकीजी के नाटक को आमंत्रित करने में अतिरिक्त सुविधा होती है। पश्चिम बंगाल में उनका यह नाटक इतना लोकप्रिय है कि इसके न केवल चार सौ से अधिक प्रदर्शन हुए बल्कि उनकी नाट्यशैली से प्रेरित होकर कोलकोता की रंगकर्मी ऋतु पर्णा भी इसी शैली में एकल नाट्य करने लगी और उनके नाटकों के भी सैकड़ों मंचन हो चुके हैं।

शुरूआत में अपने गृह प्रदेश जम्मू के आसपास इस एकल नाटक के मंचन के बाद लकीजी का हौसला और विश्वास बढ़ता गया और फिर उनकी यायावरी रंगयात्रा जम्मू के बाहर निकल पड़ी। एक दशक से अधिक के समय में उन्होंने दो तिहाई भारत के शहरों तक अपने एकल नाटक की पहुंच बना ली। उनका अनुमान है कि अब तक 60 लाख से अधिक बच्चों को वे अपना नाटक दिखा चुके हैं। लकीजी की रंगयात्रा को यायावरी मैं इसलिये कह रहा हूँ कि उनके नाट्य मंचन का कोई खर्च नहीं है और वे खुद कोई फीस नहीं मांगते। नाटक के बाद अपना गमछा फैला देते है और दर्षकों ने जो कुछ भी उसमें डाल दिया वही उनका मेहनताना भी है और आशीर्वाद भी।

लकीजी का नाटक न तो शौकिया है और न पेशेवर और न नुक्कड़ नाटक उनके नाटक को मैं आत्मनिर्भर नाटक कहूंगा जो बिना किसी सरकारी अनुदान के दर्शकों के सहयोग से फल-फूल रहा है। इसी से वे अब इतना कमा लेते हैं कि परिवार की अपने पांव में खड़े होने की शिकायत इन्होंने दूर कर दी है। लकी का अपना कोई स्थायी और ठौर ठिकाना नहीं है, सिवा जम्मू में रहने वाले परिवार के अलावा, जहां साल दो साल में जाना होता है। साल भर उनकी यायावरी चलते रहती है और देश भर में घूमघूम कर अपने एकल नाटक ”माँ मुझे टैगोर बना दे“ का मंचन करते रहते हैं। देश के कई प्रतिष्ठित रंग समारोहों में भी इस नाटक का मंचन हो चुका है लेकिन लकीजी का ध्यान हमेशा स्कूली बच्चों तक पहुंचना रहता है। स्कूली बच्चों तक रंगमंच को पहुंचाने का जो काम उन्होंने किया है, वह देश का शायद ही कोई रंगकर्मी नहीं कर सका है।

छत्तीसगढ़ इप्टा के सौजन्य से पिछले दिनों रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ ने स्कूलों में लगभग तीन दर्जन नाट्य प्रदर्शन उन्होंने किया। रायपुर के प्रदर्शन में मैं भी शरीक हुआ था और उनके इस एक घंटे के एकल नाटक को देखा। मजदूरी करने वाले एक बच्चे की कहानी कहते हुए वे अपना नाटक शुरू करते हैं और शिक्षक, पिता, माँ, सरपंच आदि की भूमिकायें निभाते हुए बच्चे की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। पिता की दुर्घटना में मृत्यु और स्कूल में पढ़ने की चाहत के साथ मजदूरी करने की बच्चे की विवशता पर कहानी समाप्त होती है। वे अपने इस नाटक में अलग-अलग भूमिकाओं में बड़ी सहजता से दर्शकों को हंसाते भी हैं और झकझोरते भी हैं। वे बालपन की चपलता, उसकी टैगौर बन जाने की लालसा और अभाव की विवशता को इतनी बखूबी से पेश करते हैं कि सर्वसुविधा संपन्न परिवारों के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी उन भावनाओं में बह जाते हैं। हजारों बच्चों की उपस्थिति में एक घंटे तक एकल अभिनय करते हुए नाटक को निभाना बेहद चुनौती पूर्ण काम होता है लेकिन अभिनय की विविधता, भावाभिव्यक्ति तथा संवाद अदायगी के उतार चढ़ाव के साथ लकीजी इस चुनौती को बातचीत करने के अंदाज में सहजता से पार पर लेते हैं।

इस नाटक की स्क्रिप्ट तो है लेकिन लकीजी उस स्क्रिप्ट से बंधे नहीं रहते और लगातार इंप्रोवाइज करते चलते हैं। इससे बार-बार एक ही नाटक को करते हुए भी वह मेके निकल नहीं होते बल्कि हर बार एक नया अनुभव वे पैदा करते है। उनकी यह रंगयात्रा बेहद संघर्षों से गुजरी है लेकिन हर मोड़ पर चमत्कारिक रूप से उन्हें बढ़ावा मिलता रहा। एक घटना का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि पटना में एक सप्ताह से अधिक रहते हुए उन्हें एक भी शो नहीं मिला और उनके सारे पैसे खत्म हो गये। निराश होकर वे सड़क से गुजर रहे थे तो देखा कि एक शिक्षण संस्था के कैंपस में कुछ छात्र खेल रहे थे। लकीजी ने उनसे अपने नाटक की बात की तो वे इसके प्रदर्शन के लिये तैयार हो गये। नाटक हुआ और वे चाहते थे कि उन्हें इसके बदले कुछ पैसे मिल जायें जिससे वे अपनी यात्रा को आगे बढ़ा सकें लेकिन वे कुछ बोल नहीं सके। उन छात्रों ने पैसों के बदले एक गिफ्ट बाक्स उन्हें दिया। वे निराश होकर आगे बढ़े। फिर जब उन्होंने वह बाक्स खोला तो उसमें एक लिफाफे में 21000 रु. थे। लकीजी खुशी से उछल गये ओर दुगने उत्साह के साथ उनकी यात्रा अगले पड़ाव के लिये निकल पड़ी।

उनकी इस एकल नाट्य यात्रा को मुख्यधारा के रंगमंच ने कितना स्वीकार किया, यह नहीं कहा जा सकता। वैसे हमारा अनुभव यह है कि एक बंधे बंधाये फ्रेमवर्क के बाहर के नाट्य प्रयोगों को आसानी ने नकार दिया जाता है। फिर भी प्रयोगधर्मी रंग निदेशक प्रसन्ना ने लकीजी को नाट्य प्रदर्षन के लिये अपनी एकेडमी में न केवल बुलाया बल्कि उन्हें तीन माह रखकर अपने बच्चों को यह नाटक सिखाने का काम सौंपा। इस नाटक का कन्नड़ अनुवाद खुद प्रसन्नाजी ने किया और अब उनके तीन कलाकार पूरे कर्नाटक में घूम घूमकर यह नाटक खेल रहे हैं।

लकीजी की स्कूली बच्चों तक नाटक को पहुंचाने की रंगयात्रा बदस्तूर जारी है, बिना किसी सरकारी या संस्थागत आर्थिक सहायता के। बिना किसी प्रचार-प्रसार के लोगों द्वारा अपने नाट्य अनुभव साझा किये जाने से उनका काम पूरे देश में जाना जाने लगा है और भारतीय रंगमंच में उनकी और उनके काम की अलग पहचान स्थापित हो चुकी है और दर्शकों का एक बहुत बड़ा समूह उन्होंने खड़ा कर दिया है जो उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि और ताकत है।

Tags :

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें