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नकार-स्वीकार की आधारभूमि का धूसरपन

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बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के प्रपौत्र राजरत्न अंबेडकर ने वीडियो संदेश में कहा हैकि आरक्षण के मामले में राहुल गांधी की अमेरिका में की गई टिप्पणी को तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाली भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने राजरत्न से संपर्क किया और उन से इस मसले पर आंदोलन खड़ा करने को कहा। धरने-प्रदर्शन करने का दबाव बनाया। दूसरी बात राजरत्न ने विस्तार से यह बताई है कि वे भाजपा के इशारे पर आंदोलनजीवी बनने को क्यों तैयार नहीं हुए?

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के प्रपौत्र राजरत्न अंबेडकर का वीडियो संदेश अगर आप ने अभी तक नहीं देखा-सुना है तो ज़रूर देखिए-सुनिए। इसलिए नहीं कि उन्होंने कोई बड़ा भारी रहस्योद्घाटन किया है। इसलिए कि अगर बाकी कोई बताता तो बहुतों को तरह-तरह के कुतर्क करने की हुलक उठने लगती, मगर राजरत्न की कही बातों को फूंक मार कर परे कर देना थोड़ा मुश्क़िल है। इसलिए कि वे बाबासाहेब के प्रपौत्र हैं।

वीडियो में पहली बात तो यह बताई गई है कि आरक्षण के मामले में राहुल गांधी की अमेरिका में की गई टिप्पणी को तोड़-मरोड़ कर पेश करने वाली भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने राजरत्न से संपर्क किया और उन से इस मसले पर आंदोलन खड़ा करने को कहा। धरने-प्रदर्शन करने का दबाव बनाया। दूसरी बात राजरत्न ने विस्तार से यह बताई है कि वे भाजपा के इशारे पर आंदोलनजीवी बनने को क्यों तैयार नहीं हुए?

राजरत्न ने अपने वीडियो में कहा है कि अमेरिका में अपूर्वा रामस्वामी नाम की एक लड़की के सवाल के जवाब में राहुल गांधी ने जो कुछ भी कहा है, एकदम ठीक कहा है। सवाल था कि आप भारत में आरक्षण कब तक जारी रखेंगे? राहुल ने जवाब दिया कि जब तक सामाजिक गै़रबराबरी है, आरक्षण रहेगा और जब सामाजिक भेदभाव ख़त्म हो जाएगा, आरक्षण भी ख़त्म हो जाएगा। राजरत्न पूछते हैं कि इस में राहुल ने क्या ग़लत कहा? यही बात तो हम अंबेडकरवादी भी कहते हैं।

तो राजरत्न मानते हैं कि राहुल ने आरक्षण पर ऐसा कुछ नहीं कहा है, जिस के ख़िलाफ़ धरना देने और प्रदर्शन करने की ज़रूरत है। राजरत्न कहते हैं कि हम अपने समाज के लिए काम करते हैं और हमारा समाज तय करता है कि हम किन मसलों को उठाएं। हम भाजपा के कहने पर और उन के दबाव में कोई आंदोलन भला क्यों करें?

जिन्होंने आरक्षण पर राहुल की अमेरिका में कही गई बातों को बिना किसी दुराग्रह के सुना है, वे सब भाजपा की तरफ़ से इस मसले को दिए जाने वाले तूल में छिपे काइयांपन से वाकिफ़ हैं। राहुल परदेसी संगोष्ठियों में शिरक़त करें और संघ-कुनबा उन की बातों की मीनमेखी मीमांसा न करे, यह कैसे हो सकता है? अगर ऐसा होने लगे तो भूमिगत तैयारियों उन का कारोबार ही ठप्प हो जाएगा। लाखों अनुचरों की रोज़ी-रोटी छिन जाएगी।

इसलिए राहुल-विरोध एक उद्योग बन चुका है। कांग्रेस-मुक्त भारत का जुमला इस उद्योग की भट्ठी का ईंधन है। इस भट्ठी को लगातार जलाए रख कर ही तो सियासी उबाल बनाए रखा जा सकता है। सो, भाजपा-संघ के पार्श्व कक्षों से संचालित होने वाले लाखों पुतले-पुतलियां हर सुबह उस दिन के लिए उन्हें निर्देशित आलाप की बांग एक सुर में लगाना आरंभ करते हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक अपना कर्तव्यपालन करने के बाद वे अगले दिन मिलने वाले निर्देश की प्रतीक्षा में खर्रांटे भरने चले जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि भाजपाई घ्वनि-विस्तारकों की इन चालबाज़ियों को राजरत्न के कहने से पहले कोई जानता नहीं था। मगर राजरत्न ने जो कहा, जिस तरह कहा, उस से संघ-कुनबे के रहे-सहे झीने वस्त्र भी पूरी तरह तार-तार हो गए हैं। सोचिए, प्रतिपक्ष को हर तरह से बदनाम करने के लिए ऐसे कितने राजरत्नों को ‘प्रेरित’ करने की कोशिशें हमारे सत्तासीन रोज़-ब-रोज़ करते होंगे? यह राजरत्न समझदार हैं, सो, उन्होंने समझदारी से काम लिया। मगर बहुत-से राजरत्न होंगे, जो इस जालबट्टे में घिर जाते होंगे। इन दस वर्षों में सत्तासीनों के संस्कारों की जैसी लुढ़कन आप ने देखी है, क्या पिछले किन्हीं भी दस वर्षों में कभी देखी थी?

विपक्ष के ख़िलाफ़ मिनट-दर-मिनट मुहीम चलाने का ऐसा अनवरत प्रयास पहले कभी नहीं हुआ करता था। इस मुहीम के लिए सियासी मंचों के साथ-साथ मीडिया-मुखौटों को अपना हथियार बनाने का ऐसा दृश्य पहले कहां दिखाई देता था? तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का इतना निर्लज्ज नाच किसी दौर में नहीं हुआ। ये दस साल हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में निम्नतम मिसालें ले कर आए हैं। इस दशक के अपकर्मों का ख़ामियाज़ा कई शतक भुगतेंगे।

मैं निराशावादी नहीं हूं। होना भी नहीं चाहता। मगर जो बेहद आशावादी हैं, उन्हें आगाह करना चाहता हूं कि प्रतिपक्ष की ज़रा-सी झपकी भी देश को भारी पड़ जाएगी। मुझे चिंता होने लगी है कि विपक्षी एकता के संतरे का छिलका कब तक भीतर की फांकों को बांधे रख पाएगा? क्या कोई ऐसा मंत्र है, जो इस छिलके को त्रिदशत्व प्रदान कर दे? अगर नहीं है, और यह छिलका अंततः नश्वर ही है, और उसे एक-न-एक दिन दरकना ही है, तो एक बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि जिस दिन यह छिलका जर्जर हो कर गिरेगा, उस दिन भारत एकतंत्रीय शासन व्यवस्था के अंधकूप में समा जाएगा।

ऐसा हो, इस के पहले कांग्रेस को अपनी अखिल भारतीय उपस्थिति को केंद्र-उन्मुखी ताकत देनी होगी। मोशा-भाजपा 2024 में भले ही 161+79=240 पर सिमट गई है, मगर कांग्रेस के लिए, और सकल-विपक्ष के लिए भी, आगे की रास्ता अब हमवार नहीं हो गया है। राह अभी भी कम पथरीली नहीं है। विपक्षी दलों के नेताओं की अपने-अपने क्षेत्रों से निकल कर केंद्रीय कैनवस पर छाने की महत्वाकांक्षाएं कम होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं।

असलियत यही है कि नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की शक़्लों से टपकते ख़ौफ़ की उफनती नदी में वे एक-दूसरे का हाथ थामे खड़े भले हुए हैं, मगर कांग्रेस की छतरी में सूराख किए बिना भी उन से रहा नहीं जाता है। कांग्रेस की मुसीबत यह है कि वह अभी ख़ुद के बूते पर समूचे देश की केंद्रीय राजनीतिक शक्ति बनने की स्थिति में अगले पांच-सात बरस नज़र नहीं आ रही है। एक अकेले राहुल अपनी कांग्रेस को ढो कर रायसीना पहाड़ी पर पहुंचा तो दें, मगर उन के इर्दगिर्द ज़्यादातर ऐसे लोग इकट्ठे हो गए हैं, जिन्हें राहुल से नहीं, ख़ुद से मतलब है। इसलिए राहुल की अनथक कोशिशों की सांसें भी बीच-बीच में फूलने लगती हैं।

राहुल भले न जानते हों, मैं अच्छी तरह और पक्के तौर पर जानता हूं कि ज़मीनी स्थिति के सच्चे आकलन उन की मेज़ पर पहुंचने के पहले किस छलनी से गुज़रते हैं। सूचनाओं, विवरणों और निष्कर्षों की आधार सामग्री को राहुल के सामने पेश करने से पहले रंग-रोगन के एक ब्रश से पोता जाता है। राहुल जिन पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं, उन में से कुछ की नीयत के खोट इतने घिनौने हैं कि जिस दिन राहुल को मालूम होंगे, वे स्वयं बैरागी हो जाएंगे।

इन दिनों 99 के फेर में पड़ी कांग्रेस को जल्दी ही अपनी इस तंद्रा से बाहर आ कर यह समझने की ज़रूरत है कि इस लोकसभा चुनाव का जनादेश उस के या विपक्ष के पक्ष में चल रही लहर का नहीं, मोशा-भाजपा से गहरे क्षोभ से उठी तरंगों का नतीजा है। कांग्रेस और विपक्ष के बारे में किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के बारे में तो मतदाताओं ने अभी सोचा ही नहीं है। देश के 60 फ़ीसदी मतदाताओं ने भाजपा और उस के सहयोगी दलों को खारिज़ किया है। मगर इस का यह अर्थ निकाल लेना नासमझी होगी कि उन्होंने कांग्रेस और बाकी विपक्ष को स्वीकृति दे दी है। इस नकार और स्वीकार की आधार-भूमि के धूसरपन को जानबूझ कर अनदेखा करने वाले बहुत बड़ा दचका खाएंगे।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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