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नदां की राजनीति देश के लिए जंजाल…?

Rahul GandhiImage Source: ANI

Rahul Gandhi: इन दिनों असंतुष्ठ राजनेताओं की बयानबाजी का दौर आदर्श मानवता की सीमा पार करता जा रहा है, अपने नेतृत्व के प्रति असंतुष्टी और प्रतिपक्ष का ओछापन दोनों साथ चलते नजर आ रहे है,

देश के प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के अनुभवहीन शीर्ष राजनेता जहां प्रमुख सत्तारूढ़ दल व उससे जुड़े संगठन के खिलाफ अर्थहीन बयानबाजी में व्यस्त है

वहीं सत्तारूढ़ दल के जनक संगठन (संघ) के शीर्ष पदाधिकारी सत्तारूढ़ राजनेताओं द्वारा की जा रही कथित उपेक्षा से परेशान होकर बयानबाजी कर रहे है।

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अब इसे देश का दुर्भाग्य कहे या देश का राजनीति नेतृत्व करने वाले का सौभाग्य कि आज देश के प्रमुख प्रतिपक्षी कुनबे का नेतृत्व एक गैर राजनीतिक अनुभवी के हाथों में है

और वे देश की सबसे बड़ी जनसभा (संसद) में भी प्रतिपक्षी नेता के ओहदे पर विराजमान है, यद्यपि प्रमुख प्रतिपक्षी नेता की यह (अ) योग्यता सत्तारूढ़ दल के नेता के लिए ‘‘जीवनदान’’ का रूप धारण कर रही है,

किंतु वर्तमान राजनीतिक दौर में उस पुरानी कहावत का हश्र क्या जिनमेें ‘निंदक नियरे’ रखने की सीख दी गई है?

यद्यपि पूरे विपक्ष के राजनीतिक विद्वान राजनीति में प्रतिपक्ष की महत्ता का गुणगान कर चुके है, किंतु किसी भी विद्वान ने ‘नादान प्रतिपक्ष नेता’ के बारे में कोई टिप्पणी नही की, जिसे आज भारत भुगत रहा है,

नादानी का ताजा उदाहरण(Rahul Gandhi)

उनकी नादानी का ताजा उदाहरण नवनिर्मित कांग्रेस भवन के उद्घाटन के समय उनका सम्बोधन है, जिसमें उन्होंने यह दिखाने की कौशिश की कि भारत में केवल वे ही अकेले नेता है जो सिद्धांतों की राजनीति कर रहे है

अपने इस सम्बोधन में उन्होंने न सिर्फ भाजपा व संघ से निपटने की बात कही बल्कि यह भी कह गए कि वे भारतीय राज्य (इंडियन स्टेट) से भी लड़ रहे है,

जबकि वास्तव में भारतीय राज्य से लड़ने का तो यह मतलब है कि उन्होंने सभी संस्थानों यानी एक तरह से देश के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है, इसी को तो नादानी कहा जाता हैI

उन्हें इस हद तक नही जाना चाहिए था, यह तो अलगाववादी संगठनों वाली भाषा है, यह किसी से भी छिपा नही कि इस तरह की भाषा नक्सली संगठन एवं कई देशविरोधी समूह बोलते रहते है।

ऐसी नादानी भरे बयान और उनकी भाषा राहुल की अपरिपक्वता और नादानी को स्पष्ट करती है, कमजोर प्रतिपक्ष व उसके नेता का नादान होना मोदी जी के लिए अवश्य सौभाग्यशाली होगा,

किंतु ऐसी स्थिति देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जाएगी। ऐसी ही राजनीतिक दिशा के कारण भारत अपनी आजादी के पचहत्तर साल बाद भी वह हासिल नही कर पाया जो वह पाने का हकदार था।

क्योंकि राजनीतिक पंडित ताल ठोंककर यह कह गए है कि- विपक्ष का कमजोर होना सत्तारूढ़ को तानाशाही का मार्ग दिखाता है और आज देश इसी दिशा की ओर अग्रसर हैै, अब इसका हश्र क्या होगा?

यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु राजनीतिक पंडित ऐसे परिदृष्य को देशहित में नही मानते। ….और इसे ही कहते है- नादां की राजनीति देश का जंजाल…।

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