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वाह उस्ताद, वाह !

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बिगुलवादकों ने ज़ोर-शोर से यह धुन बजानी शुरू कर दी है कि राहुल ने भारत गणराज्य के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है। इंडिया समूह की सीटें पिछली बार से 143 बढ़ीं। एनडीए के सभी घटक दलों को मिला कर 42.5 प्रतिशत वोट मिले। इंडिया समूह के सभी दलों को मिला कर 40.6 प्रतिशत वोट मिले। नरेंद्र भाई का गठबंधन प्रतिपक्षी दलों से सिर्फ़ दो प्रतिशत ज़्यादा वोट ले कर बन गया ‘देश’ और प्रतिपक्ष की तरफ़ से उठने वाले प्रश्न बन गए ‘देश के खि़लाफ़ युद्ध’

न राहुल गांधी होना आसान है और न नरेंद्र भाई मोदी होना। आसान होता तो नरेंद्र भाई पलक झपकते राहुल हो जाते और राहुल चुटकी बजाते नरेंद्र भाई। लेकिन सात जनम ले लें तो भी हमारे नरेंद्र भाई कभी राहुल नहीं हो पाएंगे और राहुल भी कितने ही जनम ले लें, कभी नरेंद्र भाई नहीं बन पाएंगे। जब तक सूरज-चांद रहेगा, यह अलटा-पलटी मुमकिन ही नहीं है। यह अलग बात है कि न राहुल कभी सपने में भी यह सोचेंगे कि मौका मिले तो वे नरेंद्र भाई बन जाएं और न नरेंद्र भाई के मन में कभी यह हुलक उठेगी कि अगर वे राहुल बन जाएं तो कैसा रहे? दोनों अपनी-अपनी जानें, मगर मकर संक्रांति चूंकि चार दिन पहले ही गई है, इसलिए मुझे इस मनोरचना की पतंग उड़ाने से आप कैसे रोक सकते हैं कि सोचो अगर ऐसा हो तो क्या हो कि दोनों की आपस में अदला-बदली हो जाए?

ऐसा करने के लिए राहुल को अपनी सकारात्मक दृढ़ता तिरोहित कर नरेंद्र भाई की नकारात्मक ढीठता अंगीकार करनी होगी और नरेंद्र भाई को अपनी स्वच्छंदता का धूसर लबादा खूंटी पर लटका कर राहुल का लोकलाजी गुलाबी साफा सिर पर धारण करना होगा। न राहुल यह कर पाएंगे, न नरेंद्र भाई। दोनों अपनी-अपनी स्वाभाविक प्रकृति के आगे ख़ुद को मजबूर पाएंगे। राहुल भारत के संविधान की पुस्तक तकिए के नीचे रखे बिना सो नहीं पाते हैं और नरेंद्र भाई जब तक उस के दो-चार पन्ने गुड़मुड़ न कर दें, रात भर करवट बदलते रहते हैं। राहुल का मन कुलियों, मैकेनिकों, मज़दूरों और मोचियों में रमा रहता है और नरेंद्र भाई को सरमाएदारों की संगत में आनंद मिलता है। तो ऐसे में राहुल कहां से नरेंद्र भाई की पायदान तक खिसक पाएंगे और नरेंद्र भाई कहां से राहुल के सोपान तक चढ़ पाएंगे?

समझदार समझे जाने वाले बहुत-से कांग्रेसियों को मैं कहते सुनता हूं कि नरेंद्र भाई बने बिना राहुल कभी कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला सकते। मगर राहुल हैं कि ठाने बैठे हैं कि इस जीवन में सत्ता मिलती हो, मिले, न मिलती हो, न मिले, नरेंद्र भाई तो वे कतई नहीं बनेंगे। मुझे राहुल का यह जीवन-दर्शन लोकातीत लगता है। सतयुग का तो सतयुग जाने, राजनीति पर कलियुगी छांह तो त्रेता युग में ही पड़नी शुरू हो गई थी और द्वापर आते-आते तो उस के साए की लंबाई अच्छी-ख़ासी हो गई थी। तो कलियुग की सियासत के कलियुगीपन का तो कहना ही क्या है? ऐसे में भी राजनीति की इस पथरीली कलियुगी मेड़ पर कोई नंगे पांव बेधड़क चला जा रहा है तो, आप उसे जो भी कहें, मैं तो इस वीतरागीपन की बलैयां लिए बिना नहीं रह सकता।

भौतिक सत्ता हासिल करने की होड़-दौड़ के अखाड़े में किसी अरिहंत की उपस्थिति से उपजने वाले सुकून का लुत्फ़ तभी मिल सकता है, जब आप के मन का एक छोटा-सा कोना बैरागी-भाव में भीगा हो। आप चाहें तो मेरी इस बात पर बुक्का फाड़ हंस सकते हैं कि आज के सियासी रेगिस्तान में राहुल की नखलिस्तानी मौजूदगी न होती तो गर्म रेतीले अंधड़ कब का सब उड़ा कर ले गए होते। इस कदर वाहियात छीना-झपटी और मारधाड़ के बावजूद इस एक दशक में जो थोड़ा-बहुत बचा रह पाया है, वह सिर्फ़ इसलिए है कि राज्य-व्यवस्था के तोपखानों और अवाम के बीच एक मुकम्मल इंसान खड़ा है और हटने को तैयार नहीं है, भटकने को तैयार नहीं है, सिमटने को तैयार नहीं है। इस समूचे दृश्य में उस की अनुपस्थिति की कल्पना तो कर के देखिए। आप सिहर उठेंगे।

जब राहुल ने कहा कि जनतंत्र की सेहत के लिए अवांछित तत्वों ने शासन-प्रशासन के चप्पे-चप्पे को अपने कब्जे में ले लिया है, इसलिए अब आम लोगों की लड़ाई महज सत्तासीन राजनीतिक दल या उस के पितृ-संगठन से ही नहीं रह गई है और हालात बदलने के लिए हमें सर्वांग राज्य-व्यवस्था से लड़ना होगा तो दक्षिणवृतः गुफ़ाओं से निकल-निकल कर बिगुलवादकों ने ज़ोर-शोर से यह धुन बजानी शुरू कर दी कि राहुल ने भारत गणराज्य के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है। पूरी निर्लज्जता से उन्होंने यह भ्रम फैलाने की नाकाम कोशिशें कीं कि किसी एक व्यक्ति की आलोचना, देश की आलोचना है। यह विमर्श गढ़ने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी गई कि सरकार यानी देश। यानी पांच बरस के लिए चुनी गई तमाम तत्कालीन सरकारें राज्य-व्यवस्था की प्रबंधक नहीं, स्वयं राष्ट्र-राज्य थीं। उन सरकारों के कुप्रबंधन के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले देश के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए थे।

एक तरह की नियमित प्रथा बन गई सांयकालीन टीवी बहसों में मैं ने सत्तासीन दल के नुमाइंदों से पूछा कि जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार के कथित कुप्रबंधन के ख़िलाफ़ संपूर्ण क्रांति का नारा बुलंद किया था या उन्होंने भारत गणराज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था? किशन बाबूराव ‘अण्णा’ हजारे को मुखौटा बना कर कांग्रेसी सरकार के कथित भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन खड़ा करने वाले क्या देश के ख़िलाफ़ युद्धरत थे? ज़ाहिर है कि मेरे सवालों के जवाब ख़ामोश थे। इसलिए कि सिर्फ़ सरकारें ही देश नहीं होती हैं। विधायिका भी देश है, स्थानीय निकाय भी देश हैं, प्रतिपक्ष भी देश है, नागरिक-समाज भी देश है। भारतमाता की देह का पोर-पोर देश है। एक तिहाई से बित्ता भर ऊपर समर्थन के जुगाड़ से एक तयशुदा अवधि के लिए व्यवस्थापक बन जाने को देश हो जाना कैसे मान लें? क्या आप को इसलिए 140 करोड़ भारतवासियों का प्रतिनिधि मान लें कि यह जुमला बार-बार दुहराए बिना आप अघा नहीं रहे हैं?

अगर आप की याद थोड़ी घुंधली पड़ गई हो तो 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों पर मैं दोबारा आप की नज़रे-इनायत चाहूंगा। कोई छह महीने पहले हुए आम चुनावों में कुल 97 करोड़ 79 लाख 65 हज़ार 560 पंजीकृत मतदाता थे। 66.1 प्रतिशत मतदान हुआ था। यानी 64 करोड़ 64 लाख 35 हज़ार 235 लोगों ने वोट दिए। हर संभव कोशिशों के बाद नरेंद्र भाई के नाम पर भारतीय जनता पार्टी को 23 करोड़ 59 लाख 73 हज़ार 935 वोट मिले। मतलब यह हुआ कि जो मतदाता अपने समर्थन का इज़हार करने मतदान केंद्रों तक गए, उन में से 41 करोड़ 4 लाख 61 हज़ार 300 ने भाजपा के पक्ष में खड़े होने से इनकार कर दिया था। नरेंद्र भाई अपनी पार्टी को 36.56 प्रतिशत वोट दिला पाए। यानी एक तिहाई से थोड़े-से ही ज़्यादा।

इंडिया-समूह के सब से बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस को 13 करोड़ 59 लाख 73 हज़ार 935 वोट मिले। कुल मतदान का 21.19 प्रतिशत। भाजपा की सीटें लोकसभा में पहले से 63 कम हो कर 240 रह गईं। कांग्रेस की सीटें पहले से 47 बढ़ कर 99 हो गईं। अब आइए एनडीए गठबंधन और इंडिया समूह पर। नरेंद्र भाई के एनडीए की सीटें पहले से 60 कम हुईं। इंडिया समूह की सीटें पिछली बार से 143 बढ़ीं। एनडीए के सभी घटक दलों को मिला कर 42.5 प्रतिशत वोट मिले। इंडिया समूह के सभी दलों को मिला कर 40.6 प्रतिशत वोट मिले। नरेंद्र भाई का गठबंधन प्रतिपक्षी दलों से सिर्फ़ दो प्रतिशत ज़्यादा वोट ले कर बन गया ‘देश’ और प्रतिपक्ष की तरफ़ से उठने वाले प्रश्न बन गए ‘देश के खि़लाफ़ युद्ध’। वाह उस्ताद वाह!

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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