महंगाई और गरीबी की मार से सताए हुए एक तरफ वे आम लोग हैं जिनमें आज भी संवेदना, कानून, नैतिकता और सामाजिक सरोकार बाकी है वही दूसरी तरफ रईसज़ादे हैं जो पांच सितारा मस्ती में इतना खोए हैं कि आम लोगों को कीड़े-मकौड़े समझते हैं। ग़नीमत है कि इस दुर्घटना के बाद वहाँ की भीड़ ने उस बिगड़े रईसज़ादे को घटना स्थल से भागने नहीं दिया।
जब कभी कोई ऐसा हादसा होता है जिसमें किसी बड़े नेता, उद्योगपति या किसी मशहूर हस्ती के परिवार का कोई सदस्य शामिल होता है तो वो मामला काफ़ी तूल पकड़ लेता है। ऐसे में अक्सर देखा गया है कि स्थानीय पुलिस भी दबाव में आ जाती है। पुलिस को दोहरा दबाव झेलना पड़ता है। परंतु यदि पुलिस अपना काम क़ानून के दायरे में रहकर करे तो एक यह कड़ा संदेश भी बनता है कि चाहे आप आम हों या ख़ास क़ानून सबके लिए बराबर है। इसके साथ ही यदि न्यायपालिका भी पुलिस पर सही कार्यवाही करने का दबाव बनाए रखे तो कोई भी मशहूर हस्ती या उसके परिवार का सदस्य क़ानून तोड़ने से पहले कई बार सोचेगा।
बावजूद इसके ऐसा क्यों है कि ऐसे हादसे रुकते नहीं हैं? आए दिन हमें किसी न किसी नामी व्यक्ति के परिवार के सदस्य द्वारा की गई दुर्घटनाओं के नए-नए मामले पता चलते हैं। क्या इन बड़े व रईस परिवारों में संस्कारों की कमी है या संवेदनशीलता की जो ये क़ानून तोड़ने में ज़रा भी संकोच नहीं करते?
ताज़ा मामला पुणे के एक बड़े बिल्डर के नाबालिग बेटे का है जिसने नशे की हालत में अपनी महँगी व तेज़ रफ्तार ‘पोर्श’ कार के रास्ते में आने वाले बाइक सवार दो युवाओं को कुचल दिया। जैसे ही मामले की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे तो पुलिस भी कार्यवाही करती नज़र आई। इतना ही नहीं पुणे के पुलिस आयुक्त को स्वयं ही इस मामले में प्रेस वार्ता कर पुलिस की कार्यवाही की जानकारी देनी पड़ी, जो कि सराहनीय है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि इस हादसे में जिन प्रमुख नियमों का उल्लंघन हुआ है वह तो कानूनी व्यवस्था के तहत ही आते हैं।
जैसे कि 18 वर्ष की आयु से कम होने पर वाहन चलाना। रेस्टोरेंट या पब द्वारा 25 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को नशीले पदार्थ देना। बिना रजिस्ट्रेशन नम्बर के किसी भी कार डीलर द्वारा गाड़ी को सड़क पर आने देना। यह कुछ ऐसे नियम हैं जिनका पालन हर देशवासी को करना चाहिए। फिर वो चाहे ग्राहक हो या बिक्री करने वाला व्यापारी।
यह एक ऐसा उदाहरण हैं जिससे पता चलता है कि हमारा ‘सभ्य और कुलीन’ समाज किस ओर जा रहा है। इस समाज में पैसे वाले या बड़े कहे जाने वाले लोगों की सोच, मनमानी, नैतिकता व समाज के प्रति जिम्मेदारी का क्या हाल है? इस वर्ग में सिर्फ अपनी खाल बचाने की चिंता हावी है? ये कोई मामूली लोग नहीं हैं जो रोजी-रोटी के जुगाड़ में ही परेशान रहते हैं। ये तो ऐसे लोग हैं जिनके पास अकूत पैसा है, बड़े से बड़े वकील रख सकते हैं और कोर्ट-कचहरी के काम के लिए दो तीन आदमी तैनात कर सकते हैं।
इस सबके बावजूद इन्हें जानलेवा गलती करके भी कोई पश्चाताप नहीं होता या इसके लिए कुछ भी करने की जरूरत महसूस नहीं होती। बड़े लोगों को अपने बिगड़ैल बच्चों को ही बचाने की फिक्र रहती है। उन परिवारों की कोई भी फ़िक्र नहीं होती जिनके घरों में इनके कारण मातम का माहौल बन गया।
महंगाई और गरीबी की मार से सताए हुए एक तरफ वे आम लोग हैं जिनमें आज भी संवेदना, कानून, नैतिकता और सामाजिक सरोकार बाकी है वही दूसरी तरफ रईसज़ादे हैं जो पांच सितारा मस्ती में इतना खोए हैं कि आम लोगों को कीड़े-मकौड़े समझते हैं। ग़नीमत है कि इस दुर्घटना के बाद वहाँ की भीड़ ने उस बिगड़े रईसज़ादे को घटना स्थल से भागने नहीं दिया। वरना कर्नाटक की हसन लोकसभा से उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना की तरह ये बिगड़ैल लाड़ला भी देश छोड़ कर भाग जाता। परंतु सोचने वाली बात यह है कि ऐसी मानसिकता एक दिन में तो पैदा नहीं होती। उसकी एक लंबी पृष्ठभूमि होती है। जैसे संस्कार वे अपने परिवार और परिवेश में देखते हैं वैसा ही बर्ताव फिर वे समाज में करते हैं।
ऐसे हादसों में ज़मानत लेते समय अदालत में बचाव पक्ष भले ही उसे बच्चा कहे, पर यदि उसके मां-बाप उसे बच्चा मानते तो इतनी महँगी कार से पार्टी में नहीं जाने देते। यदि जाना ज़रूरी होता तो कम से कम इस ‘बच्चे’ की हिफाज़त के लिए एक ड्राइवर तो साथ भेजते। पर रातों-रात रईस बनने वाले लोग आज इस बात पर गर्व करते हैं कि उनका बच्चा कौन सी गाड़ी चलाता है? कैसी गाड़ी चलाता है? किस ‘ब्रांड’ के कपड़े पहनता है? कैसी डांस पार्टियां आयोजित करता है? आदि। एक ऐसी ही अमीर महिला अपनी मित्र को बता रहीं थी कि उनका 16 साल का बेटा उनकी सातों गाड़ियाँ चला लेता है। इस एक वाक्य में उनकी पूरी मानसिकता का परिचय मिल जाता है। गाड़ी एक चलाए या सातों, क्या फर्क पड़ता है? हां, इस तरह यह ज़रूर पता चलता है कि कानूनों के पालन के प्रति इस वर्ग में कितनी अरूचि है।
कानून को अंगूठा बताने, तोड़ने की सोच वाले रईस लोग भारत में उसी मानसिकता से रहते हैं जैसे औपनिवेशिक शासक देश लूटने के लालच में भीषण गर्मी की मजबूरी झेलकर भी यहां पड़े रहते थे। जब तक उन्हें भारत से आर्थिक फायदा मिला, वे यहां टिके रहे। जब भारत उन पर भार बनने लगा, तो इसे छोड़ भागे। क़ानून के प्रति जिम्मेदारी तो मध्यम और निम्न वर्ग के उन युवाओं की है जिन्हें इसी भारत भूमि पर जीना और मरना है। उन्हें चाहिए कि इन रईसजादों के भड़काऊ जीवन की चकाचौंध से भ्रमित न हों बल्कि इनके कारनामों, इनकी जिंदगी और रवैए पर कड़ी निगाह रखें, ताकि भौंडे उपभोक्तावाद के इस नासूर को बढ़ने से पहले ही कुचल दिया जाए। वरना पुणे जैसे हादसे अन्य शहरों में भी होते रहेंगे।