सोशल मीडिया के इस युग में आजकल जिसे देखो वो अपने स्मार्ट फोन पर रील्स बनाते रहता है। कभी-कभी तो कुछ लोग इतने जोखिम भरे रील्स बनाते हैं जो जानलेवा हो जाते हैं। क्योंकि कई बार रील्स बनाने वाले दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं। लेकिन फिर भी इसकी लत उनका पीछा नहीं छोड़ती। परंतु आज सोशल मीडिया पर रील्स व पोस्टों से होने वाले जिस नुकसान की बात हम करेंगे वह इन सब से अलग है।
दरअसल सोशल मीडिया पर डाले जाने वाली पोस्ट और रील्स के चलते अब देश की संस्थाओं पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि सरकारी नौकरी पर तैनात लोगों ने या नए-नए भर्ती हुए अभ्यर्थी सोशल मीडिया पर कुछ ऐसा पोस्ट करते हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए। ये शौक उन्हें बहुत महंगा पड़ जाता है।
मामला एक महिला प्रशिक्षु आईएएस अधिकारी का है, जिसने नई मिली सत्ता के नशे में कुछ ऐसा कर डाला कि संघ लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठा भी दांव पर लग गई। पुणे ज़िला मुख्यालय में प्रशिक्षण के लिए नियुक्ति के दौरान अपनी अनुचित मांगों और अभद्र व्यवहार के कारण 2023 बैच की आईएएस पूजा खेडकर आजकल काफ़ी चर्चा में हैं। इन पर आरोप है कि बतौर प्रोबेशन आईएएस अधिकारी रहते हुए इन्होंने सत्ता का दुरुपयोग किया। हद तो तब हुई जब पूजा की अनुचित मांगों को प्रशासन द्वारा स्वीकारा नहीं गया तो उन्होंने अपनी निजी विदेशी लक्ज़री कार का इस्तेमाल किया और उसी पर लाल बत्ती लगवा डाली। उन पर यह भी आरोप है कि एडिशनल कलेक्टर के छुट्टी पर रहने के दौरान खेडकर ने उनके चेंबर पर कब्जा कर लिया और अपनी नेमप्लेट तक लगा दी। इस तरह ताक़त का प्रदर्शन करने के शौक़ ने उन्हें इस हद तक गिरा दिया कि वे नियम और क़ानून की खुलेआम धज्जियां उड़ाने लग गईं।
इतना ही नहीं जैसे ही इनकी अनुचित मांगों के क़िस्से मीडिया में आने लगे तो इनके चयन को लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गए। उल्लेखनीय है कि, सिविल सेवा परीक्षा के दौरान पूजा खेडकर ने यह दावा किया था कि वह मानसिक रूप से दिव्यांग हैं और उन्हें देखने में भी समस्या है। इसी दावे के चलते पूजा को रियायत मिली और कम अंक पाने के बावजूद उन्हें आईएएस में चुन लिया गया। परंतु हैरानी की बात यह है कि बिना मेडिकल जांच के ही उनका प्रशासनिक सेवा में चयन कैसे हुआ? नियम के अनुसार जब भी कोई उम्मीदवार यह दावा करता है कि वह दिव्यांग है तो मेडिकल विशेषज्ञों द्वारा इसकी जांच की जाती है।
पूजा की बात करें तो दिल्ली के एम्स अस्पताल में उनकी जांच अप्रैल 2022 में होनी थी। परंतु पूजा ने कोरोना संक्रमित होने का हवाला दे कर जांच में भाग नहीं लिया। एक महीने बाद जब उन्हें जांच के लिए दुबारा एम्स बुलाया गया तब भी वे नहीं पहुंची। ग़ौरतलब है कि पांच बार मेडिकल जांच को चकमा देने के बाद, कुछ सप्ताह बाद उन्होंने एक निजी क्लिनिक की जांच रिपोर्ट जमा करवाई जिसे संघ लोक सेवा आयोग ने अस्वीकार कर दिया। इस सबके बावजूद न सिर्फ़ पूजा का चयन आईएएस में हुआ बल्कि नियमों के विरुद्ध उन्हें ट्रेनिंग के लिए उनके गृह राज्य में ही भेज दिया गया। जबकि गृह राज्य में पोस्टिंग सेवाकाल के अंत में विशेष परिस्थितियों में दी जाती है। मामले के तूल पकड़ने पर पूजा को उनकी ट्रेनी पोस्ट से हटा कर वापस मसूरी के लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी भेज दिया गया है जहां पूजा को उन पर लगे आरोपों की जांच होने तक रहना होगा।
यहां सवाल पूजा का नहीं है बल्कि आईएएस बनने या प्रशासनिक सेवा में चुने जाने वाले हर उस उम्मीदवार का है जिसके माता-पिता प्रभावशाली अफ़सर या बड़े नेता हैं। वरना क्या वजह है कि किसी बड़े नेता के बेटा-बेटी का सामान्य से भी कम बुद्धिमता होने के बावजूद आईएएस जैसी कठिन परीक्षा में एक बार में ही चयन हो जाता है? जबकि मेहनत और ईमानदारी से यूपीएससी की तैयारी करने वाले लाखों साधारण युवाओं का कई-कई प्रयासों के बाद भी चयन नहीं हो पाता? इन सब परतों से परदा तब उठता है जब प्रभावशाली अभिभावकों के ऐसे ‘होनहार’ बालक सोशल मीडिया पर कुछ ऐसा पोस्ट कर देते हैं जो उनके मानसिक स्तर को दर्शाता है।
आपको याद होगा कि उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी अभिषेक सिंह द्वारा गुजरात चुनाव में ड्यूटी के दौरान सरकारी कार के आगे खड़े होकर खिंचवाई गई फोटो सोशल मीडिया पर काफ़ी वायरल हुई थी। इसका संज्ञान लेते हुए केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने उनके आचरण को अनुचित माना और उन्हें चुनाव की ड्यूटी से हटा दिया था। परंतु अभिषेक जैसे आपको कई अधिकारी मिल जाएंगे जो कि चर्चा में बने रहने के लिए अपने पद की गरिमा का ध्यान न करके सोशल मीडिया पर ना जाने क्या-क्या डालते हैं।
मामला पूजा खेडकर का हो या किसी प्रभावशाली मां-बाप के बेटे-बेटी का हो, ऐसी क्या मजबूरी है कि इन ‘होनहारों’ को यूपीएससी के चयन में एक के बाद एक छूट दे दी जाती है? जबकि किसी भी साधारण उम्मीदवार के साथ किसी भी तरह की रियायत नहीं दिखाई जाती। पूजा के मामले के बाद ऐसे कई और उदाहरण भी सामने आए हैं जहां फ़र्ज़ी दस्तावेज़ों के आधार पर कई उम्मीदवारों ने सिविल सेवा में बड़ी आसानी से भर्ती पाई। इस सबसे संघ लोक सेवा आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठने लगे हैं। देखना यह होगा कि ऐसी अनियमितताओं के लिए किस-किस को दोषी पाया जाता है?
लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं।