मोदीजी को यह बात कौन समझाएगा कि देश में कभी राजनीति इस उच्च स्तर कीरही है। तभी विदेशों में देश का सम्मान था। अब खुद अपने आप को विश्व गुरुकहने से सम्मान नहीं मिलता बल्कि लोग हंसते हैं। नेहरू की लकीर कितनी घिस रहेहैं। अपने अंदर बड़प्पन और भारीपन लाते तो नेहरू को छोटा करने की जरूरत नहीं पड़ती। दस साल सीखने और काम करने के लिए बहुत होते हैं। मगर उसकाउपयोग क्या किया? नेहरू और कांग्रेस के खिलाफ बोलने एवं देश में नफरत काजहर बोने के अलावा?
दक्षिण भारत से अभी तक गांधी नेहरू परिवार का इतिहास रहा है जीतने का। मगर यहभी सच है कि वहां से पहला चुनाव किसी ने नहीं लड़ा। प्रियंका गांधी को अपना पहला चुनाव ही दक्षिण से लड़ने को मिला है। यह उनकी च्वाइस नहीं थी। राहुल गांधी को फैसला करना था कि वे कौन सी सीट छोड़ रहेहैं। राहुल ने वायनाड छोड़ी तब प्रियंका का नाम वहां से आया।
राजनीति में सफलता महत्व रखती है। कौन कहां से लड़ा किसी को याद नहींरहता। अटल बिहारी वाजपेयी अपना पहला ही चुनाव हार गए थे। 1952 में लखनऊसे। फिर 1957 में वे तीन स्थानों से चुनाव लड़े। लखनऊ, मथुरा औरबलरामपुर। इनमें से दो जगह हारे। लखनऊ और मथुरा। मथुरा में वे राजामहेन्द्र प्रताप सिंह जो आजादी के आंदोलन के बहुत बड़े नेता थे से बुरीतरह हारे। चौथे स्थान पर रहे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अंग्रेजों केशासनकाल में अफगानिस्तान जाकर पहली निर्वासित सरकार बनाई थी। यही काम बादमें सुभाषचंद्र बोस ने किया था।
अटलबिहारी वाजपेयी बलारामपुर जीते थे। मगर 1962 में बलारामपुर से भी हार गए। लेकिनवह चुनाव वाजपेयी की हार के लिए नहीं इसलिए याद किया जाता है कि नेहरू नेउस चुनाव में वाजपेयी के खिलाफ प्रचार करने से जाने से इनकार कर दिया था। इसलिए नरेंद्र मोदी को कुछ और गालियां जवाहर लाल नेहरू को देना चाहिए। बाकी भाजपा वालों को और मीडिया को भी। अभी मीडिया से कहा गया था कि मोदी की बराबरी नेहरू से करदो। सारा गोदी मीडिया ढोल पीटने लगा कि तीसरी बार शपथ लेते ही मोदी नेहरूके बराबर हो गए।
नेहरू के बराबर होना क्या इतना आसान है? हाल में मोदी जी पूरे चुनाव में यह हल्ला करते हुए घूमते रहे कि कांग्रेस अगर आ गई तो यह ले लेगी वह ले लेगी।
उन्हें कोई बताए कि कांग्रेस जब थी तो वह लेती नहीं थी। देती थी। भाजपाको। उस समय जनसंघ नाम था उसका। और कांग्रेस के नेता थे पंडित जवाहरलालनेहरू। वही नेहरू जिसके बारे में ये कहते हैं कि उन्होंने यह नहीं कियावह नहीं किया। उन्हीं नेहरू ने 1962 में वाजपेयी के खिलाफ चुनाव प्रचारकरने से इनकार कर दिया था। बलरामपुर में सुभद्रा जोशी कांग्रेस की तरफ सेलड़ रही थीं। नेहरू की पसंद की उम्मीदवार थीं। आजादी के आंदोलन की नेता।मगर नेहरू ने कहा कि मुझ पर वहां जाने के लिए और प्रचार करने के लिए दबावमत डालिए। अटल अंतरराष्ट्रीय मामलों में लोकसभा में अच्छा बोलते हैं।
मोदी जी को यह बात कौन समझाएगा कि देश में कभी राजनीति इस उच्च स्तर कीरही है। तभी विदेशों में देश का सम्मान था। अब खुद अपने आप को विश्व गुरुकहने से सम्मान नहीं मिलता बल्कि लोग हंसते हैं। नेहरू की लकीर कितनी घिस रहेहैं। अपने अंदर बड़प्पन और भारीपन लाते तो नेहरू को छोटा करने की जरूरत नहीं पड़ती। दस साल सीखने और काम करने के लिए बहुत होते हैं। मगर उसकाउपयोग क्या किया? नेहरू और कांग्रेस के खिलाफ बोलने एवं देश में नफरत काजहर बोने के अलावा?
वाजपेयी भी संघी थे। पूरे संघी। किसी से कम नहीं। खुद कहा भी कि मैं पहलेस्वयंसेवक हूं। मगर इंसान भी पूरे थे। मानवीय मूल्यों को समझते थे।
खैर वह बात निकली थी सीट छोड़ने से। और पहुंच गई दो और तीन सीटों सेलड़ने के बड़े नेताओं के इतिहास तक। तो सबसे ज्यादा दो और एक बार तीनसीटों पर चुनाव लड़ने का रिकार्ड वाजपेयी के नाम पर ही है। दो स्थानों परचुनाव 1991 और 1996 में वाजपेयी ने बाद में भी लड़ा। लखनऊ विदिशा और लखनऊगांधीनगर। दोनों बार दोनों जगह जीते और लखनऊ रखा।
लालकृष्ण आडवानी भी दो स्थानों से लड़े। 1991 में नई दिल्ली और गांधी नगर। दोनोंजगह जीते थे। गांधी नगर सीट रखी थी।
लेकिन बीजेपी के इन नेताओं के दो-दो तीन तीन जगह से चुनाव लड़ने पर कभीसवाल नहीं उठे। मगर राहुल कुछ करें और सवाल नहीं उठें तो यह मीडिया किसलिए है? राहुल के वायनाड और रायबरेली लड़ने से और दोनों जगह भारी मतों सेजीतने से मीडिया को भारी सदमा लग गया। उसका एक कारण और था कि जिन मोदी जी के लिए वह इतना बैंड बाजा बजाता है वे राहुल को मुकाबले बहुत कम मतों सेजीते। और उस पर राहुल ने यह कहकर और आग लगा दी कि अगर बहन वाराणसी से लड़जाती तो मोदी जी दो तीन लाख वोटों से हार जाते।
राहुल की इतनी बड़ी बात का जवाब मोदी जी और मीडिया किसी ने नहीं दिया।शायद इस संभावना से ही डर गए। मगर राहुल को और प्रियंका को इस बात काजवाब देना चाहिए कि अगर कोई ऐसी बात थी तो प्रियंका लड़ीं क्यों नहीं?राहुल के कहने से ऐसा लगता है कि प्रियंका को आफर था। मगर वे नहीं लड़ीं।अगर ऐसा है तो यह बात प्रियंका के फेवर में नहीं जाती। प्रियंका की छविएक तेज तर्रार नेता की किसी से नहीं डरने वाली है। फिर वाराणसी से क्योंनहीं लड़ीं?
या कांग्रेस में कोई प्राब्लम है कि प्रियंका को सही मौका नहीं मिल रहा।अभी तक वे चुनावी राजनीति में नहीं थीं तो यह सारे सवाल दबे हुए थे। मगरअब वायनाड से लड़ने पर सब सवाल होंगे। उनका राजनीति में लेट आना। आने केबाद सबसे टफ राज्य उत्तर प्रदेश देना। और अभी जब चुनावी राजनीति में आनाथा तो अमेठी रायबरेली के बदले छोड़ी हुई सीट पर दक्षिण जाना।
वह कहा है ना उपर लिखा है कि राजनीति में सिर्फ सफलता याद की जाती है।कौन कब लड़ा। कहां से लड़ा हारा जीता यह सब खत्म हो जाता है अगर आपकोकामयाबी मिलती है। प्रियंका के लिए भी यही सच है। अभी तक की स्थिति में वायनाड उनके लिएज्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए। कांग्रेस और उसका गठबंधन यूडीएफ वहां 20में 18 सीटें जीता है। लेफ्ट जो वहां कांग्रेस का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी
है केवल एक सीट पर सिमट कर रह गया है। एक बीजेपी को मिली है। मगर वहबीजेपी से ज्यादा खुद उम्मीदवार सुरेश गोपी की मलयाली फिल्मों कीलोकप्रियता की वजह से है। गोपी वहां के बड़े फिल्मी एक्टर हैं। औरराजनीति में कांग्रेस के बड़े प्रशंसक। अभी मंत्री बनने के बाद बोलेइंदिरा जी तो मदर आफ इंडिया थीं।
तो ऐसी परिस्थितियों में केरल सेफ है। बशर्त की बीजेपी वहां अपने किसीबड़े नेता को चुनाव लड़वाने न पहुंचा दे। भाजपा ऐसा कर चुकी है। सोनियागांधी के खिलाफ दक्षिण के ही बेल्लारी (कर्नाटक) से सुषमा स्वराज को चुनाव लड़वाया था। सुषमा हारी थीं।
दक्षिण से परिवार के चुनाव लड़ने की शुरूआत 1978 में हुई थी। इन्दिरागांधी कर्नाटक के चिकमंगलूर से लड़ी और जीती थीं। 1980 में फिर मेंडक (आंध्र प्रदेश) से लड़ीं। मगर साथ ही रायबरेली से भी लड़ीं। रायबरेली में उन्हें हराने के लिए भाजपा विजयाराजे सिंधिया को ले आई। मगर ग्वालियर कीमहारानी को वहां अपने जीवन की पहली और एकमात्र हार सहना पड़ी।
यहां यह बताना मजेदार है कि उस समय इन्दिरा जी ने विजायाराजे सिंधिया कोहराने के बावजूद रायबरेली सीट नहीं रखी थी। मेडक रखी थी। और अब राहुल नेरायबरेली रखी है। इसकी एक वजह यह भी है कि एक सीट को दो बार छोड़ने सेगलत संदेश जाता। इसलिए राहुल का मन तो वायनाड पर बहुत था मगर रायबरेली इस बार छोड़ी नहीं जा सकती थी।
यह सब नेहरू गांधी परिवार के लिए मजेदार है। बेशर्त जीत मिलती रहे। दक्षिणसे परिवार कभी नहीं हारा है। हार जो दो हुई हैं। वह अमेठी रायबरेली से हीहुई हैं। राहुल और इन्दिरा जी की। वैसे तो उस समय परिवार एक था तो संजयगांधी की भी मानना चाहिए। 1977 में अमेठी की। तो तीन हार। मेनका गांधी कीअभी सुल्तानपुर से हार अलग मुद्दा है। वह यहां नहीं जोड़ी जा सकती। मेनकापहले भी हार चुकी हैं। अपना पहला ही चुनाव राजीव गांधी के खिलाफ लड़ा था।1984 मेंसंजय विचार मंच बनाकर और वे बुरी तरह हारी थीं।