खादर वली ने खोज करते हुए जाना कि गेहूं व चावल में शक्कर बनाने की क्षमता अति तेज है और शारीरिक कसरत कम हो जाने से शरीर का खून संचार से पहले ही गाढ़ा हो जाता है। जब वही जरूरत से ज्यादा गाढ़ा खून अपनी रगों से होता हुआ शरीर के विभिन्न भागों में जाता है तो वहां शक्कर के अंश छोड़ता, जमा करता जाता है। वही जमाव समय के साथ खर्चीलेजीवन को अस्तव्यस्त करने वाली भयंकर बीमारी बन जाते है।
अपन न तो डॉक्टर हैं, न ही कोई वैज्ञानिक। भुक्तभोगी जरुर हैं। बस जीवन की तीन संस्थाएं सृष्टि, समाज और शरीर से जीवन यापन करने में लगे हैं। चौदह नवंबर को विश्व डायबिटीज दिवस मनाया गया। सौ साल पहले डायबिटीज के इलाज के लिए इंसुलिन खोजने पर दो डॉक्टर/वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। पूरी दुनिया में डायबिटीज या मधुमेह या फिर साधारण तौर पर शुगर कही जाने वाली भयंकर स्थिति तेजी से फैल रही है।
आज माना जा रहा है की दुनिया के 54 करोड़ मधुमेह मरीजों में से 10 करोड़ से ज्यादा भारत में हैं। और इनके अलावा 15 प्रतिशत भारतीय मधुमेह के मुहाने पर हैं। भारत को दुनिया की मधुमेह राजधानी भी कहा गया। खान-पान और जीवन शैली बदलने भर से शुगर से निजात पाने का उपाय बताने वाले वैज्ञानिक डॉ. खादर वली को इसी साल पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मोटा-छोटा अनाज खाने का आग्रह करने वाले डा. खादर वली को मिलटमेन भी कहा जा रहा है।
पिछले दिनों दिल्ली के गांधी दर्शन के सत्याग्रह मंडप में मिलट महोत्सव मनाया गया। डॉ. खादर वली लगभग तीस साल से इन छोटे अनाजों पर गहन वैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। उनका मानना है कि प्रकृति में विविधता भगवान की ही देन है। भारत में गेहूं और धान के अलावा मोटे-छोटे अनाज भी बकायदा बराबर मात्रा में खाए जाते थे। इसलिए उगाए भी जाते थे। लेकिन पिछले सौ सालों में खान-पान के बाजारीकरण ने सिर्फ गेहूं और चावल में चीनी और नमक के मिश्रण से बने व्यंजन ही हमारी थाली में आने दिए।
जिसके कारण एक तरफ तो फायबर या रेशे की मात्रा ज्यादा के अनाज हमारी थाली से निकाल दिए गए। तो दूसरी तरफ हमारे शरीर की पौष्टिकता के लिए जरूरी विविधता कमजोर होती गयी। आज जो 2 में से 1 डायबिटीज और ब्लड-प्रेशर से प्रभावित लोग हैं इसका कारण भी हमारी थाली में विविधता की लगातार होती रही कमी है। ये दोनों जीवनशैली की परिस्थिति अगर लंबे समय तक चलती है तो भयंकर बीमारियों के रूप में उभरती हैं।
ये मिलट यानी पांच पारंपरिक छोटे अनाज जिनमें सबसे ज्यादा फाइबर या रेशा पाया जाता है। ये पांच मिलट हैं कोदो, कंगनी, कुटकी, मुरात और सांवा। इनके अलावा मोटे अनाज जौ, ज्वार, रागी, बाजरा और मक्का के उपयोग भी हैं जो शरीर के लिए जरुरी बताए गए। अब जैसे शरीर को स्वस्थ चलाने के लिए प्रोटीन, विटामिन, वसा और कार्बोहाइड्रेट जरुरी हैं वैसे ही हमारे शरीर की साफ-सफाई के लिए फाइबर या रेशा भी जरुरी है। हमारी थाली में रेशे की कमी के ही कारण आज मोटापे को ही गंभीर बीमारी भी मान लिया गया है। क्योंकि हम जो भी खाते हैं वो अंतत: शक्कर या उर्जा में ही बदलता है। शरीर को चलाने के लिए वही आवश्यक है।
खादर वली ने खोज करते हुए जाना कि गेहूं व चावल में शक्कर बनाने की क्षमता अति तेज है और शारीरिक कसरत कम हो जाने से शरीर का खून संचार से पहले ही गाढ़ा हो जाता है। जब वही जरूरत से ज्यादा गाढ़ा खून अपनी रगों से होता हुआ शरीर के विभिन्न भागों में जाता है तो वहां शक्कर के अंश छोड़ता, जमा करता जाता है। वही जमाव समय के साथ खर्चीलेजीवन को अस्तव्यस्त करने वाली भयंकर बीमारी बन जाते है। फायबर या रेशा युक्त छोटे अनाज खून में मिल कर शरीर यंत्रों में पड़े जमाव पर सकारात्मक असर करते हैं। जमाव को साफ करते जाते हैं।
डॉ. खादर वली और उनकी डाक्टर बेटी सरला ने तीन दिनों तक मिलट अनाज के अलग-अलग उपयोग-प्रयोग पर लंबी बातचीत की। सवाल सुने, जवाब दिए। इसके अलावा इंदौर से आयीं मेघना शुक्ला द्वारा बनाए स्वादिष्ट मिलट व्यंजनों का भोज भी कराया गया। कंगनी आटे से बने समोसे भी खाए गए। आज खाए जा रहे अनाज पर वैज्ञानिक टिप्पणी करते हुए मिलट पर पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान भी दिया। हमारी रसोई में जो भी बने उसमें बाजार की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। समझाया यह भी कि क्यों मोटे-छोटे अनाज कम-जल व भूमि-उर्वरता के कारण अपने पर्यावरण के लिए जरुरी हैं। कैसे कम दवाएं, कम अस्पताल खर्च से आर्थिकी सुधारी जा सकती है। और कैसे पारंपरिक, विविध पोषक अनाजों से स्वस्थ रहने में मदद मिलती है।
समाज है तो बाजार भी रहेगा ही। मगर अनाज की विविधता से ही समाज अपना आहार तय करे। “मिलट साल” में मिलटमेन को विश्व स्वास्थ्य में योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं दिया जा सकता? और हमारा आहार ही हमारी औषधि हो जाए।