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डरे हुए मीडिया को और डराना

विपक्षी पार्टियों

मीडिया को और ज्यादा डराए जाने के लिए यह छापे हैं। वर्ल्ड प्रेसफ्रीडम इंडेक्स में भारत 161 वें स्थान पर है। हर साल नीचे खिसकता जा रहा है। पिछले साल 150 पर था। उससे पिछले साल 142 पर। मतलब प्रेस की आजादीलगातार कम होती जा रही है। 180 देशों की लिस्ट है। अगर ऐसा ही रहा तोअगले साल बिल्कुल नीचे ही न आ जाए। मतलब जहां प्रेस की आजादी सबसे कम है।अगर ऐसा हुआ तो दुनिया की निगाहों में हमारा सम्मान बहुत गिर जाएगा।अमेरिका, युरोप, इंग्लैंड प्रेस की स्वतंत्रता को लोकतंत्र का सबसे बड़ापैमाना मानते हैं। कहते हैं प्रेस की आजादी नहीं तो लोकतंत्र नहीं!

जब सारा मीडिया आपके समर्थन में हो तब चंद कुछ जनता की आवाजें उठाने वालों काक्या मतलब? लेकिन है! जैसे ही बिहार से जातिगत जनगणना के आंकड़े आए उसकीअगली सुबह ही कुछ पत्रकारों, लेखकों के यहां छापे पड़ गए। उनके लैपटापमोबाइल जप्त कर लिए गए और किताबों की अलमारियां खंगाली गईं। शायद सबसे ज्यादा डर किताबों से ही लगता है कि ये कौन सी किताबें पढ़ते हैं।

बाम्बे हाईकोर्ट के जज ने टालस्टाय के मशहूर उपन्यास वार एंड पीस को आपत्तिजनक कहा ही था। साथ में यह भी सवाल किया था कि इसे घर में क्योंरखते हो? वह तो रूस के लेखक थे। हमारे मित्र देश के। अगर चीन के किसीलेखक की किताब घर में निकल आए तो फिर तो देशद्रोह का केस पक्का। चीन केराष्ट्रपति को झुला झुलाया जा सकता है। उनके घुसपैठ करने पर हमारेसैनिकों को शहीद करने पर कहा जा सकता है कि न कोई आया था और न कोई है!

अभी दीवाली आ रही है उसके लिए बड़ी तादाद में चीन से लड़ियां मंगाई जारही हैं, उस पर कोई आपत्ति नहीं हैं। लेकिन अगर चीन के विश्व विख्यातलेखक लू शून की लघु कहानियों की भी हिन्दी या अंग्रेजी में अनुवादित कोईकिताब मिल जाए तो फिर शायद कोर्ट की टिप्पणी की भी जरूरत नहीं पड़ेगीगोदी मीडिया ही फैसला सुना देगी।

पत्रकारों, लेखकों पर नया केस भी चीन के हवाले से ही बनाया गया है। गोदीमीडिया को सूत्र बता रहे हैं और वह सूत्रों के हवाले से कह रहा है कि यहप्रेस की स्वतंत्रता का मामला नहीं है। देश की अखंडता का है। बहुत हीगंभीर आरोप लगा रहा है। चीन के पक्ष में किसने प्रचार किया? पब्लिक फोरमपर चीन के प्रचार या समर्थन की कभी कोई बात किसी ने नहीं देखी। हो भीनहीं सकती। हर समझदार पत्रकार यह जानता है कि विदेश नीति के मामले मेंभारत सरकार का पक्ष ही देश का पक्ष होता है। और पत्रकार क्या विपक्ष भीमानता है। इसलिए कभी विदेश नीति पर संसद में भी चर्चा नहीं होती है।

हां, आजकल गोदी मीडिया का मामला अलग है। वह कुछ भी कर सकता है। पहले एकचैनल की एंकर ने चीन के मामले में हमारी बहादुर सेना को ही दोषी ठहरादिया। दरअसल वह घुसपैठ के मामले में मोदी सरकार को बचाना चाहती थी। तोउसने बोल दिया कि घुसपैठ रोकना सेना का काम है सरकार का नहीं। मतलबघुसपैठ हुई है तो दोषी सेना है। सरकार से क्या मतलब!

अब आजकल वह कनाडा के मामले में इस तरह बोल रहा है जैसे वहां कोई भारतीयरहता ही नहीं हो!  उसके हितों की सुरक्षा से इन्हें कोई मतलब नहीं है। वहांकी सेना की गिनती बता रहे हैं। जैसे यह जाकर उसे तबाह कर आएंगे। याद हैऐसे ही एक समय चीनी सैनिकों की हाइट बता रहे थे। कनाडा का मामला बहुतसेंसटिव है। हमारी विदेश नीति का सारा अनुभव लगा हुआ है। मामला केवलकनाडा तक सीमित नहीं है। अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश भी इनवाल्ब हो रहेहैं। और हमारा मीडिया इस तरह बोल रहा है जैसे देश में नफरत और विभाजनफैलाने के लिए बोलता है। देश की व्यापारिक राजधानी मुम्बई से हर दूसरे यातीसरे घर का लड़का या लड़की कनाडा में है। पढ़ रहा है या काम कर रहा है।इसी तरह देश के हर हिस्से से वहां पढ़ने के लिए लड़के लड़कियां गए हुए हैं।

मगर गोदी मीडिया को क्या? वह कह रहा है कि उसके पास तो परमाणु बम भीनहीं है!  इसकी हिंसक और अमानवीय मनोवृति देखिए। परमाणु बम का जिक्र करकेयह क्या कहना चाहता है? सरकार मामले को देख रही है। विपक्ष सरकार कासहयोग कर रहा है। मगर मीडिया युद्ध चाह रहा है। करीब बारह हजार किलोमीटरदूर के देश के साथ। उस देश से जहां 16 लाख से ज्यादा भारतीय हैं। और जोनाटो का सदस्य है। अब नाटो का मतलब क्या है यह तो उस मीडिया को नहींसमझाया जा सकता जिसका बड़ा हिस्सा युक्रेन में जाकर युद्ध देख आया है।नाटो मतलब अभी तक रूस से लड़ सकने की क्षमता। दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य संगठन।

खैर तो एक वह मीडिया है जिसे भारत की जनता से कोई मतलब नहीं। केवल सरकारका पक्ष रखना है। नफरत और विभाजन भरी स्टोरियां चलाना हैं। जनता की कोईमांग आवाज सरकार तक नहीं पहुंचाना है। बेरोजगारी जो आज सबसे बड़ा मुद्दाहै। महंगाई जिसने जनता की कमर तोड़ रखी है। सरकारी चिकित्सा जो खत्म होगई है। प्राइवेट में गरीब मरने भी नहीं जा सकता। मरने के बाद इतना बिलबताते हैं कि गरीब के परिवार वालों के शव लेना भी मुश्किल हो जाता है।सरकारी स्कूल खत्म कर दिए हैं। शिक्षा इतनी मंहगी कर दी है कि गरीब केबच्चे पढ़ ही नहीं सकते। मगर यह सारे मुद्दे मीडिया के लिए कोई महत्वनहीं रखते। उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा हिन्दू मुसलमान है।

लेकिन अब जैसे ही बिहार से जातिगत जनगणना के आंकड़े आए मीडिया, सरकार,भाजपा सब हिल गए। अब राजनीति राहुल के “ जितनी आबादी उतना हक “ पर जातीदिखी। सब अखबारों मीडिया को जाति के आंकड़े दिखना पड़े। पिछड़ा, अनुसूचितजाति, जनजाति को मिलाकर 85 प्रतिशत हो रहे हैं। मीडिया भाजपा ने इसमें भी कितने हिन्दू कितने मुसलमान बताने की कोशिश की। मगर यह आंकड़े तो सबकोमालूम थे। हर जनगणना में आते हैं। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन,बौद्ध एससी, एसटी सबकी गिनती मालूम है। नहीं मालूम थी तो केवल ओबीसी की।

राहुल ने यही कहा था कि मैं मालूम करके रहुंगा। और नीतीश तेजस्वी कीसरकार ने यह काम कर दिया। यह सवर्णों के खिलाफ नहीं है। किसी ने उनसांप्रदायिक ताकतों की तरह जैसा उन्होंने गुजरात दंगों में और बाद में हरजगह दंगाइयों को भड़काते हुए लालच देते हुए कहा कि मुसलमानों के ये जमीन-जायदाद तुम्हें मिल जाएगी नहीं कहा। कोई कह भी नहीं सकता। सामाजिक न्यायका मतलब कहीं दूसरी जगह अन्याय नहीं है। छीनना नहीं। भविष्य मेंरिसोर्सेज का न्यायपूर्ण बंटवारा है। ताकि देश का विकास इकतरफा न हो।

मगर जातिगत जनगणना के आंकड़े आते ही मोदी सरकार को लगा कि अब राजनीति कानरेटिव दूसरी तरफ न मुड़ जाए। तो उसने पत्रकारों पर एक बड़ा हमला बोलकरचीन का पैसा और उसके प्रचार की नई कहानी शुरू कर दी। मगर यह कितनी चलेगीकहना मुश्किल है।

पत्रकार उर्मिलेश, भाषा सिंह, अभिसार शर्मा, ओनिंद्धो चक्रवर्ती,प्रांजयगुहा ठाकुरता, सोहेल हाशमी, प्रबीर पुरकायस्थ, संजय राजौरा,कार्टुनिस्ट इरफान के यहां छापे डाले गए। यह सब जाने पहचाने नाम हैं।इनका सारा काम लोगों के सामने है। इनमें से किसी के लिए भी कोई यह नहींकह सकता कि इन्होंने देश हित से कभी समझौता किया है। चीन से पैसे लेने केआरोप तो हास्यास्पद है। सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लिखना अलग बात है।

यह काम तो इनमें से शायद सबने मनमोहन सिंह सरकार के समय भी किया था। औरज्यादा जोर से। अन्ना आंदोलन का समर्थन करके।

मीडिया बहुत हद तक डरा हुआ है। आज जो मोदी सरकार का समर्थन वह कर रहा हैउसमें अगर जरा सी कमी भी रह जाती है तो वह विरोध की तरह देखी जाती है। एकचैनल से दो एंकरों को इसी अपराध में निकलवा दिया कि किसी मुद्दे पर उतनासमर्थन नहीं किया जितना बाकी लोगों ने किया था। एक दूसरे चैनल के एंकर कोतो आन एयर ही याद दिला दिया गया कि जेल हो आए हो!

तो मीडिया को और ज्यादा डराए जाने के लिए यह छापे हैं। वर्ल्ड प्रेसफ्रीडम इंडेक्स में भारत 161 वें स्थान पर है। हर साल नीचे खिसकता जा रहाहै। पिछले साल 150 पर था। उससे पिछले साल 142 पर। मतलब प्रेस की आजादीलगातार कम होती जा रही है। 180 देशों की लिस्ट है। अगर ऐसा ही रहा तोअगले साल बिल्कुल नीचे ही न आ जाए। मतलब जहां प्रेस की आजादी सबसे कम है।अगर ऐसा हुआ तो दुनिया की निगाहों में हमारा सम्मान बहुत गिर जाएगा।अमेरिका, युरोप, इंग्लैंड प्रेस की स्वतंत्रता को लोकतंत्र का सबसे बड़ापैमाना मानते हैं। कहते हैं प्रेस की आजादी नहीं तो लोकतंत्र नहीं!

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By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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