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फ़िदा-हुसैन नहीं, न्याय-देवता की ज़रूरत

पूरे एक दशक अकांडतांडव में रत रहने वाले टीवी-सूत्रधारों और अख़बारी-क़लमकारों के परिस्थितिजन्य ताल-बदलू उपक्रम को उन का सच्चा हृदय परिवर्तन समझने वाले नासमझों को कोई समझाए कि सांसारिक लीलाएं इतनी बेलोच नहीं हुआ करती हैं कि आप उन पर ऐसे सरपट रपटने लगें।… जन्मजात अंधखोपड़ियों ने पूरे दस बरस कथन और लेखन के अक्षरविश्व में जैसा नग्न-धमाल मचाया, उसे ऐसे ही विस्मृत कर देना नादानी होगी।

दस साल से देश की छाती पर नरेंद्र भाई मोदी की नफ़रती-कार्यावली की मूंग हर रोज़ पूरे ज़ोरशोर से दल रहे मीडिया-अनुचरों में से कुछ के सुर 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजे आने के बाद से बदलने क्या शुरू हुए, मैं देख रहा हूं कि, बहुत-से जनोन्मुखी पुरोधा बड़ी अभिभूत-मुद्रा में थिरक रहे हैं। इन भावुक-मूर्खों को केंचुल-रूपांतर का उत्सव मनाते देख मैं तो भौचक हूं। पूरे एक दशक अकांडतांडव में रत रहने वाले टीवी-सूत्रधारों और अख़बारी-क़लमकारों के परिस्थितिजन्य ताल-बदलू उपक्रम को उन का सच्चा हृदय परिवर्तन समझने वाले नासमझों को कोई समझाए कि सांसारिक लीलाएं इतनी बेलोच नहीं हुआ करती हैं कि आप उन पर ऐसे सरपट रपटने लगें।

जन्मजात अंधखोपड़ियों ने पूरे दस बरस कथन और लेखन के अक्षरविश्व में जैसा नग्न-धमाल मचाया, उसे ऐसे ही विस्मृत कर देना नादानी होगी। यह समय गोस्वामियों, चौधरियों, सिन्हाओं, कश्यपों, देवगनों, चोपड़ाओं, सिन्हाओं, नरसिंहमनों, श्रीवास्तवों, अरूरों, रजतों, नविकाओं, वगै़रह-वगै़रह की करतूतों को भूलने का नहीं है। यह समय पुरियों, चंद्राओं, गुप्ताओं, पांडाओं, कोठारियों, ए-1, ए-2, वग़ैरह-वग़ैरह के अपकर्मों को क्षमादान की गंगधारा में तिरोहित करने का नहीं है। यह समय तो इन सभी के कुकर्मों को इतिहास की पाशाण शिला पर स्थायी तौर से उकेरने का है। आज जो अपनी भावप्रवणता पर काबू नहीं रखेंगे, वे गच्चा खाने के बाद कल अपनी मूढ़ता पर आंसू बहा रहे होंगे।

क्षमा धर्म है। क्षमा यज्ञ है। क्षमा वेद है। क्षमा शास्त्र है। क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है। क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है। क्षमा सत्यवादियों का सत्य है। क्षमा करना आत्म-प्रेम का कार्य है। क्षमा आल्हादकारी है। क्षमा बलमशक्तानाम् शक्तानाम् भूषणम् क्षमा। क्षमा वशीकृते लोके क्षमयाः किम् न सिद्ध्यति। क्षमा वीरस्य भूषणम। बचपन से हम अपने बुजु़र्गों से यह सब सुन रहे हैं। सुन रहे हैं और गुन रहे हैं। गुन रहे हैं और मान रहे हैं। मगर मैं आप को बताता हूं, और मेरी बात मानना-न-मानना आप के मन की बात है, कि इन तमाम सूक्तियों की रचना-अपकृति आज के युग में स्वयं ही क्षम्य है। क्षमा वीरों का आभूषण ज़रूर है, लेकिन जो आंख बंद कर अपने आभूषणों को कुपात्रों की झोली में डाल देते हैं, समाज उन्हें वीर नहीं, बेवकूफ़ मानता है।

इसलिए नाहक वीर-पन मत दिखाइए। फ़िज़ूल में दरियादिल बनने की दरकार नहीं है। यह जो मोहिनीअट्टम पर्दों और पन्नों पर ताजा-ताजा शुरू हुआ है, उसे देख कर बेसुध मत होइए। इन अदाओं पर गश खा कर गिरेंगे तो अगले एक-दो दशक हम-आप फिर नहीं उठ पाएंगे। यह परिवेश आप को बरगलाने के लिए रचा जा रहा है। अपने भोलेपन के कारण जिन के चेहरों पर आप को पश्चात्ताप की झलक दिखाई दे रही है, उन की आंखों में बैठे बहेलिए को ध्यान से देखिए। उन की मोहक पंक्तियों के बीच पसरे कांइयापन को पढ़ने की कोशिश करिए। इस असलियत की परतों का जायज़ा लेने के लिए किसी ख़ुर्दबीन की ज़रूरत नहीं है। ये परतें तो वैसे ही उधड़ी हुई हैं। जिन्हें नहीं दिखाई दे रहीं, उन का कोई क्या करे!

मौसम के हिसाब से कपड़े बदलने वालों पर रीझ रहे दयालुओं से मैं तो यही अनुनय-विनय कर सकता हूं कि मत्स्य-वेध की तैयारियों के वक़्त दिग्भ्रमित होने-करने के बजाय थोड़े दिन अपना दिल थोड़ा संभाल कर रखिए। फ़िदा-हुसैन बन कर बेली डांस करने के बजाय विक्रमादित्य बन कर न्याय सिंहासन पर बैठिए। मत भूलिए कि इन्हीं मरदूदों की वज़ह से आज भारतीय समाज इस कदर क्षत-विक्षत है। लोकतंत्र के यज्ञ को बाधित करने पर उतारू शासक-दल के मंसूबों को पूरा करने की होड़ में लगे मीडियासुरों को अगर सामाजिक दंड विधान के नियमों का पालन किए बिना रिहाई दे दी गई तो आने वाली पीढ़ियां आज की पीढ़ी को कैसे माफ़ करेंगी?

अभी तो रंग-बदलू दौर शुरू हुआ भर है। आने वाले दिनों में हम-आप अलग-अलग अनुचर-टोलियों की और भी नई-नई कलाबाज़ियां देखेंगे। नौकरशाही से ले कर शिक्षा और संस्कृति संस्थानों तक में टांग पसारे पड़े बहुत-से मूर्धन्य चेहरों की रंगत भी तेज़ी से बदल रही है। ये अज़ीमुश्शान शक़्लें अपने लिए नए ठौर तलाशनें घरों से निकल चुकी हैं और कई दहलीज़ों पर सीस-नवाऊ प्रतियोगिता में हिस्सा लेने लगी हैं। इस हवा के झोंके सियासत की सत्तासीन मुंडेरों पर धूनी रमाए बैठे महामनाओं की जटाएं भी बिखेरने लगे हैं। सो, अगली होली आते-आते कई सियासतदांओं के गालों पर हमें तरह-तरह के रंग पुतते दिखेंगे। एक ईंट खिसकने भर की देर होती है। फिर तो दीवार देखते-ही-देखते भरभरा कर गिर पड़ती है।

मगर असली मुद्दा तो यह है कि जब कहीं की ईंट और कहीं के रोड़े बिखरेंगे तो उन्हें कोई भानुमति या भानुमता अपना कुनबा जोड़ने के लिए बग़लगीर तो नहीं कर लेगा? मेरा मानना है कि किसी भी सूरमा के दलांतरण या पुनर्वापसी की इजाज़त देने वाले अपने प्रतिबद्ध सहयोगियों के ख़िलाफ़ बर्बर अनाचार के कुसूरवार होंगे। अगर वे पिछले दस-बारह बरस में भारत में हुए राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पापाचार की अनदेखी का झाड़ू-पोंछा लगाएंगे तो महारौरव नरक के भागी होंगे। अब सियासी संस्कृति की नई और ठोस इबारत लिखने की ज़रूरत है। आज के प्रतिपक्ष को यह तय करना होगा कि उस का आंगन ऐसा गया-बीता रवैया नहीं अपनाएगा कि कोई भी कहीं से भी या कहीं भी हो कर आए और आ कर कहीं भी बैठ जाए।

राजनीतिक आवागमन के नियमों की पुनर्रचना नहीं होगी तो राजनीति से लोगों का रहा-सहा भरोसा भी उठ जाएगा। यूं ही अभी कौन-सी राजनीति की बड़ी साख बाकी रह गई है? सो, अगर अब भी सियासी दलों के विधाताओं ने अपने स्वभाव नहीं बदले तो एकाध दशक बीतते-बीतते समूची राजनीति वितलगामी हो जाएगी। धनपशुओं और नौकरशाही की सांठगांठ से संचालित हो रहे शासन तंत्र में राजनीतिकों की भूमिका दिखावे तक को भी बची नहीं रहेगी। इस खतरे को ठीक से समझ लेने और उस का कारगर प्रतिकार करने की पहली ज़िम्मेदारी प्रतिपक्ष की है। इसलिए रंग-रूप बदलने की गरबा स्पर्धा के गोलघोरे में उसे अपना डांडिया निर्मोही निर्णायक बन कर थामे रहना है।

दया, करुणा और क्षमा की रसधार में भीग-भीग ‘बीती ताहि बिसार दे’ का जाप आरंभ कर चुके बुद्धि-विलासी मित्र मेरी इस अभ्यर्थना पर ध्यान देने की मेहरबानी करें कि नया इतिहास तभी रचा जा सकता है, जब हम पुरानी ग़लतियों से सीख ले कर आगे बढ़ें। ठीक है कि प्रतिशोध से समाधान नहीं निकला करते हैं, मगर प्रतिकार बिना भी राहें समतल नहीं बनतीं। इतनी ऊबड़खाबड़ राहों पर तो जनतंत्र किसी भी दिन दम तोड़ देगा। इसलिए कंटक तो बीनने ही पड़ेंगे। उन्हें किनारे किए बिना कैसे कुछ होगा? मेरी मानें तो हुनरमंदों की कटिका-करवट की बलैंया लेना फ़ौरन बंद कीजिए। वरना आप की एक लमहे की कमज़ोरी से आने वाली कई सदियां सज़ायाफ़्ता हो जाएंगी। तब आप के बाल-बच्चों को आप की कोताहियों पर, पता नहीं कब तक, सिर नीचा किए घूमते रहना पड़ेगा। सो, ख़ुद पर नहीं तो उन पर रहम खाइए। वरना मैं आप पर तरस खाऊंगा।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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