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मनःस्थिति और नाट्यमंचन का अंतर्विरोध

नरेंद्र भाई, आप की अधीरता, आप की व्याकुलता और आप की व्यग्रता आप के सोचने में ही नहीं, चलने, बोलने, करने में भी अब बहुत दूर से और एकदम नंगी आंखों से लोगों को दिखाई देने लगी है। ये लक्षण अच्छे नहीं हैं। जिंदगी में इतना विरोधाभास घातक होता है। अगर व्यक्तित्व और सोच में सामंजस्य गड़बड़ा जाए, अगर शख़्सियत और तफ़क्कुर सतत बनती हुई इकाई की प्रक्रिया से दूर जाने लगें तो समझ लीजिए कि अब स्वयं प्रस्थान में ही भलाई है। आप समझें तो ठीक, न समझें तो ठीक। आप की महिमा, आप जानें!

हमारे धर्मशास्त्रों में मनुष्य की अधूरी इच्छाओं की पीड़ा का गहरा अध्ययन है। इस पीड़ा से मुक्त होने के लिए कल्पतरु नाम के वृक्ष का ज़िक्र शास्त्रों में आता है, जिस के नीचे बैठ कर, जो इच्छा मन में आती है, तत्काल पूरी हो जाती है। मतलब एक विचार उठा और उठते ही विराम को प्राप्त हो गया। लेकिन धर्मशास्त्रों के बेचारे रचयिताओं को क्या मालूम था कि कलियुग में एक ऐसा भी दौर आएगा कि उठने वाली इच्छाओं को कोई कल्पतरु पूरी कर भी देगा तो भी वे विराम को प्राप्त नहीं होंगी। इच्छाएं रह-रह कर अपना सिर उठाती रहेंगी। इच्छाओं की शाखाओं और उप-शाखाओं की खरपतवारी बढ़ोतरी रुकने का कभी नाम ही नहीं लेगी।

कोई 12 बरस पहले, हमारे आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी के मन में गुजरात से निकल कर अखिल-भारत पर राज करने की इच्छा जगी। यह इच्छा इतनी बलवती होती गई कि 2013 में जून का महीना आते-आते उस ने अपने सैलाब के थपेड़ों में ‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः’ को भी बहा कर किनारे पर फैंक दिया। पृथ्वी पर कोई बड़ा काम करने के उद्देश्य से स्वयं परमात्मा द्वारा भेजे गए नरेंद्र भाई अपने सियासी ख़ालिक़ को ठिकाने लगाने के एक बरस के भीतर रायसीना पहाड़ी पर अवतरित हो गए। मायावी तिलिस्म से पटे पड़े उन दिनों के आसमान को देख-देख झूम रहे और ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ गा रहे मतदाताओं के कल्पतरु ने नरेंद्र भाई की इच्छा पूरी कर दी।

मगर जैसा मैं ने कहा कि इच्छा पूरी हो जाने से इच्छाओं का विराम हो जाए, ऐसा कहां होता है? वही हुआ। किसी की ख़्वाहिशें अगर यूं ही वक़फ़ा होने लगें तो वह सूफ़ी ही न हो जाए? फ़क़ीरों की तरह झोला उठा कर चल देने की ज़ुमलेबाज़ी करना और बात है, लेकिन मन को इतना बैरागी बना लेना क्या कोई आसान काम है? सो, प्रधानमंत्री बनने के पांच साल बीतते-बीतते नरेंद्र भाई ‘ये दिल मांगे मोर’ भाव में पूरी तरह सराबोर हो गए। उन्होंने ‘अब की बार, तीन सौ पार’ का नारा बुलंद किया और तमाम उपक्रमों का सहारा ले कर लोकसभा की तीन सौ से भी तीन ज़्यादा सीटें ले कर ही माने। इस के बाद तो लोकतंत्र की डाली पर पड़ा उन के एकतंत्र का झूला और ज़ोर-ज़ोर से पेंग भरने लगा।

नरेंद्र भाई की इच्छाओं का फलक व्यापक होता-होता वंदेभारत रेलों को ख़ुद झंडी दिखाने से ले कर छोटी-मोटी यातायात सुरंगों का ख़ुद उद्घाटन करने तक फैलता गया। कैमरे और अपने बीच में आने वाले हर-एक जीवंत-निर्जीव व्यवधान को हटाने का काम वे अपने हाथ से ख़ुद ही करने लगे। छाती ठोक-ठोक कर वे स्वयं ही ‘एक अकेला, सब पर भारी’ की दावेदारी संसद के भीतर भी करने लगे। शहरों के नाम बदलते-बदलते उन्होंने अपनी ख़्वाहिशों के सफ़र का विस्तार सड़कों और इमारतों को नए नाम देने तक कर डाला। भारत की बुनियादी समस्याओं की जड़ें नरेंद्र भाई की छुअन को तरसती रहीं और वे पत्तों को धो-पोंछ कर चमकाने में लगे रहे।

नींव नीचे से ऊपर की तरफ़ बनती है। पुताई ऊपर से नीचे की तरफ़ होती है। नरेंद्र भाई ने दस बरस में अपने को एक ठोस नींव-निर्माता के बजाय कुशल कलईगर साबित किया। उन्हें नीचे से दीवार उठाने की फ़िक्र कभी रही ही नहीं। हर पुरानी दीवार पर नया रंग चढ़ा देने की उन की ख़ब्त ने भारतीय समाज, संस्कृति, कला, साहित्य, संवाद, पत्रकारिता और सियासत को बेतरह भदरंग कर दिया। इस चक्कर में हमारी देशज सभ्यता के बहुत-से आधारभूत मूल्य नरेंद्र भाई की झौंक के पतनाले में तिरोहित हो गए, संवैधानिक संस्थाओं की शक़्लें बदशक़्ल हो गईं, धर्म-क्षेत्र से ले कर विज्ञान-क्षेत्र तक सारा कुछ गड्मड्ड हो गया और संसदीय मंच भी सिकुड कर नरेंद्र भाई की कांख में जा दबा। वे इसे लोकतंत्र का अमृतकाल कह कर प्रचारित करने में लगे रहे।

हुक़ूमत में दस साल पूरे होते-होते नरेंद्र भाई की ख़्वाहिशें और बेलगाम हो गईं। अब वे तीन सौ के बजाय ‘चार सौ पार’ के उत्तुंग शिखर पर जा विराजे। उन की देहभाषा पहले से और भी ज़्यादा लंकेशी होने लगी। ज़मीन पर तेज़ी से बदल रहे मौसम का उन्हें भान ही नहीं था। वे हवाओं में सनसनी घोलते रहने में मशगूल थे और इधर उन की राह भीतर-ही-भीतर पोली हो गई थी। वे ख़ुद को हरदिल अजीज़ मान कर झूम रहे थे और उधर उन की मैंमैंवाद से उकताहट का माहौल ऐसा हो गया था कि सगे कुटुंबी तक मन-ही-मन किनाराकशी कर चुके थे। अपने ‘मन की बात’ बताते-बताते नरेंद्र भाई ख़ुद में ही इतना खो गए थे कि देश के मन की बात पढ़ने का उन का माद्दा ही जाता रहा।

सो, प्रपंचों के अजग-ग़ज़ब के बावजूद आए चुनाव नतीजों ने नरेंद्र भाई की रीढ़ में सिहरन दौड़ा दी है। अपने बुरी तरह लड़खड़ाने का अहसास तो उन्हें भीतर तक हो गया है, मगर आदत की मजबूरी ने उन्हें अवसन्न-भाव से भरने के बजाय ढीठपन से सराबोर कर दिया है। उन्होंने अपनी भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल को ठेंगा दिखाया और सहयोगी दलों की बैसाखी छीन कर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर तीसरी बार चढ़ गए। सरकार बनाने लायक स्पष्ट बहुमत भाजपा को नहीं मिल पाने के लिए उन्होंने ख़ुद के अपराध-बोध को यह कह कर धता बता दी कि एनडीए की सरकार लगातार तीसरी बार बनी है। अब तक एनडीए के सहयोगी दलों को अपने पैर की जूती समझने वाले नरेंद्र भाई ने पांसा बदला और ‘तेरी जूती, मेरा सिर’ की आरंभिक उलटबांसी दिखा कर रायसीना पर्वत पर फिर काबिज़ हो गए।

अब वे बुझे-बुझे तो नज़र आते हैं, मगर चेहरे को इस तरह ताने घूम रहे हैं, गोया पहले की तरह ही पराक्रमी हैं। पूरी तरह दरक चुकी अपनी जनप्रियता का अंदाज़ उन्हें हो तो अच्छी तरह गया है, मगर वे स्वयं को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की पदवी से अब भी नवाज़े बैठे हैं। नरेंद्र भाई राजनीतिक, सामाजिक, वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर बुरी तरह अस्थिर हो गए हैं, मगर ऊपर से लौह-आवरण ओढ़े विचर रहे हैं। मनःस्थिति और नाट्यमंचन के बीच का इतना अंतर्विरोध कोई कितना लंबा झेल सकता है? ठीक है कि नरेंद्र भाई अतिमानव बनने के हर मौक़े की तलाश में रहते हैं और अपनी अतिमानवी क्षमताओं पर उन्हें बेहद भरोसा है, लेकिन मुझे चिंता है कि इस बार कहीं सब-कुछ भरभरा कर ढह न जाए!

इसलिए मैं नरेंद्र भाई से कहना चाहता हूं कि इच्छाएं तो अनंत हैं। उन्हें पूरा करने की आपाधापी में असुरक्षित तो आप पहले दिन से महसूस करते रहे हैं, लेकिन अब यह असुरक्षा-भाव चरम पर पहुंच गया है। आप की अधीरता, आप की व्याकुलता और आप की व्यग्रता आप के सोचने में ही नहीं, चलने, बोलने, करने में भी अब बहुत दूर से और एकदम नंगी आंखों से लोगों को दिखाई देने लगी है। ये लक्षण अच्छे नहीं हैं। जिंदगी में इतना विरोधाभास घातक होता है। अगर व्यक्तित्व और सोच में सामंजस्य गड़बड़ा जाए, अगर शख़्सियत और तफ़क्कुर सतत बनती हुई इकाई की प्रक्रिया से दूर जाने लगें तो समझ लीजिए कि अब स्वयं प्रस्थान में ही भलाई है। आप समझें तो ठीक, न समझें तो ठीक। आप की महिमा, आप जानें!

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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