राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

नमक और चीनी में प्लास्टिक

भारत में बढ़ते हुए कैंसर रोग के मरीज़ों, दिल के रोग के मरीज़, मोटापे और अन्य बीमारियों का कारण भी कहीं रोज़मर्रा खाने वाले नमक और चीनी में मौजूद ये प्लास्टिक के कण तो नहीं? यदि ऐसा है तो यह एक गंभीर मामला  है। घरेलू नमक और चीनी में पाये जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक के कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें आप अपनी आँख से देख भी नहीं सकते।

पिछले सप्ताह एक एनजीओ द्वारा किए गए शोध से पता चला कि देश में अधिकतर नमक और चीनी निर्माता हमें प्लास्टिक के छोटे-छोटे कण खिला रहे हैं। ‘टॉक्सिक्स लिंक’ नाम की एक एनजीओ के पर्यावरण अनुसंधान विभाग द्वारा किए गए एक शोध के बाद यह दावा किया। जबसे यह खबर उजागर हुई तो उपभोक्ताओं के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। भारत में बढ़ते हुए कैंसर रोग के मरीज़ों, दिल के रोग के मरीज़, मोटापे और अन्य बीमारियों का कारण भी कहीं रोज़मर्रा खाने वाले नमक और चीनी में मौजूद ये प्लास्टिक के कण तो नहीं? यदि ऐसा है तो यह एक गंभीर मामला  है।

घरेलू नमक और चीनी में पाये जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक के कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें आप अपनी आँख से देख भी नहीं सकते। चिंता की बात यह है कि प्लास्टिक के इतने सूक्ष्म कण आपके शरीर में कई सालों तक रह सकते हैं। इतने वर्ष तक यदि ऐसे कण आपके शरीर में रह जाएँगे तो इनका आपकी सेहत पर दुष्प्रभाव तो पड़ेगा ही। अब चूँकि यह शोध सामने आया है तो इसे गंभीरता से लेते हुए इसकी विस्तृत जाँच भी होनी चाहिए और साथ ही दोषियों के ख़िलाफ़ उचित क़ानूनी कार्यवाही भी की जानी चाहिए।

आज के दौर में हम जितना भी सादा भोजन करें हम किसी न किसी मात्रा में नमक और चीनी तो लेते ही होंगे। यदि इन ज़रूरी तत्वों के सेवन से हमें कैंसर और दिल के रोग होने लग जाएँ तो इंसान कहाँ जाए ? यदि मिलावटी मसालों की बात होती है तो हम अपनी दादी-नानी के घरेलू नुस्ख़े आज़मा कर रोज़मर्रा के मसालों को घर में ही कूट-पीस सकते हैं। यदि दूषित पानी और कीटनाशक से उगी सब्ज़ियों और फलों की शिकायत मिले तो हम जैविक खेती की मदद से शुद्ध सब्ज़ियों और फलों का सेवन कर लेते हैं। परंतु यदि हर घर में इस्तेमाल होने वाले नमक और चीनी में ही इस क़दर मिलावट होने लगे तो आपक्या करेंगे ? लालच इंसान को किस हद तक ले जाता है कि मुनाफ़े के चक्कर में कुछ चुनिंदा  उद्योगपति आम जनता को ज़हर परोस  रहे हैं।

‘माइक्रोप्लास्टिक्स इन सॉल्ट एंड शुगर’ नाम की इस स्टडी में ‘टॉक्सिक्स लिंक’ ने टेबल सॉल्ट, रॉक सॉल्ट, समुद्री नमक और स्थानीय कच्चे नमक सहित 10 प्रकार के नमक और ऑनलाइन तथा स्थानीय बाजारों से खरीदी गई पांच प्रकार की चीनी का टेस्ट करने के बाद इस स्टडी को पेश किया। अध्ययन में यह चौकने वाला सच सामने आया कि नमक और चीनी के सभी नमूनों में अलग-अलग तरह के माइक्रोप्लास्टिक्स शामिल थे। इनमें फाइबर, पेलेट्स, फिल्म्स और फ्रैगमेंट्स पाये गये।

शोध के अनुसार इन माइक्रोप्लास्टिक्स का आकार 0.1 मिमी से 5 मिमी के बीच पाया गया। सबसे अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स की मात्रा आयोडीन युक्त नमक में पाई गई, जो मल्टीकलर के पतले फाइबर और फिल्म्स के रूप में थे। जाँच रिपोर्ट के अनुसार, चीनी के नमूनों में, माइक्रोप्लास्टिक्स की मात्रा 11.85 से 68.25 टुकड़े प्रति किलोग्राम तक पाई गई, जिसमें सबसे अधिक मात्रा गैर-ऑर्गेनिक चीनी में पाई गई। वहीं ग़ौरतलब है कि नमक के नमूनों में प्रति किलोग्राम माइक्रोप्लास्टिक्स की मात्रा 6.71 से 89.15 टुकड़े तक पाई गई। आयोडीन वाले नमक में माइक्रोप्लास्टिक्स की सबसे अधिक मात्रा (89.15 टुकड़े प्रति किलोग्राम) और ऑर्गेनिक रॉक सॉल्ट में सबसे कम (6.70 टुकड़े प्रति किलोग्राम) पाई गई।

उल्लेखनीय है कि इस विषय पर किए गए पिछले शोधों में पाया गया है कि औसत भारतीय हर दिन 10.98 ग्राम नमक और लगभग 10 चम्मच चीनी का सेवन करता है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की तय सीमा से काफी अधिक है। ऐसे में यदि हमारे शरीर में माइक्रोप्लास्टिक भी प्रवेश कर रहा है तो यह हमें कितना नुक़सान पहुँचाएँगे इसका अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। माइक्रोप्लास्टिक के कण मानव शरीर में मिलावटी भोजन के अलावा हवा और पानी के ज़रिये भी प्रवेश कर सकते हैं। एक अन्य शोध में यह भी पता चला कि माइक्रोप्लास्टिक मानव शरीर में फेंफड़े, हृदय जैसे अन्य महत्वपूर्ण अंगों में बड़ी आसानी से प्रवेश कर लेते हैं। इतना ही नहीं एक शोध में यह भी पाया गया कि नवजात व अजन्में बच्चों में भी माइक्रोप्लास्टिक प्रवेश कर चुके हैं।

चिंता का विषय यह है कि भारत में निर्मित चीनी और नमक में इतनी मात्रा में मिलने वाले ऐसे तत्व क्यों पाये जा रहे हैं? क्या ऐसी स्टडी पहली बार हुई है? इससे पहले भी कई तरह के शोध मिलावटी उत्पादों को लेकर हुए हैं। क्या उन पर उचित कार्यवाही की गई? क्या सरकार ने ऐसे कड़े नियम बनाए कि ऐसी गलती करने पर निर्माताओं के ख़िलाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्यवाही की जाए? वैज्ञानिक शोध का मतलब स्पष्ट रूप से यही होता है कि जिस भी शोध में कुछ भी हानिकारक पता चले, उसे जनता के सामने पेश किया जाए। परंतु क्या ऐसे शोध को केवल जनता के सामने लाने से ही समस्या का हल निकल जाएगा? यदि उपभोक्ता जागरूक हो जाए और देश के सरकारी विभाग इस बात को सुनिश्चित कर लें कि किसी भी हाल में जनता को मिलावटी उत्पाद नहीं बेचे जा सकते, तो शायद स्थिति कुछ बेहतर हो। परंतु हमारे देश में जहां हर काम भ्रष्टाचार के ‘पेपर वेट’ के सहारे होता है वहाँ कब, क्या और कितना होगा यह बताना मुश्किल है ?

फ़िलहाल हर उपभोक्ता को जागरूक होना ज़रूरी है। इसके साथ ही देश में ‘टॉक्सिक्स लिंक’ या अन्य सचेत एनजीओ का होना भी ज़रूरी है जो जनहित में ऐसे शोध जनता के सामने लाते हैं। आनेवाले समय में देखना यह होगा कि देश भर में काम कर रही ऐसी तमाम एनजीओ के शोध को सरकार कितनी गंभीरता से लेती है और दोषियों के ख़िलाफ़ क्या क़ानूनी कार्यवाही की जाती है। तब तक के लिए हमें सचेत रहना चाहिए और जहां तक संभव हो मिलावटी उत्पादों से बचना चाहिए।

Tags :
Published
Categorized as Columnist

By रजनीश कपूर

दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *