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ऐसे तो खेलों में नहीं उठेगा भारत

हमारे यहां खिलाड़ी अपनी जिद से उभरते हैं। जैसाकि अभिनव बिंद्रा ने कहा, उनकी कामयाबी में समाज या सरकारी व्यवस्था का कोई रोल नहीं होता। जब प्रतिभाएं उभर जाती हैं, तो कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप आती है। सरकारी मदद भी मिलती है। यह आस भी जगाई जाती है कि अगर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीता, तो उन्हें बतौर इनाम बड़े आर्थिक लाभ मिलेंगे। लेकिन यह सब उभर चुकने के बाद की बात है। सांप-सीढ़ी के खेल की तरह एक बार 48वें स्थान पर चढ़ने के बाद फिर गिर कर 71वें नंबर पर पहुंच जाना भारत का नियति बनी रहेगी। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से एलान किया कि भारत 2036 के ओलिंपिक खेलों कि मेजबानी के लिए तैयार है। इसे हासिल करने की वह पूरी कोशिश करेगा।  अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति (आईओसी) में भारत की प्रतिनिधि नीता अंबानी ने 29वें ओलिंपिक खेलों के दौरान पेरिस में भारत की इस महत्त्वाकांक्षा का इज़हार किया था।

अब कहा गया है कि आईओसी के प्रमुख थॉमस बैक भारत के प्रयास से सहमत हैं।  गौरतलब है कि हाल में अंबानी परिवार के बहुचर्चित विवाह समारोह में थॉमस बैक भी अतिथियों में शामिल थे। चूंकि ओलिंपिक मेजबानी के स्थल के आवंटन का खेल से कोई सीधा संबंध नहीं है- बल्कि यह पूरी तरह से रियल एस्टेट और वित्तीय कारोबार से संबंधित होता है, जिसमें अंडरहैंड डीलिंग के आरोप लगते रहे हैं, इसलिए यह मुद्दा हमारे इस आलेख का विषय नहीं है। लेकिन यह तर्क भी दिया जाता है कि ऐसे आयोजनों से खेल की संस्कृति बनाने एवं खेल के विकास में मदद मिलती है, इसीलिए हमने बात इस प्रकरण से शुरू की।

इसीलिए इसके पहले कि इस आलेख के विषय की ओर बढ़ें, यह याद कर लेना उचित होगा कि 1982 में एशियाई खेलों और 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन भारत ने किया था। उसके बाद खेल जगत में भारत ने कितनी प्रगति की, यह हम सबके सामने है।

उन आयोजनों के बावजूद भारत खेल जगत आगे इसलिए नहीं बढ़ा, क्योंकि खेलों का संबंध बेशक इन्फ्रास्ट्रक्चर से होता है, लेकिन यह इसका एक छोटा हिस्सा है। खेलों का संबंध उससे कहीं ज्यादा देश की स्वास्थ्य व्यवस्था, जीवन स्तर और सार्वजनिक नीतियों से होता है।

वैसे 2036 के ओलिंपिक खेलों की मेजबानी अगर अहमदाबाद को मिल भी जाती है, तो खेल संबंधी नई सुविधाएं सिर्फ उसी शहर को उपलब्ध होंगी। उसका अन्य राज्यों को क्या लाभ होगा? इसलिए खेल जगत में भारत की स्थिति या प्रगति को ओलिंपिक या अन्य बड़े आयोजनों से अलग करके देखने की जरूरत है।

पेरिस में 26 जुलाई से 11 अगस्त तक हुए ओलिंपिक खेलों में भारत को सिर्फ छह पदक (एक रजत और पांच कांस्य) मिले। इनके साथ भारत पदक तालिका में 71वें नंबर पर रहा। जबकि यह 2024 का ओलिंपिक था और इसमें सफलता के लिए आठ साल पहले से भारत ने ऊंचे लक्ष्य तय किए थे। उस लक्ष्य को पाने के लिए बड़ी योजनाएं बनाई थीं। जबकि हासिल यह रहा कि तीन साल पहले हुए टोक्यो ओलिंपिक की तुलना में भी भारत पिछड़ गया।

  • टोक्यो ओलिंपिक्स में भारत ने एक स्वर्ण पदक सहित सात पदक जीते थे। यह भारत का सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन था।
  • टोक्यो ओलिंपिक्स की पदक तालिका में भारत 48वें नंबर पर रहा था।

यह सामान्य अपेक्षा होती है कि हर अगले मौके पर पिछले आयोजन की तुलना में प्रदर्शन बेहतर हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

दो और खास पहलू हैं, जिन्हें अवश्य ध्यान में रखना चाहिएः

  • 2016 में प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर नीति आयोग ने ओलिंपिक्स में प्रगति के लिए एक टास्क फोर्स बनाया था। इस कार्य दल ने ओलिंपिक में पदकों की संख्या बढ़ाने की विस्तृत योजना बनाई थी। आयोग ने 2024 के ओलिंपिक खेलों में 50 मेडल जीतने का लक्ष्य तय किया। (NITI Aayog targets 50 medals for India in 2024 Olympics। Sport-others News – The Indian Express)
  • इस लक्ष्य का एलान सरकार ने संसद में भी किया था।
  • लगभग उसी समय केंद्र ने 2020 के टोक्यो और 2024 के पेरिस ओलिंपिक खेलों में भारत के पदक बढ़ाने के मकसद से टारगेट ओलिंपिक पॉडियम स्कीम (टॉप्स) शुरू की (💬1 – Target Olympic Podium Scheme (TOPS) – ClearIAS)।
  • टोक्यो में जब भारत ने सात मेडल जीते, तो सत्ता पक्ष ने इस प्रगति का श्रेय टॉप्स को दिया। मगर 2024 में जब बात उलटी दिशा में चली गई, तब इस पर चुप्पी साध ली गई है।
  • पेरिस ओलिंपिक्स से ठीक पहले भारत में इस पर काफी चर्चा थी कि इस बार भारत को कितने पदक मिलेंगे। इस चर्चा में ऊंची उम्मीदें जोड़ी गई थीं। इस बारे में भारतीय ओलिंपिक संघ की अध्यक्ष पीटी उषा से पूछा गया, तो उन्होंने कहा था- ‘हमारी अपेक्षा यह है कि हम सात से ज्यादा मेडल जीतेंगे।।।। मुझे पूरा यकीन है कि हमारे पदकों की संख्या दो अंकों में होगी।’

चूंकि अपने देश में जवाबदेही तय करने और कही गई बातों का हिसाब रखने की परंपरा नहीं है, तो जाहिर है कि पेरिस ओलिंपिक खेलों के बाद ये सारी बातें भुला दी गई हैँ। नतीजा है कि अधिकारी भारतीय प्रदर्शन पर संतोष जताते देखे गए हैं। जबकि पूछा यह जाना चाहिए कि नीति आयोग के लक्ष्य, टॉप्स के असर, और पीटी उषा की अपेक्षाओं का क्या हुआ? वे अपेक्षाएं या लक्ष्य क्यों पूरे नहीं हुए? क्या उन लक्ष्यों और योजनाओं के पीछे सचमुच कोई तैयारी थी, अथवा आज की राजनीतिक संस्कृति के तहत वे भी “जुमला” भर थे?

अभिनव बिंद्रा वे पहले शख्स हैं, जिन्होंने भारत के लिए व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। 2008 के बीजिंग ओलिंपिक खेलों में ये उपलब्धि हासिल करने के बाद उनका एक कथन बहुचर्चित हुआ था। उन्होंने कहा था कि भारत में खिलाड़ी सिस्टम के कारण नहीं, बल्कि सिस्टम के बावजूद सफल होते हैं। यानी तो सिस्टम खिलाड़ियों की राह में रोड़े अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ता- इसके बावजूद जो सर्वोत्तम प्रतिभाएं हैं, वो चमक ही जाती हैं।

बिंद्रा ने पेरिस ओलिंपिक के दौरान एक इंटरव्यू में यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की कि पैसा खर्च करना मेडल जीतने की गारंटी नहीं है। बिंद्रा ने कहा कि पैसा जरूरी है, यह मेडल जीतने में मददगार होता है, लेकिन सिर्फ इससे ही मेडल नहीं मिल सकते (‘Money is not going to get you medals। It’s not a vending machine’: Abhinav Bindra | Sport-others News – The Indian Express)।

भारत सरकार के सारे लक्ष्य और योजनाएं अधिक संसाधन मुहैया करने की सोच पर आधारित हैं। इस सोच का एक हिस्सा यह है कि कॉरपोरेट्स को इस योजना में सहभागी बना कर भारत को खेल की महाशक्ति बनाया जा सकता है। उभरती प्रतिभाओं को पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाएं, तो वे ओलिंपिक जैसे मंचों पर चमकेंगी और देश के लिए पदक जीतेंगी। फिर पदक विजेताओं को करोड़ों रुपये इनाम देकर बाकी खिलाड़ियों को वैसी कामयाबी पाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

केंद्र ने अपनी योजना का नाम टॉप्स रखा, यह उसकी इसी सोच का संकेत है। यानी टॉप पर खेल का ढांचा मजबूत कर उभरे खिलाड़ियों की बदौलत खेल जगत में भारत को चमकाया जा सकता है।

मगर ये सोच भ्रामक है। दुनिया के किसी देश ने इस रास्ते से सफलता हासिल नहीं की है। पेरिस ओलिंपिक में टॉप 11 देशों पर गौर करें, तो उनमें कुछ समानताएं नजर आएंगी। हमने यहां चर्चा के लिए 11 देशों को इसलिए लिया है, क्योंकि इस बार इतने ही देशों के स्वर्ण पदकों की संख्या दो अंकों में रही। 12वें नंबर पर कनाडा रहा, जिसे नौ स्वर्ण पदक मिले। वैसे कनाडा भी उन समानताओं वाले देशों में आसानी से शुमार हो सकता है।

वैसे इन देशों में से हम चीन पर बाद में बात करेंगे, क्योंकि उसकी राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का स्वरूप अलग है।

बाकी दस देशों में समानता यह हैं कि ये देश पूंजीवादी लोकतंत्र हैं, सभी विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं, सबने प्राथमिक शिक्षा को सार्वजनिक क्षेत्र में रखा हुआ है, चिकित्सा एवं प्रतिरोधक (preventive) स्वास्थ्य की कसौटियों पर उन्होंने ऊंचा दर्जा हासिल किया है, और अमेरिका के अलावा बाकी सभी देशों में यूनिवर्सल हेल्थ केयर का सिस्टम कमोबेस अमल में है।

चीन समाजवादी अर्थव्यवस्था है। वहां सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में सर्वोपरि भूमिका है। साथ ही अर्थव्यवस्था नियोजन के आधार पर काम करती है। अर्थव्यवस्था एवं राज्य-व्यवस्था के अपने इस विशिष्ट संगठन के साथ चीन ने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व किस्म की कामयाबियां हासिल की हैं।

खेलों में प्रगति का स्वास्थ्य और स्कूलों के विस्तृत ढांचे से सीधा संबंध है। स्वस्थ किशोर/युवा ही खेलों की प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ सकते हैँ। प्रतिभाओं की पहचान का पहला स्तर स्कूल होते हैं। वैसे सिर्फ ये दो शर्तें काफी नहीं हैं। इनके साथ स्वास्थ्य देखभाल की मुफ्त सुविधा एवं सामाजिक सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम भी उभरती प्रतिभाओं में आत्म-विश्वास भरने के लिए जरूरी होता है। खेलों में जख्मी होना लाजिमी है। कई बार चोट नौजवान को विकलांग भी बना देती है। सवाल है कि उन स्थितियों में खिलाड़ी के इलाज का खर्च या विकलांग होने की स्थिति में उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी कौन उठाएगा?

पूंजीवादी देशों ने इसके लिए बीमा आधारित सिस्टम अपनाया है। बीमा के प्रीमियम स्पॉन्सर कंपनियां चुकाती हैं। ये कंपनियां स्कूल स्तर की प्रतियोगिताओं से जुड़ती हैं और वहां से खिलाड़ियों की पहचान कर उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। इसके बदले सफल खिलाड़ियों को वे अपने विज्ञापन का मॉडल बनाती हैं।

समाजवादी अर्थव्यवस्था में मौजूद पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम में मुफ्त या बेहद सस्ते इलाज की व्यवस्था होती है। चीन ने मिश्रित हेल्थ केयर की व्यवस्था अपना रखी है। इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था और बीमा आधारित प्राइवेट हेल्थ केयर दोनों के लिए जगह है। लेकिन खेल का नियोजन पब्लिक सेक्टर के हाथ में है। वैसे उभरते खिलाड़ियों की स्पॉन्सरशिप प्राइवेट कंपनियां भी करती हैं और फिर वे सारा खर्च उठाती हैं।

अब प्रश्न है कि इन दोनों मॉडल के बरक्स भारत में क्या सूरत है? जाहिर है, हमने (कम से कम 1991 के बाद से) प्राइवेट सेक्टर आधारित ढांचे को अपना रखा है। लेकिन चूंकि अपने यहां रोग प्रतिरक्षण एवं चिकित्सा तथा पोषण की यूनिवर्सल व्यवस्था पर कभी ध्यान नहीं दिया गया, इसलिए हमारी युवा आबादी की सेहत का स्तर कमजोर है। साथ ही स्कूलों का वैसा ढांचा भी आज तक नहीं बना, जहां नौजवान चिंता मुक्त होकर खेल स्पर्धाओं में हिस्सा ले सकें।

हमारे यहां खिलाड़ी अपनी जिद से उभरते हैं। जैसाकि अभिनव बिंद्रा ने कहा, उनकी कामयाबी में समाज या सरकारी व्यवस्था का कोई रोल नहीं होता। जब प्रतिभाएं उभर जाती हैं, तो कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप आती है। सरकारी मदद भी मिलती है। यह आस भी जगाई जाती है कि अगर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीता, तो उन्हें बतौर इनाम बड़े आर्थिक लाभ मिलेंगे। लेकिन यह सब उभर चुकने के बाद की बात है।

मार्के की बात यह है कि भारत को अगर टॉप पर पहुंचना है, तो उसे शुरुआत जमीन से करनी होगी। लेकिन इसकी जरूरत नीति आयोग की कार्य योजना या टॉप्स जैसी योजनाओं में कहीं नहीं झलकती।

वैसे इस संदर्भ में इस तथ्य पर भी जरूर ध्यान दे लेना चाहिए कि अमेरिका जिस कॉरपोरेट आधारित ढांचे के आधार पर नंबर एक या दो की ओलिंपिक टीम बना रहा है, उसमें अब नई समस्याएं पैदा हो रही हैं। उत्पादन की अर्थव्यवस्था से जुड़े कॉरपोरेट्स भी लाभ की भावना से प्रेरित होते थे, लेकिन उनमें धीरज होता था और कई कार्य वे सामाजिक भावना से भी करते थे। लेकिन अब इक्विटी फंड्स की बढ़ती भूमिका से अमेरिका के खेल ढांचे में तनाव पैदा होने लगा है। विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि निकट भविष्य में ही इसका बुरा असर दिखने लगेगा। इक्विटी फंड्स तुरंत मुनाफा चाहते हैं और इसके लिए खिलाड़ियों पर लगातार सफल होने का दबाव बनाए रखते हैं। इस बात के कई उदाहरण हाल में देखने को मिले हैँ।  (Wall Street Hits the Locker Room – The American Prospect)

यह तथ्य भी गौरतलब है कि जब कभी समाजवादी ढांचे से मुकाबला हुआ, अमेरिका अपनी अपराजेय स्थिति बरकरार नहीं रख पाया। सोवियत संघ के साथ जिन दस ओलिंपिक खेलों में उसका मुकाबला हुआ, उनमें छह बार सोवियत संघ नंबर वन रहा। और पेरिस ओलिंपिक में आकर गोल्ड मेडल के मामले में चीन ने उसकी बराबरी कर ली है। (ओलंपिक फिर बना भू-राजनीतिक होड़ का अखाड़ा – जनचौक (janchowk।com))

भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्त, बीमा, रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों की भूमिका बढ़ रही है। कंपनियों का बोर्ड रूम तुरंत मुनाफा बढ़ाने की सोच से प्रेरित हो रहा है। ऐसे में इस क्षेत्र से खेलों में दीर्घकालिक निवेश की संभावना लगातार घटती जा रही है।

तो ऐसे में भारत को इस सवाल से उलझना ही होगा कि खेल की दुनिया में आगे बढ़ना है, तो उसका मॉडल क्या होना चाहिए?

इस पर विचार करते वक्त यह ध्यान में रखना जरूरी है कि भारत एक विकासशील देश है, जिसके पास औपनिवेशिक दौर में या साम्राज्यवादी आर्थिकी के जरिए इकट्ठा थाती नहीं है। भारत को जो भी हासिल करना है, वह अपने सीमित संसाधनों के बेहतर नियोजन और लक्ष्य केंद्रित योजनाओं के जरिए करना होगा।

बात अगर इस बड़े फ़लक पर नहीं होती है, तो फिर किसी घोषणा या महत्त्वाकांक्षा से कुछ हासिल नहीं होगा। सांप-सीढ़ी के खेल की तरह एक बार 48वें स्थान पर चढ़ने के बाद फिर गिर कर 71वें नंबर पर पहुंच जाना भारत का नियति बनी रहेगी।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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