नरेंद्र भाई अपने को सनातन धर्म के पर्याय की तरह पेश करने में लग गए हैं। वे माहौल बना रहे हैं कि सनातन संस्कृति की धार्मिक ध्वजा तब बचेगी, जब उनकी राजनीतिक पगड़ी बचेगी। ये आठ महीने सनातन संस्कृति के लिए बहुत खतरे के हैं। अगर इन आठ महीनों में सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो पाई तो वह हमारी पृथ्वी से लुप्त हो जाएगा।..मैं ने बड़े-बड़े गालबजाऊ देखे हैं, लेकिन गाल-वाद्य का इतना संजीदा, इतना मुग्ध और इतने भीतरी विश्वास से भरा साधक और कोई नहीं देखा।
अगर आप सोच रहे हैं कि नरेंद्र भाई मोदी अपने पैरों के नीचे से कालीन आसानी से खिसक जाने देंगे तो आप को मतिभ्रम हो रहा है। लेकिन अगर नरेंद्र भाई को लगता है कि सत्ता का कालीन उनके पैरों से ऐसा लिपट गया है कि वे ख़ुद भी उसे लाख झटकें तो भी वह उन से दूर नहीं होगा तो उन्हें भी मतिभ्रम हो रहा है। बाम-ए-हुकू़मत पर हर रोज़ उतर रहे कबूतरों के पैरों से बंधे ख़तों में यक-सा संदेश लिखा दूर से ही नज़र आ रहा है कि ‘पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल’।
दोनों को अपनी-अपनी पगड़ी संभालनी है। नरेंद्र भाई को भी और जनता को भी। नरेंद्र भाई की पगडी बची तो जनता की पगड़ी उछल जाएगी और जनता की पगड़ी बची तो नरेंद्र भाई की। सो, अभी आठ महीने हमारा देश पगड़ी-पगड़ी खेलेगा। जनता ने गांठ बांध ली है कि वह अपनी पगड़ी इस बार किसी भी हाल में नीचे नहीं लुंढ़कने देगी। अब तक अपना-तेरी मचा रहे विपक्षी ऊधमियों को इसी दबाव के चलते प्रौढ़ता दिखानी पड़ रही है। नरेंद्र भाई की भी हठ है कि अपनी पगड़ी का तुर्रा हर कीमत चुका कर भी कायम रखेंगे। इसलिए वे भी हर ज़रूरी-गै़रज़रूरी मौक़े पर कुलांचे भरने में कोई कोताही नहीं कर रहे हैं।
इसी का नतीजा है कि आवर्ती जी-20 सम्मेलन की सफल मेजबानी की ख़ुशी में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में आयोजित-प्रायोजित कार्यक्रम में नरेंद्र भाई के तो पैर ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। साथ-साथ, मगर हलका-सा पीछे, चल रहे भाजपा-अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के पैरों से भी घुघरुओं की आवाज़ आ रही थी। बेचारे अमित भाई शाह और राजनाथ सिंह को सुरक्षा दस्ते ने दूसरे दरवाज़े से भीतर जाने का इशारा कर दिया था, सो, उनके पैर-तो-पैर, वे समूचे ही ज़मींदोज़-से दिखाई दे रहे थे। ज़श्न के संगीत में नरेंद्र भाई और पूरी भाजपा पूरी तरह भूल गई कि चंद घंटे पहले कश्मीर में फ़ौज और पुलिस के कितने अधिकारी आतंकवादियों से मुठभेड़ में शहीद हुए हैं?
चूंकि अपनी पगड़ी की रक्षा लगातार और ज़रूरी होती जा रही है, नरेंद्र भाई के मन में सनातन धर्म की रक्षा की चिंता भी लगातार बढ़ती जा रही है। वे उत्तर भारत के अपने सरकारी कार्यक्रमों तक में यह बताने पर पूरा ज़ोर लगा रहे हैं कि दक्षिण भारत के एकाध चलताऊ राजनीतिक की कही बातों से कैसे छह हज़ार साल पुरानी सनातन संस्कृति बहुत गंभीर खतरे में पड़ गई है। नरेंद्र भाई अपने को सनातन धर्म के पर्याय की तरह पेश करने में लग गए हैं। वे माहौल बना रहे हैं कि सनातन संस्कृति की धार्मिक ध्वजा तब बचेगी, जब उनकी राजनीतिक पगड़ी बचेगी। ये आठ महीने सनातन संस्कृति के लिए बहुत खतरे के हैं। अगर इन आठ महीनों में सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो पाई तो वह हमारी पृथ्वी से लुप्त हो जाएगा।
इसलिए अगर अगले साल की गर्मियों में आप को नरेंद्र भाई के सिर से सियासी पगड़ी गायब मिले तो आप समझ लीजिए कि सनातन धर्म ने हम से हमेशा के लिए विदा ले ली है। आप की आप जानें, मगर एक पक्का सनातनी होने के नाते मैं तो यह दृश्य देखने के लिए ज़िंदा नहीं रहना चाहता हूं। सनातन धर्म मुक्त संसार में जी कर मैं क्या करूंगा? और, जब नरेंद्र भाई सनातन धर्म के, स्वयंभू ही सही, पर्याय बन गए हैं तो या तो मैं अगले चुनावों में उन का समर्थन कर अपने जीवन-धर्म का पालन करूं या सनातन-लोप के पहले स्वयं के जीवन का लोप कर लूं।
मुझे सचमुच इस बात पर गर्व होता है कि हम में से कोई ख़ुद अपना ही पर्याय नहीं बन पाया और हमारे नरेंद्र भाई हैं कि संपूर्ण सनातन धर्म के पर्याय बन बैठे। स्वघोषणा की ऐसी हिम्मत बिरलों में ही होती है। मैं ने बड़े-बड़े गालबजाऊ देखे हैं, लेकिन गाल-वाद्य का इतना संजीदा, इतना मुग्ध और इतने भीतरी विश्वास से भरा साधक और कोई नहीं देखा। जिन्हें इस सूक्ति का जाप करना है कि ‘अज्ञानता में ही परम आनंद निहित है’, वे शौक़ से यह जाप करते रहें। अपने नरेंद्र भाई को इस तरह की बातों से फ़र्क़ पड़ता होता तो क्या वे प्रधानमंत्री बन जाते? आत्ममुग्धता और स्वघोषणा के गुणों ने ही उन्हें यहां तक पहुंचाया है। यही गुण उन्हें आगे भी, जहां ठीक समझेंगे, पहुंचाएंगे।
इस एक दशक में नरेंद्र भाई ने हमें जैसे देश-दुनिया के दर्शन कराए हैं, अगर उसके बाद भी हम उनके विश्वगुरु होने पर संदेह करते हैं तो हम से ज़्यदा कृतध्न कौन होगा? एक आदमी एक दिन की छुट्टी लिए बिना दिन-रात आप के लिए लगा हुआ है; मित्र-मंडली का भले सोचता हो, मगर घर-बार का तो कम-से-कम कतई नहीं सोचता; जिसने सर्वस्व आप पर न्यौछावर कर रखा है; उसके प्रति भी अगर आप के मन में सद्भाव के अंकुर नहीं फूटते है तो क़िस्मत उसकी नहीं, आप की फूटी हुई है। आप अभागे हैं कि हीरे को कोयला समझ रहे हैं।
जितना इन दस वर्षों में हुआ, उतना कभी हुआ था क्या? मगर आप हैं कि नेहरू और इंदिरा गांधी के ज़माने की यादों से आगे ही नहीं बढ़ पा रहे हैं। इस दशक की तरक़्की के तमाम सरकारी आंकड़े आपके सामने हैं। विकास-दर तेज़ी से बढ़ रही है। रोज़ाना मीलों लबे राष्ट्रीय राजमार्ग बन रहे हैं। चप्पे-चप्पे पर विमानतल बन गए हैं। बूंद-बूंद पर बंदरगाह बन चुके हैं। पटरी-पटरी पर वंदेभारत रेलें दौड़ रही हैं। 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन मिल रहा है। जन-धन खातों में धन बरस रहा है। हर घर में प्रसाधन कक्ष बन गए हैं। खेत खाद-बीज-पानी से लबालब हैं। ज़रूरी वस्तुओं के दाम पहले कभी इतने कम नहीं थे। युवाओं के सामने रोज़गार के अंबार लगे हैं।
शेयर बाज़ार आसमान छू रहा हे। क्रिकेट मैच के मैदानों में भीड़ संभाले नहीं संभल रही। शॉपिंग मॉल दिन-रात जगमगा रहे हैं। मगर आप हैं कि सरकारी आंकड़ों का गुदगुदा गद्दा बिछा कर सोने को तैयार ही नहीं हैं। वह आप को काटता है। आप अपने आंकड़े लिए विचार रहे हैं। मैं कहता हूं कि एक बार आप नरेंद्र भाई के बताए आंकड़ों को खा कर देखिए, पी कर देखिए और उन से ज़रा स्नान कीजिए। फिर आप की सारी थकान दूर हो जाएगी। आप एक दूसरे ही तरंग-लोक में पहुंच जाएंगे। जहां न ग़म होगा, जहां न आंसू होंगे, जहां बस परमानंद ही परमानंद बहेगा।
मगर मैं जानता हूं कि आप ढीठ हैं। आप यह बात मानेंगे नहीं। आप मीनमेख निकाले बिना रहेंगे नहीं। आप खुरपेंच किए बिना बाज़ नहीं आएंगे। आप किसी-न-किसी तरह नरेंद्र भाई की पगड़ी को निशाना बनाने पर तुले हुए हैं। दस बरस में आप का हर लमहा इसी उधेड़बुन में बीता है कि नरेंद्र भाई की पगड़ी कैसे उछालें। देसी-परदेसी भूमि से आप ने इसके लिए हर तरह के बल्लम-भाले फेंक कर देख लिए। मगर नरेंद्र भाई की पगड़ी अब तक सलामत है। नरेंद्र भाई को दृढ़ विश्वास है कि उनकी पगड़ी आजीवन सलामत रहेगी। मैं देखने को बेताब हूं कि देश की पगड़ी महफ़ूज़ रहती है या नरेंद्र भाई की! मैं देखने को तरस रहा हूं कि इन आठ महीनों में नरेंद्र भाई देश की पगड़ी को अपनी पगड़ी में तब्दील करते हैं या अपनी पगड़ी को देश की पगड़ी बनाने में ही लगे रहते हैं! अब सारा दारोमदार इसी एक मुद्दे पर है।
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