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मुद्रा-इतिहास के अश्वेत पन्ने का अंतिम संस्कार

नरेंद्र भाई

सच्चे बदलाव उन्नीस-बीस का फ़र्क़ वाले लोग नहीं लाया करते। वह तब आता है, जब सचमुच ख़ालिस दूध से धुला कोई नायक सड़ांध मारते खलनायक को ललकारता है। लोग बुरे में कम बुरेको चुनने के चक्कर में नहीं पड़ते हैं। जब ऐसा मौक़ा आता है तो वे उन्हें फ़ायदा पहुंचाने वाले ज़्यादा बुरेके तंबू में पनाह ले लेते हैं। यही हो रहा है। ईश्वर न करे कि यही होता रहे!

दूध का धुला कोई नहीं है। आज की दुनिया में जब दूध ही दूध का धुला नहीं है तो मैं-आप कहां से दूध के धुले हों जाएंगे? सो, हम सब सपरेटा दूध के धुले हैं। लेकिन ताल ऐसे ठोकते हैं, गोया तन-मन हरिष्चंद्र के डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल की बूंदों से सराबोर है। आज के संसार में, फिर उसके समाज में, फिर उसके अर्थतंत्र में और फिर उससे जन्मी सियासत में आख़िर कौन महात्मा गांधी की बकरी के दूध का धुला हो सकता है? मोहनदास करमचंद आज स्वयं भी होते तो उन्हें भी, इस लोकतंत्र को पालने-पोसने के लिए, पता नहीं क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते?

इसलिए किसी नरेंद्र भाई मोदी को, किसी अमित भाई शाह को, किसी शरद पवार को, किसी ममता बनर्जी को, किसी नीतीश कुमार को, किसी लालू प्रसाद यादव को, किसी अरविंद केजरीवाल को, किसी मायावती को या किसी अखिलेश यादव को हम क्यों तो कोसें और क्यों उन्हें लानत-मलामत भेजें? वे सब अपने-अपने तरीके से लोकतंत्र को मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं। आज से नहीं, बरसों से जुटे हुए हैं और हम-आप उन्हें जब तक कंधे पर लिए घूमते रहेंगे, वे अपने काम में जुटे रहेंगे।

जब हम ने अपने सर्वगुण संपन्न पुरोहित नरेंद्र भाई द्वारा सुवेंदु अधिकारी, हिमंत बिस्वा सर्मा, मुकुल रॉय, नारायण राणे, पेमा खांडू, छगन भुजबल, अजित पवार, बी.एस. येदियुरप्पा, भावना गवली, प्रताप सरनायक, यशवंत जाधव, यामिनी जाधव, वगै़रह-वगै़रह के लिए पढ़े गए ‘पवित्रो अपवित्रः’ मंत्र जाप के बाद उन सभी को भाजपाई-दूध का धुला मान लिया है तो सत्येंद्र जैन, मनीष सिसोदिया या संजय सिंह पर तोहमत लगाने का हमें क्या हक़ है? अगर हमारे नरेंद्र भाई सपरेटा दूध के धुले भी होते तो क्या अपने-पराए का ऐसा भेद कर पाते?

2014 की गर्मियों से काफी पहले ही नरेंद्र भाई ने अपने को दूध का धुला प्रचारित करने के लिए कई छवि-निर्माताओं को भाड़े पर ले लिया था। इस प्रचार ने उन्हें अच्छे दिन लाने वाले मसीहा के तौर पर स्थापित कर दिया और वे फुदक कर रायसीना पहाड़ी के सत्ता-वृक्ष की सबसे ऊंची टहनी पर जा बैठे। उनके अनुचर झूमने लगे। फिर सात साल पहले 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे जब उन्होंने नोटबंदी का धमाका किया तो मैं भी झूमने लगा कि अब तो नरेंद्र भाई काले धन और आतंकवाद को नेस्तनाबूत कर के ही दम लेंगे। उन्होंने तब मौजूद 500 और 1000 रुपए के नोट रद्द कर दिए और उनकी जगह 500 और 2000 रुपए के नए नोट जारी करने का ऐलान कर दिया।

तब बाज़ार में 15 लाख 51 हज़ार करोड़ रुपए (यानी डेढ़ सौ खरब रुपए से कुछ ज़्यादा) 500 और 1000 रुपए के नोटों में मौजूद थे। नरेंद्र भाई को अपने लंबे राजनीतिक अनुभव से लग रहा होगा कि इनमें दो-चार लाख करोड़ रुपए का काला धन तो ज़रूर राजनीतिकों और धन्ना सेठों के गोदामों में होगा और अ बवह एक झटके में प्रसार से बाहर हो जाएगा। मगर 99 फ़ीसदी से ज़्यादा रद्द नोट बैंकों में लौट आए। यह कैसे हुआ, कोई इसलिए नहीं जानता कि जो जानते होंगे, वे इतने दूध के धुले नहीं हैं कि किसी को कुछ बताएं।

नरेंद्र भाई के पौरुष से सात साल पहले जन्मे दो हज़ार रुपए के नोट का आज अंतिम संस्कार है। इसलिए मैं इन सात वर्षों की चकरघिन्नी में आपको ले कर ज़रा घूमना चाहता हूं। नोटबंदी के वक़्त दो हज़ार रुपए के क़रीब सात लाख करोड रुपए की कीमत के नोट छापे गए थे। यानी साढ़े तीन अरब नोट छपे। सरकार ने संसद में बताया कि दो हज़ार के एक नोट की छपाई पर तक़रीबन सवा तीन रुपए का खर्च आया। इसका मतलब हुआ कि दो हज़ार रुपए के नोट की छपाई पर ग्यारह-बारह सौ करोड़ रुपए खर्च हुए। काले धन और आतंकवाद से निपटने के लिए यह रकम मामूली है। इससे चार गुनी तो नरेंद्र भाई ने जी-20 के आयोजन पर खर्च कर दी।

2018 के बाद दो हज़ार रुपए के नोटों की छपाई बंद कर दी गई। दो हज़ार का जो नोट बैंक में जमा होता, उसे बाज़ार में वापस भेजना बंद कर दिया गया था। इस तरह तीन-चार लाख करोड़ रुपए के नोट आम-प्रचलन से बाहर कर दिए गए। पिछले चार-पांच साल से तक़रीबन चार लाख करोड़ रुपए की कीमत के दो हज़ार रुपए के नोट प्रचलन में बचे थे। इस साल 19 मई को रिज़र्व बैंक ने इन्हें भी प्रचलन से पूरी तरह बाहर करने का ऐलान कर दिया। इनमें से 99 प्रतिशत के आसपास अब फिर बैंकों में लौट आए हैं। इस तरह सात साल पहले एक मंगलवार को शुरू हुए इतिहास का यह अश्वेत पन्ना देश-दुनिया घूम-घाम कर आज शनिवार के दिन पूरी तरह दफ़्न हो रहा है। इतना अल्पजीवी नोट दुनिया में शायद ही कोई और रहा हो। दो हज़ार रुपए के नोट की लुगदी बन जाने के बाद इसके रहस्यमयी तहखाने पर हमेशा के लिए ताला लग जाएगा।

अब यह मत पूछिए कि डेढ़ सौ खरब रुपए के नोट रातोंरात रद्द कर देने की झौंक के बाद पिछले सात साल में कितना काला धन बाहर आया? यह भी मत पूछिए कि इससे आतंकवाद कितना कम हुआ? सरकार के पास नोटबंदी से इन बातों के सीधे संबंध का कोई हिसाब-किताब नहीं है। आपके लिए इतना जानना ही काफी है कि नोटबंदी के समय नरेंद्र भाई के मंसूबे दूध-धुले थे। वे पूरे हुए तो ठीक। नहीं हुए तो ठीक। किसी प्रधानमंत्री को प्रयोगधर्मी होने से आप रोक नहीं सकते। नरेंद्र भाई की प्रयोगधर्मिता तो वैसे ही हर मामले में बेमिसाल रही है – आज से नहीं, मगरमच्छ युद्ध के दिनों से। वे आपके प्रश्नवाचक चिह्न के दायरे से परे थे, परे हैं और परे रहेंगे।

दूसरे तो सब अपने-अपने हिस्से का एक लोटा दूध डालेंगे ही, यह सोच कर मैं ने भी जीवन भर हर बार दूध की जगह तालाब में एक लोटा पानी डाला। सो, अब दूध के तालाब के पानी-पानी होने पर मैं कैसे विलाप करूं? जो दूध के धुले हैं और दूध का अपना-अपना लोटा पूरी ईमानदारी से नारायण-सरोवर में अर्पित करते रहे हैं, उन्हें प्रलाप का पूरा हक़ है। लेकिन उनका रुदन भी मुझे तो कहीं सुनाई दे नहीं रहा। वे घुट-घुट कर मन-ही-मन सुबक रहे हों तो मैं नहीं जानता। ऐसे अकेले-अकेले रोने वालों को धिक्कारें न तो क्या करें?

इसीलिए मैं कहता हूं कि अगर देशवासी दूध के धुले होते तो आज पूरा देश, ताल ठोकता न सही, छाती पीटता तो नज़र आता! मगर चूंकि हम सब पाखंडी हैं, इसलिए आडंबर रच कर हमें झक्कू दे रहे किसी एक के खि़लाफ़ हमारी ज़ुबान हिले तो कैसे हिले? सच्चे बदलाव उन्नीस-बीस का फ़र्क़ वाले लोग नहीं लाया करते। वह तब आता है, जब सचमुच ख़ालिस दूध से धुला कोई नायक सड़ांध मारते खलनायक को ललकारता है। लोग बुरे में ‘कम बुरे’ को चुनने के चक्कर में नहीं पड़ते हैं। जब ऐसा मौक़ा आता है तो वे उन्हें फ़ायदा पहुंचाने वाले ‘ज़्यादा बुरे’ के तंबू में पनाह ले लेते हैं। यही हो रहा है। ईश्वर न करे कि यही होता रहे!

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By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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