विधानसभा चुनावों में जा रहे पांच राज्यों में लोकसभा की 83 सीटें हैं। भाजपा के पास इनमें से 65 हैं। कांग्रेस के पास महज़ 6 हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की 65 लोकसभा सीटों में से क्या इस बार कांग्रेस को पिछली बार की तरह सिर्फ़ तीन ही मिलने जैसे हालात आपको लग रहे हैं? क्या भाजपा पहले की तरह इनमें से 61 सीटें अपनी गठरी में बांध कर छूमंतर हो जाने का करिश्मा 2024 में दिखाती लगती है?
इस साल जब सर्दियों का गुलाबीपन शुरू हो रहा होगा तो पांच राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के कमल की सुर्ख़ी अपने चरम उतार पर होगी। मध्यप्रदेश में भाजपा बड़ी बेआबरू हो कर सत्ता के कूंचे से बाहर निकलती दिखाई दे रही है। छत्तीसगढ़ में उसे पांच-सात सीटों का फ़ायदा भले हो जाए, मगर वह सिंहासन के पहले पायदान तक भी नहीं पहुंच पा रही है। राजस्थान तक में उसका भाग्य छींका तोड़ पाने लायक प्रबंल नहीं है। तेलंगाना में भाजपा न पहले कभी कहीं थी, न आज कहीं है। मिज़ोरम में भी उसे इक्कादुक्का सीटें ही मिलने के आसार हैं।
पांच राज्यों – मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम – की कुल 679 विधानसभा सीटों में इस वक़्त 217 भाजपा के पास हैं। कांग्रेस के पास 286 हैं। भाजपा से 69 ज़्यादा। चुनावी संभावनाओं का अंदरूनी आकलन कर रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टोलियां इस बार भाजपा को इन पांच राज्यों में 49 सीटों का नुकसान होने की आशंका जता रही हैं।
उनके मुताबिक मौजूदा ज़मीनी हालात के हिसाब से अगले चुनाव में अभी भाजपा को मध्यप्रदेश में 84, राजस्थान में 57, छत्तीसगढ़ में 23, तेलंगाना में 3 और मिज़ोरम में 1 सीट मिलने के आसार हैं। यानी अभी कुल 168 सीटें भाजपा के आंचल में जा रही हैं। सभी उम्मीदवारों के नामों का ऐलान हो जाने के बाद इन आंकड़ों में 2 से 3 प्रतिषत का नफ़ा-नुकसान हो सकता है।
यह आकलन कांग्रेस को मध्यप्रदेश में 141, राजस्थान में 103, छत्तीसगढ़ में 59, तेलंगाना में 41 और मिज़ोरम में 14 सीटें दे रहा है। यानी कुल 358। इसका मतलब हुआ कि पिछली बार के मुकाबले कांग्रेस को इन पांच राज्यों में 72 सीटें ज़्यादा मिल रही हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस के प्रति मतदाता भाव-विभोर दिख रहे हैं, मगर अगर तेलंगाना और मिज़ोरम में कांग्रेस की इतनी बढ़त सचमुच होती है तो फिर इसे ‘मोशा-भाजपा’ से अखिल भारतीय उकताहट का साफ संकेत मानने के अलावा राजनीतिक पंडितों के पास और कोई चारा नहीं बचेगा।
मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से इस समय भाजपा के पास 128 और कांग्रेस के पास 98 हैं। 2020 के मार्च में निविड़-निर्वस्त्रता और ईमानफ़रोश-बेशर्मी के ज़रिए गिराई गई अपनी सरकार का ज़ख़्म लिए कमल नाथ ने जिस तरह पिछले साढ़े तीन बरस का एक-एक लमहा कांग्रेसी मनोबल के परत-दर-परत पुनरुद्धार में लगाया है, उसने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो छोड़िए, मध्यप्रदेश में दिन-रात एक कर रहे अमित शाह को रतजगे पर मजबूर कर दिया है।
अपने तमाम केंद्रीय दिग्गजों को विधानसभा का चुनाव लड़ाने की रणनीति तक पर उतारू हो जाने के बावजूद भाजपा 80 सीटों के आंकड़े के आसपास दम तोड़ती दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश में इस बार कांग्रेस की गुटीय एकजुटता और भाजपा की धड़ेबंदी की चौड़ी दरारों के अजब-ग़जब दृश्य दिखाई दे रहे हैं।
राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार के पास 121 विधायक हैं और उनमें से 107 ख़ुद कांग्रेस के हैं। भाजपा अपने 70 विधायकों को किसी तरह जाजम से नीचे न टपकने देने की जुगत भिड़ाने में लगी हुई है। वसुंधरा राजे के धोबिया पछाड़ का प्रेत नरेंद्र भाई मोदी को रह-रह कर तंग कर रहा है। उसकी काट करने वाला कोई ओझा उनके पास नहीं है।
एक-से-बढ़ कर-एक विवादास्पद केंद्रीय चेहरों को राजस्थान के ज़िले-ज़िले में अपने उम्मीदवारों को जिताने की ज़िम्मेदारी दे कर भाजपा ने ख़ुद के लिए एक ऐसा मकड़जाल और तैयार कर लिया है, जिसके सुहावने ताने-बाने में उलझ कर वह और बेदम ही होगी। सो, राजस्थान में बारी-बारी से सरकार बनाने की पुराण-कथा इस बार कुछ और तहरीरों के साथ नमूदार होने वाली है।
छत्तीसगढ़ में ‘मोशा’ के तमाम बल्लम-भालों को बरसों से राणासांगाई अंदाज़ में झेल रहे भूपेश बघेल के सारे 71 कांग्रेसी विधायक हर हाल में उनके साथ बने रहे। भाजपा है कि अपने 15 विधायकों की टप्पेबाज़ी से बेहाल घूम रही है। कोई प्रादेशिक चेहरा उसके पास है नहीं और नरेंद्र भाई की शक़्ल के इंद्रजाल का असर बेतरह उतार पर है। गांव-देहात और आदिवासी इलाके तो कांग्रेस का हाथ पूरी तरह थामे हुए हैं, शहरी मतदाताओं की ‘मोशा-डिस्को’ में उपस्थिति से अगर भाजपा अपने को थोड़ा आश्वस्त मान भी रही हो तो उससे पिछली बार की उसकी गिनती में दो-चार से ज़्यादा का इज़ाफ़ा होता मुझे तो नहीं दिखता।
तेलंगाना अब पहले की तरह के. चंद्रशेखर राव के साथ नहीं है, इसलिए, अगर समझदार होंगे तो, 119 में से 101 सीटें लेकर लौटने का ख़्वाब तो वे ख़ुद भी नहीं देख रहे होंगे। तेलंगाना को अलग राज्य बनाने में सोनिया गांधी और कांग्रेस के स्वेद-बिंदु अब गली-गली याद किए जा रहे हैं। कांग्रेस को पिछली बार भले ही सिर्फ़ पांच सीटें मिली थीं, इस बार वह एक ख़ासी लंबी छलांग भरती दिखाई दे रही है। दो हफ़्ते पहले हैदराबाद के तुक्कूगुडा में हुई सोनिया-राहुल गांधी की जनसभा में उमड़ी भीड़ ने केसीआर के माथे की लकीरों को बेहद गहरा कर दिया है। मतदाताओं को दिए सोनिया के छह वचनों की दुंदुभि प्रदेश के चप्पे-चप्पे पर गूंजती सुनाई दे रही है।
मिज़ोरम का मिज़ाज भी इस बार बहुत बदला हुआ है। मुख्यमंत्री जोरमथंगा की धड़कनें बढ़ी हुई हैं। मणिपुर प्रसंग में नरेंद्र भाई मोदी की उदासीनता ने पूर्वोत्तर की सकल सियासत में जिस तरह की खिन्नता का भाव उनके प्रति उत्पन्न कर दिया है, उसके छींटे लुशाई पहाड़ियों पर भी साफ़ नज़र आ रहे हैं। सो, मिज़ो नेशनल फ्रंट को पिछली बार की तरह 27 सीटें इस बार कहां से मिलेंगी? कांग्रेस को पिछली बार हालांकि 5 सीटों पर ही जीत हासिल हुई थी, लेकिन जोरमथंगा के विपक्ष में इस वक़्त 13 विधायक हैं। भाजपा जिस एकमात्र तुईचवांग सीट पर पिछली बार 1600 वोट से जीती थी, वहां से भी इस बार उसके पैर उखड़ रहे हैं।
पांचों प्रदेशों में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के सघन दौरे शुरू होने के बाद से कांग्रेस के लिए हालात तेज़ी से बदले हैं। चूंकि इन विधानसभा चुनावों को 2024 का उपांत-चुनाव माना जा रहा है, इसलिए ज़मीनी समीकरण और भी गहरी करवट ले रहे हैं। बेरोज़गारी और महंगाई से जुड़े देशव्यापी मुद्दों का बुनियादी असर भाजपा के लिए आमतौर पर नुकसानदायक है। किसानों और विद्यार्थियों से जुड़े स्थानीय मुद्दों की धमक अलग से है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को इसका फ़ायदा मिल रहा है और मध्यप्रदेश में भाजपा को इसका बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है। शिवराज-सरकार के भ्रष्टाचार की गाथाएं इस तरह पसरी हुई हैं कि उनकी विदाई इस क़दर तय हो चुकी है कि नरेंद्र भाई अपनी जनसभा में शिवराज का नाम तक नहीं ले रहे हैं।
विधानसभा चुनावों में जा रहे पांच राज्यों में लोकसभा की 83 सीटें हैं। भाजपा के पास इनमें से 65 हैं। कांग्रेस के पास महज़ 6 हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की 65 लोकसभा सीटों में से क्या इस बार कांग्रेस को पिछली बार की तरह सिर्फ़ तीन ही मिलने जैसे हालात आपको लग रहे हैं? क्या भाजपा पहले की तरह इनमें से 61 सीटें अपनी गठरी में बांध कर छूमंतर हो जाने का करिश्मा 2024 में दिखाती लगती है? अगर नहीं तो समझ लीजिए कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत तक पहुंचने से रोक देने की कूवत तो इन तीन प्रदेषों के मतदाताओं की आधी मुट्ठी में ही बंधी हुई है। इसलिए सारा दारोमदार नवंबर-दिसंबर के उछाह पर है।
यह भी पढ़ें: