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गाज़ा पट्टी के पेच-ओ-ख़म और गंगा आरती

गंगा आरती

इज़राइल के प्रधानमंत्री बैंजामिन नैतन्याहू चूंकि घोर दक्षिपंथी हैं और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई के वे बड़े नज़दीकी मित्र माने जाते हैं, सो, हिंदुत्ववादी कर्तव्यबद्ध हैं कि इज़राइल के समर्थन में गंगा आरती करें।…हमासी-वहशीपन और फ़लस्तीनी-सरोकार के घालमेल की साज़िशों में मत फंसिए। इसलिए कि आज के भेड़िया धसान दौर में कोई आपको यह नहीं बताएगा कि पिछले शनिवार को शुरू हुए दुर्भाग्यपूर्ण युद्ध से पहले फ़लस्तीन और इज़राइल के बीच 26 बार बड़े युद्धनुमा संघर्ष हो चुके हैं। यह 27वां है। कौन आपको यह बताएगा कि इनमें कितनी बार किस की पहलक़दमी रही?

मैं ने नरेंद्र भाई मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के लोगों को अस्सी घाट पर इज़राइल की हिमायत में गंगा आरती करते देखा। पिछले शनिवार की पौ फटने के आसपास इज़राइल पर हमास (हरकतुल मुकावमतुल इस्लामिया) के हमले ने दुनिया को तो जो हिलाया, सो, हिलाया; भारत में हिंदू हृदय सम्राट के सोच-हीन तरफ़दारों को भीतर तक ऐसा हिला दिया कि यह पूरा हफ़्ता हिल-हिल-हिल-हिल करता बीता है। वे भी, जिन्हें न फ़लस्तीन की अवधारणा मालूम, न इज़राइल की संकल्पना का अता-पता, अपने मुखारबिंद से कुतर्कों का अनवरत पतनाला बहा रहे हैं।

एक वाहन पर रखे तक़रीबन निर्वस्त्र महिला के शव पर पैर पसारे बैठे हमास के हथियार लहराते पिशाचों की तस्वीर देख कर कौन नहीं हिल जाएगा? सब हिल गए। मैं भी उन सब में शामिल हूं। कौन इस दरिंदगी की ताईद कर सकता है? हमास के दस-पांच हज़ार दहशतग़र्दों को छोड़ कर ख़ुद फ़लस्तीन के 50-60 लाख बाशिंदों में से एक भी इस बेहूदगी को ठीक नहीं ठहराएगा। इसलिए कि आख़िर वे और उनकी औरतें-बच्चे बरसों-बरस से जितना भोग चुके हैं, जितना भोग रहे हैं, उसकी यादें ही उन्हें इस क़दर सिहरा देने को काफी हैं कि वे किसी और के साथ ऐसे ज़ुल्म की हिमायत कर ही नहीं सकते।

लेकिन ज़रा-सा मौक़ा मिलते ही अपनी भुजाएं फड़काना शुरू कर देने वाले बुद्धिहीन तन पिछले एक दशक में खर-पतवार की तरह तेज़ी से ऐसे पसरे हैं कि ‘जय-जय श्रीराम’ ही भारत के भाग्य की रक्षा करें। इज़राइल के प्रधानमंत्री बैंजामिन नैतन्याहू चूंकि घोर दक्षिपंथी हैं और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई के वे बड़े नज़दीकी मित्र माने जाते हैं, सो, हिंदुत्ववादी कर्तव्यबद्ध हैं कि इज़राइल के समर्थन में गंगा आरती करें। हमास के सुन्नी आतंकियों के लिए इससे बड़ा सबक क्या हो सकता है कि गाज़ा पट्टी से साढ़े चार हज़ार किलोमीटर दूर भारत में गंगा तट पर उनके विरोध में ताली-थाली बज रही है। लाइलाज़ बीमारियों से निपटने का यह अचूक नुस्ख़ा तीन-चार साल पहले ही हमारे हाथ में थमाया गया है।

हमास-इज़राइल संघर्ष में अब तक हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं, हज़ारों जख़्मी हैं और हज़ारों घर उजड़ चुके हैं। हमास हमले के दो दिन बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जैसे ही यह प्रस्ताव पारित हुआ कि पार्टी फ़लस्तीन-मुद्दे के साथ है और मानती है कि इज़राइल और फ़लस्तीन को अपने विवाद आपसी बातचीत से हल करने चाहिए, ‘अक़्ल के अंधे’ कांग्रेस पर टूट पड़े। हल्ला शुरू हो गया कि राजनीतिक फ़ायदे उठाने के लिए अब कांग्रेस आतंकियों का समर्थन करने से भी बाज़ नहीं आ रही है, वह देशहित के खि़लाफ़ जा रही है, वह भारत-सरकार से उलट रुख़ अपना रही है। तीन दिनों तक इस गलाफाड़ू शोर के बाद भारत-सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक अधिकारिक बयान जारी कर कहा कि ‘‘फ़लस्तीन और इज़राइल को ले कर हमारी नीति दशकों से अविचल और स्थिर है। भारत हमेशा से मानता है कि इज़राइल की बगल में; मान्यता प्राप्त और सुरक्षित सरहदों के भीतर; सार्वभौम, स्वतंत्र और सक्षम फ़लस्तीन राष्ट्र की स्थापना का मसला आपसी बातचीत से हल होना चाहिए। आज भी हम इसी नीति पर कायम हैं।’’

मैं अवाक हूं। मेरी समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या नरेंद्र भाई की सरकार आतंकियों के समर्थन में खड़ी हो गई है? क्या अब ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ के तरन्नुम पर तैर रही कर्तव्यबद्ध कतार फ़लस्तीन के समर्थन में गंगा आरती करेगी? या वह अपने नरेंद्र भाई की इस उलटबांसी के लिए उन्हें वैसे ही कोसना शुरू कर देगी, जैसे वह दो दिन पहले तक राहुल गांधी को धिक्कार-धिक्कार कर देशद्रोही बता रही थी? अरे, इन वैशाखनंदनों को कोई समझाए कि फ़लस्तीन-अस्मिता और हमास की उपस्थिति दो अलग-अलग चीज़ें हैं। फ़लस्तीन हमास नहीं है। हमास फलस्तीन नहीं है। वैसे ही जैसे कि हिंदू-अस्मिता और बजरंगदल की उपस्थिति दो अलग-अलग चीज़ें हैं। हिंदू-जीवन क्या बजरंगदली होना है? ऐसे ही फ़लस्तीनी होने का यह अर्थ कतई नहीं है कि आप अनिवार्य तौर पर हमासी हुड़दंगिए हैं। ऐसा मानना पूरे फ़लस्तीनी-मसले का अतिसामान्यीकरण करना होगा। क्या हम हमास के मुखिया इस्माइल अब्देल सलाम अहमद हनियेह को फ़लस्तीनी मुक्ति संगठन के मुखिया यासर अराफ़ात का भी पितृ-पुरुष मान लें? हमास तो आज यासर अराफ़ात द्वारा शुरू की गई शांति-वार्ताओं की पहल को भी नामंजूर करता अर्रा रहा है।

इसलिए हमासी-वहशीपन और फ़लस्तीनी-सरोकार के घालमेल की साज़िशों में मत फंसिए। इसलिए कि आज के भेड़िया धसान दौर में कोई आपको यह नहीं बताएगा कि पिछले शनिवार को शुरू हुए दुर्भाग्यपूर्ण युद्ध से पहले फ़लस्तीन और इज़राइल के बीच 26 बार बड़े युद्धनुमा संघर्ष हो चुके हैं। यह 27वां है। कौन आपको यह बताएगा कि इनमें कितनी बार किस की पहलक़दमी रही? कौन आपको यह बताएगा कि पिछले कई दशकों में हुई इन हिंसक घटनाओं में कितने फ़लस्तीनी मारे गए और कितने इज़राइली? इनमें कितनी फ़लस्तीनी औरतों ने असहनीय अत्याचार झेले और कितनी इज़राइली औरतों ने? युद्ध की त्रासदियों का पैमाना यह नहीं होता है कि किस तरफ़ के कितने लोग मारे गए, किस तरफ़ के कितने परिवार उजड़े, मगर फिर भी यह समझ लेने में कोई बुराई नहीं है कि इज़राइल और फ़लस्तीन के बीच हुए अब तक के संघर्षों में ज़्यादती हर लिहाज़ से फ़लस्तीन के साथ ही होती रही है। इसलिए किसी एक ताज़ा घटना से अंतिम निष्कर्षों पर पहुंच जाना ठीक है। गाज़ा पट्टी की पेचीदगियों को मोशे दायां की तरह एक आंख पर पट्टी बांध कर देखने से तो सारे दृश्य ही गड्डमड्ड हो जाएंगे।

आपको भी मेरी तरह लगता होगा कि बैंजामिन नेतन्याहू हमारे नरेंद्र भाई के व्लादिमिर पुतिन से तो ज़्यादा ही क़रीबी हैं। तो जब नरेंद्र भाई रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध, चंद घंटों के लिए ही सही, रुकवा सकते हैं तो इज़राइल को गाज़ा पट्टी पर कुछ दिनों के लिए थोड़ा रहम करने को क्यों नहीं कह सकते हैं? मैं तो मानता हूं कि रूस-यूक्रेन युद्ध में नरेंद्र भाई शांतिदूत की कोई कारगर भूमिका कभी निभा पाएं, न निभा पाएं, इज़राइल-फ़लस्तीन मसले में शांति स्थापना की प्रभावी कोशिशें वे सचमुच कर सकते हैं। उनके सऊदी अरब से भी अच्छे संबंध हैं और ईरान से भी। कतर से ले कर लेबनान, बहरीन, मोरक्को, टर्की, यमन, टयूनीशिया, कुवैत – आख़िर कौन है, जो नरेंद्र भाई को नकार देगा? संयुक्त अरब अमीरात से तो नरेंद्र भाई जैसा कहेंगे, सब मान लेंगे। अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में ख़ुद पीछे-पीछे आ कर नरेंद्र भाई से मुख़ातिब होने की हुलस रखने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन इज़राइल-फ़लस्तीन मामले में क्या उनकी बात टाल देंगे?

मैं यह सब सचमुच पूरी संजीदगी से कह रहा हूं। जो मौक़ा नरेंद्र भाई के पास है, वह शायद ही पहले किसी प्रधानमंत्री के पास था। फ़लस्तीन-प्रसंग में भारत को ले कर इज़राइल हमेशा से शंकालु ही रहा आया है। पर आज इज़राइल के भारत पर भरोसे का स्वर्ण-युग चल रहा है। ऐतिहासिक कारणों की वज़ह से फ़लस्तीन को भी इस दौर में भारत पर कोई संदेह नहीं है। ऐसे में गाज़ा पट्टी की रस्सी पर नरेंद्र भाई का संतुलित प्रस्थान भूमध्य सागर के दक्षिण पूर्वी छोर पर अमन के आगाज़ का नया अध्याय आरंभ कर सकता है। सोचिए, नरेंद्र भाई, सोचिए!

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By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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