दिग्विजय सिंह की शपथ का मुहूर्त निकालने वाले ज्योतिषी ने तब ही मुझ से कहा था कि दिग्विजय पूरे दस साल मध्यप्रदेश के अनवरत मुख्यमंत्री रहेंगे। … दूसरी बार जब दिग्विजय मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भूपेश बघेल को अपना परिवहन मंत्री बनाया। फिर छत्तीसगढ़ में जोगी के मंत्रिमंडल में रहे। पांच बरस पहले भूपेश मुख्यमंत्री बन गए। इतना पुराना किस्सा मैं ने इसलिए सुनाया है ताकि आप भूपेश के तजु़र्बों का अहसास कर सकें। यह ऐसे ही नहीं है कि ढाई साल से चला-चली की वेला में बैठे भूपेश अब तक नहीं हिले। अगले चुनाव के बाद भी उनकी ही वापसी की बातें ऐसे ही नहीं चलने लगी हैं!
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मुझे कितना जानते हैं, कितना नहीं, मैं नहीं जानता; लेकिन मैं उन्हें तीन दशक से जानता हूं। तब वे पाटन से पहली बार विधायक बने थे। 1993 के उस साल की सर्दियों में भोपाल का सियासी अखाड़ा नए मुख्यमंत्री के चयन को ले कर घमासान गर्मी से झुलस रहा था। दिग्विजय सिंह और सुभाष यादव के बीच जद्दोजहद थी। माधवराव सिंधिया भी एकाएक भोपाल उड़ने के लिए दिल्ली में एक निजी विमान तैयार रखे हुए थे। अर्जुन सिंह केरवा झील के किनारे अपने चर्चित निवास मे जमे हुए थे। श्यामाचरण शुक्ल भी अपना कोना संभाले हुए थे और भाई विद्याचरण उनके साथ थे ही। दिन भर की भागदौड़ के बाद देर रात सुभाष यादव और अजित जोगी जहांनुमा होटल के मेरे कमरे में पहुंचे। थोड़ी देर में रमाशंकर सिंह भी आ धमके। विधायकों की मोर्चाबंदी के उस उठापटकी माहौल में भूपेश से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। हालांकि वे एकदम नए-नकोर थे और लामबंदी में उन की कोई बड़ी भूमिका नहीं थी, मगर फिर भी कई कारणों से उनका चेहरा मेरे जैसे पत्रकार को याद रह ही जाना था। सो, रह गया।
उन दो-तीन दिनों में केरवा-बंगले से ले कर यहां-वहां भूपेश मुझ से टकराते रहे। संभावित मुख्यमंत्री को ले कर अपनी दबी-छुपी राय ज़ाहिर करते रहे। अर्जुन सिंह ने मुझ से कहा कि किसी आदिवासी, दलित या पिछड़े को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। लेकिन सुभाष, जोगी और रमाशकर – तीनों ने मुझ से कहा कि देख लेना, वे अंततः दिग्विजय के पक्ष में ख़ामोश हो जाएंगे। मैं ने तीनों को सुबह-सबह ठेल कर केरवा भेजा। कहा कि अर्जुन सिंह से लिखित बयान जारी करवाएं। वे कर दे तो बात बन जाए। वे गए और खाली हाथ लौट आए।
यूं तो माधवराव सिंधिया से अर्जुन सिंह की सियासी अदावत थी, मगर शुक्ल-बंधुओं को मुख्यमंत्री बनने की दौड़ से बाहर रखने के लिए दोनों ने हाथ मिला लिया। शुरू में अर्जुन सिंह आदिवासी या दलित को ही मुख्यमंत्री बनाने की बात कर रहे थे, मगर जब माधवराव ने कहा कि वे दिग्विजय के नाम पर तो कतई हां नहीं कहेंगे और सुभाष यादव के लिए तैयार हैं तो अर्जुन सिंह ने आदिवासी और दलित के साथ पिछड़ा वर्ग भी जोड़ दिया। शुक्ल-बंधु दिल्ली के आशीष पर निर्भर थे, मगर जब उन्हें इसकी संभावना तिरोहित होती लगी तो उन्होंने अपने लिए माधवराव का समर्थन जुटाने की कोशिश की। माधवराव न हां बोले न ना।
कांग्रेस विधायक दल की बैठक के एक दिन पहले दिग्विजय को कमल नाथ का समर्थन मिल गया। करीब 90 विधायक दिग्विजय के आंगन में इकट्ठे हुए। सुभाष यादव अब पूरी तरह अलग-थलग पड़ गए थे। विधायकों का बहुमत तो उनके साथ नहीं था। हां, अर्जुन सिंह का वज़न ज़रूर उनके काम आ सकता था। लेकिन कमल नाथ जब दिग्विजय के हिमायती हो गए तो यह वज़न भी निष्प्रभावी-सा होने लगा। अफ़वाहें हवा में तैरने लगीं। अर्जुन सिंह खेमे में बाकायदा फूट की संभावनां ज़ाहिर की जाने लगीं। कमल नाथ ने अर्जुन सिंह के लिए सार्वजनिक तौर पर कुछ कड़ी बातें भी कह डालीं। मौसम खदबदाने लगा।
सुशील कुमार शिंदे विधायक दल की बैठक के लिए पार्टी-आलाकमान के पर्यवेक्षेक बन कर दिल्ली से भोपाल आए थे। अर्जुन सिंह ने सार्वजनिक बयान तो नहीं दिया, मगर शिंदे को एक चिट्ठी भेज कर अपनी राय दुहराई। वे अपनी राय ख़ुद से मिलने वाले विधायकों को भी बताते रहे। मगर साथ ही यह भी जोड़ देते थे कि अंतिम फ़ैसला तो विधायकों को ही लेना है। विधायकों के बीच बेहद ऊहापोह का माहौल था।
नई बिसात बिछते ही माधवराव ने शुक्ल-बंधुओं से ख़ुद के लिए समर्थन मांगा। शुक्ल-बंधुओं ने इनकार करने में एक लमहा भी नहीं लगाया। कांग्रेस विधायक दल की बैठक वाले दिन हालात भांप कर माधवराव ने अपने समर्थक-विधायकों से शुक्ल-बंधु का साथ देने को कह दिया। मगर तब तक बहुत देर हो गई थी। शुक्ल-बंधु के लिए बहुमत जुटाना नामुमकिन ही था।
जिस शाम कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई, मैं भी पाजामा-कुर्ता पहन कर उस में जा कर बैठ गया। सो, सारी कार्यवाही को भीतर से देखा। विधायकों का खासा बहुमत दिग्विजय के पक्ष में था। अर्जु1न सिंह भाषण देना चाहते थे। लेकिन शिंदे ने उन्हें सलाह दी कि न बोलें। विधायकों में से किसी ने यह आग्रह नहीं किया कि उन्हें बोलने दिया जाए। यह माहौल देख कर अर्जुन सिंह तमतमा कर उठें और बैठक बीच में ही छोड़ कर चल दिए।
मुझे लगा कि विधायकों का बड़ा जत्था उनके पीछे-पीछे चल देगा। विधायक या तो उन्हें मनाएंगे, या उन के साथ बहुत-से विधायक बैठक का बहिष्कार जैसा कर देंगे। एकाध दिन बाद बैठक फिर होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक भी विधायक उन्हें न तो रोकने को उठा और न पीछे-पीछे बाहर गया। उन के साथ सीढ़ियों से सिर्फ़ मैं उतरा और पूछा कि आप ख़बर के लिए कुछ कहना चाहेंगे? बोले कि इन्हें जो करना हो, करें, लेकिन मैं शिंदे को लिखी अपनी चिट्ठी में कही बातों पर कायम हूं कि प्रदेश की कमान किसी आदिवासी, दलित या पिछड़े को दी जानी चाहिए।
अर्जुन सिंह चले गए। दिग्विजय सिंह तो विधायक का चुनाव भी नहीं लड़े थे, लेकिन विधायक दल के नेता चुन लिए गए। उन्हें 103 विधायकों का समर्थन मिला। शिंदे ने बाद में मुझ से कहा कि अर्जुन सिंह गोलमोल बात कर रहे थे। अगर वे सचमुच यह चाहते थे कि कोई आदिवासी, दलित या पिछड़ा मुख्यमंत्री बने तो किसी का नाम लेते। वे किसी का नाम तो ले नहीं रहे थे। सिर्फ़ सैद्धांतिक बात कर रहे थे। मैं ने अर्जुन सिंह को शिंदे की बात बताई तो वे बोले कि मैं ने अपनी राय रखी, मगर मैं लोकतंत्र में बहुमत की राय में बाधा भी नहीं बनना चाहता।
बहुमत मिलने के बाद दिग्विजय अर्जुन सिंह का आशीर्वाद लेने गए। अनमने और खिंचे मन से अर्जुन सिंह ने उन्हें बधाई दी। दिग्विजय शुक्ल-बंधु से भी आशीर्वाद लेने पहुंचे। बोले कि बीस साल पहले आप ही ने तो यह पौधा रोपा था, इसलिए इस मंज़िल तक मेरे पहुंचने से अगर आप ख़ुश नहीं रहेंगे तो मैं कैसे अपने दायित्व का निर्वाह करूंगा? चलते-चलते दिग्विजय ने श्यामाचरण शुक्ल से कहा कि वे उनके बेटे अमितेश को आगे बढ़ाने के लिए सब-कुछ करेंगे। इसके बाद दिग्विजय को प्रसन्नता का वरदान मिल गया।
दिसंबर महीने के पहले मंगलवार को दिग्विजय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। सिंह लग्न और पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में दिग्विजय का शपथ विधि समारोह हुआ। लोगों को लगता था कि दिग्विजय दो-ढाई साल के मेहमान हैं। लेकिन मुहूर्त निकालने वाले ज्योतिषी ने तब ही मुझ से कहा था कि दिग्विजय पूरे दस साल मध्यप्रदेश के अनवरत मुख्यमंत्री रहेंगे। ज्योतिषी यूं तो इंजीनियर थे, मगर ज्योतिष का उन्हें बेहद ज्ञान था। दिग्विजय के वे करीबी थे। बहुत इनेगिने लोगों को ही अपनी ज्योतिष विद्या के अध्ययन से नवाजते थे।
दूसरी बार जब दिग्विजय मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने भूपेश बघेल को अपना परिवहन मंत्री बनाया। फिर छत्तीसगढ़ में जोगी के मंत्रिमंडल में रहे। पांच बरस पहले भूपेश मुख्यमंत्री बन गए। इतना पुराना किस्सा मैं ने इसलिए सुनाया कि आप भूपेश के तजु़र्बों का अहसास कर सकें। यह ऐसे ही नहीं है कि ढाई साल से चला-चली की वेला में बैठे भूपेश अब तक नहीं हिले। अगले चुनाव के बाद भी उनकी ही वापसी की बातें ऐसे ही नहीं चलने लगी हैं!
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