किशोरवय के बच्चों की ज़िंदगी में ‘इंफ़ेच्युएशन’ और ‘लव’ के बीच के फ़र्क़ को समझने और उसे मैच्युरिटी से संभालने की दिशा में अपने इकोसिस्टम से सीखते समझते किरदारों की कहानी पर आधारित है ‘girls will be girls’। यह एक एक बेहद संवेदनशील और प्रभावशाली फ़िल्म है, जो मां-बेटी के जटिल और गहराई से भरे रिश्ते पर आधारित है।
हिंदुस्तानी समाज में सेक्स शब्द किसी टैबू से कम नहीं है। इस शब्द के किसी पब्लिक प्लेस या फिर घर की गैदरिंग में भी उच्चारण मात्र से ऐसा लगता है जैसे कोई बम फट जाता हो। ज़्यादातर लोग सेक्स के बारे में दबी ज़ुबान से फुसफुसाते भर हैं, वो भी क्लोज़्ड सर्कल में। ज़ाहिर है सेक्स एजुकेशन को लेकर कोई विचार विमर्श भी ठीक तरह से नहीं हो पाता है क्योंकि उसमें भी सेक्स शब्द विद्यमान है।
सिने-सोहबत
हमलोग ऐसे समाज में हैं जहां केमिस्ट के पास कंडोम या सैनिटरी पैड्स ख़रीद कर लेने पर उसे पुराने अख़बार या काली पॉलीथिन में छुपा कर, पैक करके देने की संस्कृति है। दिलचस्प है कि एक ही समय काल में, एक ही देश के अलग अलग हिस्सों में, समाज की अलग अलग परतें, वैल्यूज़, सोच, समझ वाले लोग एक साथ भी बसते हैं। बहरहाल, मौजूदा दौर के हिंदुस्तानी टीन एजर्स लड़के-लड़कियों ही नहीं, बल्कि बच्चों से भी उनके पेरेंट्स को सेक्स और सेक्स एजुकेशन को लेकर खुल कर बातचीत और विचार विमर्श की ज़रूरत है।
जब तक सेक्स और सेक्स एजुकेशन को एक गुप्त मुद्दा मानने की बजाय उसे जीवन शैली का हिस्सा बना कर उसका सामान्यीकरण नहीं होगा तब तक बच्चे और किशोर अपनी जिज्ञासाएं पूरी करने के लिए, मन में उठते अपने सवालों के जवाब के लिए इंटरनेट का सहारा लेंगे। हमें अच्छी तरह मालूम है कि इंटरनेट पर सूचनाओं की प्रामाणिकता कितनी संदिग्ध है। इंटरनेट से बच्चों को अधकचरा ज्ञान ही मिलता रहेगा और सूचना का ऑनलाइन समुद्र उनके मन का अंधेरा मिटाने की बजाए और घना करता जाएगा।
किशोरवय के बच्चों की ज़िंदगी में ‘इंफ़ेच्युएशन’ और ‘लव’ के बीच के फ़र्क़ को समझने और उसे मैच्युरिटी से संभालने की दिशा में अपने इकोसिस्टम से सीखते समझते किरदारों की कहानी पर आधारित है ‘girls will be girls’। यह एक एक बेहद संवेदनशील और प्रभावशाली फ़िल्म है, जो मां-बेटी के जटिल और गहराई से भरे रिश्ते पर आधारित है।
मां-बेटी के जटिल रिश्तों की कहानी, जो पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती है
‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’ शुचि तलाटी के निर्देशन में बनी है, जो उनके करियर की पहली फीचर फिल्म है। इंडो-फ्रेंच प्रोडक्शन के तहत सार्थक कलाकार रिचा चड्ढा और अली फ़ज़ल अब निर्माता के रूप में भी दस्तक दे चुके हैं। यह फ़िल्म उनके प्रोडक्शन हाउस “पुश बटन स्टूडियोज़” की तरफ़ से पहली प्रस्तुति है, जो इस बात का संकेत देती है कि एक्टर्स-प्रोड्यूसर्स और अब लाइफ पार्टनर्स की ये रचनात्मक जोड़ी साहसी और अर्थपूर्ण कहानियों में जान फूंक कर उन्हें रुपहले पर्दे पर ला सकने के सफ़र में अपना प्रोफ़ेशनल योगदान देने के लिए तैयार है। ‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’ का वर्ल्ड प्रीमियर इसी वर्ष सनडांस में हुआ था। उसके बाद इस फ़िल्म को कई अन्य अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले। इस फ़िल्म ने बतौर निर्माता इन दोनों के लिए कामयाबी का देसी झंडा भी तब गाड़ दिया जब इसे मुंबई के मामी फ़िल्म फेस्टिवल में चार अवॉर्ड मिल गए।
फ़िल्म की कहानी 1990 के दशक के भारत में सेट की गई है, जहां एक किशोर लड़की और उसकी मां के बीच के जटिल संबंधों की पड़ताल की गई है। फ़िल्म भारतीय परिवेश के पारंपरिक सामाजिक ढांचे और उसमें मौजूद पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देती है। यह मां और बेटी के व्यक्तिगत और आपसी संघर्षों के माध्यम से सेक्स एजुकेशन, किशोरावस्था की जिज्ञासा, और प्यार और आकर्षण के बीच के अंतर जैसे मुद्दों पर चर्चा करती है।
किशोरावस्था और सेक्स एजुकेशन पर सटीक और भावनात्मक नजरिया
शुचि तलाटी ने बेहद सरल लेकिन प्रभावशाली तरीके से कहानी को बुना है। 90 के दशक के भारतीय जीवन का चित्रण बहुत ही प्रामाणिक और वास्तविक है। संवाद और किरदार बेहद सजीव और पहचानने योग्य लगते हैं। मां-बेटी के बीच के पल कभी आपको हंसाएंगे तो कभी भावुक कर देंगे। फ़िल्म का एक प्रमुख पहलू यह है कि यह किशोरावस्था में सेक्स एजुकेशन के महत्व को उजागर करती है। इसमें दिखाया गया है कि किस तरह एक पीढ़ी की गलतफहमियां और संकोच, अगली पीढ़ी के लिए भ्रम पैदा कर सकती हैं।
मां के किरदार में कलाकार (कनी कुशरुति) ने बेहद मजबूत और भावनात्मक परफॉर्मेंस दी है। बेटी की भूमिका में एक उभरते हुए कलाकार, प्रीति पाणिग्रही ने किशोरावस्था की मासूमियत और विद्रोही स्वभाव को बखूबी निभाया है। दोनों के बीच का समीकरण फ़िल्म की आत्मा है। इन दोनों के अलावा केशव बिनॉय खेर ने बॉयफ्रेंड के किरदार में अपनी भूमिका बहुत बेहतर ढंग से निभाई है।
नवोदित लेखक-निर्देशक शुचि तलाटी की स्टोरीटेलिंग में सादगी, सरलता है और इम्पैक्ट सबका बेहद संतुलित पुट है। उन्होंने एक ऐसी कहानी चुनी है, जो जानी-पहचानी तो लगती है लेकिन उसमें ताज़गी और नई सोच है। उनका लेखन इस बात पर ज़ोर देता है कि हमें अपने समाज में सेक्स एजुकेशन और भावनात्मक जागरूकता को किस तरह और कितना महत्व देना चाहिए।
समाज को आईना दिखाती, 90 के दशक की संवेदनशील कहानी
फ़िल्म के सेट और प्रोडक्शन डिज़ाइन में 90 के दशक की झलक साफ़ दिखाई देती है। बैकग्राउंड म्यूज़िक कहानी की नैरेटिव को रोकने की बजाए बेहतर ढंग से उभारता है। सिनेमैटोग्राफी में सादगी है, जो कहानी के गहरे भावनात्मक पहलुओं को उभारने में मदद करती है। कुल मिलाकर इस फ़िल्म में कथ्य और शिल्प दोनों का संतुलित सामंजस्य है ।
‘girls will be girls’ सिर्फ मां-बेटी की कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज को आईना दिखाने वाली फ़िल्म है। यह फ़िल्म न केवल एक पीढ़ी की संवेदनाओं और दूसरी पीढ़ी की जिज्ञासाओं के बीच के अंतर को दिखाती है, बल्कि यह भी बताती है कि समझ और संवाद के जरिए इन दूरियों को कैसे मिटाया जा सकता है।
भारतीय समाज की तरह ही हिंदी फ़िल्म उद्योग भी सेक्स एजुकेशन से जुड़े विषयों पर सकारात्मक फ़िल्म बनाते रहने से कतराता रहा है, जिसकी एक बड़ी वजह बाज़ार का दबाव माना जा सकता है। बावजूद इसके पिछले साल इस दिशा में एक अहम क़दम उठता तब दिखा जब दर्शकों को ‘ओह माय गॉड-2’ देखने को मिली, जिसमें सेक्स एजुकेशन को कहानी का प्रमुख मुद्दा बनाया गया था। इस फ़िल्म के लेखक-निर्देशक अमित राय थे और इसमें अक्षय कुमार और पंकज त्रिपाठी ने अहम भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म ने यह बखूबी साबित किया था गंभीर मुद्दों पर भी मनोरंजक फ़िल्में बनाई जा सकती है, जिसका क़ारोबार भी उत्साहवर्धक हो।
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बहरहाल, ‘गर्ल्स विल बी गर्ल्स’ बेहद सादगी से दिल को छू लेने वाली कहानी के जरिए बेहद संवेदनशील संदेश देती है। प्राइम वीडियो पर है, देख लीजिएगा।
(पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और यूट्यूब पर चर्चित चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)