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एक देश एक चुनाव सत्ता का रास्ता नहीं बन सकता…?

भोपाल। नरेंद्र मोदी जी का नया शगूफा है, वे हमेशा कुछ बाजीगरी के तिकड़म के अनुसार गेली गेली करके जनता को भरमाते रहे हैं। पहले उनके टीवी पर आगमन के समय जैसे ही भाइयों और बहनों कहते थे लोग किसी अनिष्ट की आशंका से भर जाते थे। पर उनकी पार्टी के मीडिया सेल द्वारा आमजन की दहशत को देखते हुए उन्होंने अब नया मेरे देश के परिवारजनों से अपना भाषण शुरू करते हैं। विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए यानि इंडिया की बैठकों के बाद उनके सम्बोधन में यह परिवर्तन आया है।

वैसे बीजेपी और आरएसएस की युति हमेशा अपने लश्कर को समाज परिवर्तन के नाम पर हमेशा देवी-देवताओं के नाम पर स्थानीय आयोजनों में हमेशा घुसपैठ करते रहे हैं। वित्तीय साधनों और बजरंगी तत्वों के द्वारा । ढ़ोल धमाका और डीजे बाबू इनके मुख्य हथियार होते हैं। इनके ऐसे कार्यक्रमों में जय श्री राम का नारा बीच – बीच मे लगता रहता है, यह बताने के लिए कि वे किसके समर्थन में है। इस समय जब मणिपुर में ईसाई कुकी को हिन्दू मैतेई बहुसंख्यकों द्वारा प्रताडि़त किया जा रहा है और केंद्र सरकार वहां की बीजेपी की विरेन सिंह सरकार को बचाने में लगी हो ऐसे में दूसरे बीजेपी शासित हरियाणा में बजरंगियों और विश्व हिन्दू परिषद के लोगों द्वारा मुसलमानों के घर जलाने संपत्ति को हानि पहुंचाने के आयोजन में हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय द्वारा प्रशासन से दंगे में गिरफ्तार और नुकसान की रिपोर्ट के आदेश से सत्ता इतनी घबरा गयी कि उसने हाइकोर्ट की उस बेंच से यह मामला मुख्य न्यायाधिपति की बेंच में ट्रान्सफर कर दिया। अब यह साफ करता है कि सत्ता कितनी घबराहट में है।

कुछ ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट में मनीपुर के मामले में हुआ था, जब केंद्र सरकार हिल गयी थी। हिमांचल और कर्नाटक में विधानसभा चुनावो में सत्ताधारी पार्टी की करारी हार से मोदी शाह का आत्मविश्वास डगमगा गया है ! इसीलिए मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावो में इन दोनों नेताओं ने स्थानीय नेत्रत्व के स्थान पर केंद्र के अपने आजमाए हाथों को प्रदेश में तैनात कर दिया है। जिस शिवराज सिंह ने विगत चार चुनावों में पार्टी की सरकार बनाई आज वे भी संदेह के घेरे में है इसीलिए मोदी के छत्रप नरेंद्र सिंह तोमर को यहां की कमान दे दी है, जिन्होंने यह साफ कर दिया कि पार्टी का मुख्यमंत्री का चेहरा दिल्ली तय करेगा।

आज आलम यह है कि नरेंद्र मोदी ने जैसे वन मन आर्मी के रूप में विगत 9 नौ वर्षो से सरकार और पार्टी चला रहे थे। अब उस स्थिति में दरार आ गयी है। जिसका उदाहरण है कि लोग अब उन्हें न तो सिकंदर मान रहे है न ही चुनावी विजय के लिए मैसकाट। इस स्थिति ने उन्हंे एनडीए का सहारा लेने पर मजबूर किया। क्यूंकि केवल मोदी का नाम जमीन पर चुनाव नहीं जीता सकता है, यह सचाई इंडिया गठबंधन के बाद उभर कर आई है।

मोदी की चुनावी रणनीति

नरेंद्र मोदी की चुनावी रणनीति का प्रारम्भ निर्वाचन कार्यक्रम के पहले से ही शुरू हो जाती है। वे उस इलाके के संभावित विपक्षी उम्मीदवार की कमजोरी के साथ उसे बदनाम करने के मुद्दे भी खोजते हैं। अगर इतने पर भी उनके उम्मीदवार की विजय निश्चित न हो तब वे अपनी सरकारी एजेंसियों को उसके खिलाफ लगा देते हैं। वे यह सब गुजरात के मुख्यमंत्री के समय से करते आ रहे है। अपने विरोधियों को झूठे सच्चे मुकदमे में फंसा कर जेल भेज दिया जाता है। इस तथ्य के कई उदाहरण है। केंद्र में सरकार बनने के बाद भी उन्होंने यही कार्यक्रम जारी रखा। सभी विरोधी दलों के नेताओं को जो उनकी बंदरघुड़की से नहीं डरते उनको सीबीआई और ईडी के अफसरों के छापा झेलना पड़ता है। मोदी काल में यह उदाहरण बहुतायत देखने को मिला। अब बात करते है मोदी जी की चुनावी रणनीति की। पहले इलाके के बाहुबली को अपना उम्मीदवार बनाना, उन्हंे ना तो आरएसएस की आपतियों अथवा पार्टी की छवी की उन्हंे कोई परवाह नहीं होती। मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात में ना तो आरएसएस की सिफारिस चली ना ही बीजेपी हाईकमान की सिफ़ारिश चली। यहां तक की उन्होने पार्टी के संसदीय दल की लिस्ट को नकार कर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिया, बाद में पार्टी हाईकमान को अपनी लिस्ट वापस लेनी पड़ी थी।

अब आते है अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए उनकी तिकड़मों की। विपक्षी उम्मीदवार को बदनाम करने अथवा किसी आपराधिक मामले मे फंसा देने की कोशिश के बाद, वे मतदान केन्द्रों और ईवीएम को ठीक करने की तरकीब लगते है। वैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग तो उनकी निगाह की ओर देखता है। इसीलिए सिर्फ गैर बीजेपी दलों की गाडि़यों की तलाशी होती है। उनके ही लोग शांति भंग के लिए पकड़े जाते है। प्रधानमंत्री के हवाई जहाज की तलाशी लेने वाले आईएएस अफसर को तुरंत अपनी ड्यूटी करने के कारण हटा दिया गया। नियमत दलीय प्रचार के लिए आने वाले सभी वाहनों की जांच चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त आधिकारी कर सकते है। यह काले धन के निर्वाचन में उपयोग को रोकने के लिए होता है। इस संदर्भ में यह तथ्य याद रखने का है की बीजेपी को चुनवी बॉन्ड और औद्योगिक घरानों से चंदे के रूप में जितनी धन राशि मिली है वह कुल ऐसी राशि का आधा है। निर्वाचन आयोग का पक्षपात कहे या कुछ और की बीजेपी की गाडि़यों या उनके उम्मीदवारों से कोई भी काला धन नहीं बरामद हुआ। चुनावी दंगों में अपने कार्यकर्ता के मारे जाने का सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं! जैसे बेईमान के रूप में कोई राजनीतिक नेता के खिलाफ कितने ही मुक्दमे हो, परंतु जैसे ही वह बीजेपी में शामिल होता है। वैसे ही उसके खिलाफ चल रही कार्रवाई रुक जाती है। महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पँवार का मामला सामने है कल तक जिनके विरुद्ध सहकारी मिल बेचने के मामले में ईडी की जांच हो रही थी। उस एजेंसी ने चार्जशीट से उनका और उनकी पत्नी का नाम आरोपियों की लिस्ट से निकाल दिया है। यह है। मोदी जी की पार्टी में जाने का फायदा आपको जांच एजेंसियो की प्रताड़ना से मुक्ति, बस इसी का भय दिखा कर विरोधियों को तोड़ा जाता है।

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