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एक साथ चुनाव से सशक्त बनेगा देश

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सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हमेशा चलने वाले चुनावों पर विराम लग जाएगा। सरकारों का ध्यान विकास कार्यों की ओर होगा। आचार संहिता की वजह से विकास कार्य ठप्प नहीं होंगे। और सबसे ऊपर हर बार चुनाव में होने वाले बेहिसाब खर्चों पर लगाम लगेगी। चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों का चुनावों पर बेहिसाब खर्च होता है। एक साथ चुनाव से इन खर्चों में कटौती होगी। सुरक्षा बलों को भी लगातार इस राज्य से उस राज्य तक यात्रा करनी पड़ती है। आम लोगों का ध्यान भी चुनाव पर लगा रहता है। यह सब कुछ एक निर्णय से बदल जाएगा।

देश सचमुच बदल रहा है। न सिर्फ बदल रहा है, बल्कि शक्तिशाली हो रहा है। लोकतंत्र सशक्त हो रहा है। वैश्विक स्तर पर देश का मान बढ़ रहा है। देश में आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता आई है। अभी जिस समय देश संविधान अंगीकार करने के 75 साल पूरे होने का उत्सव मना रहा है, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक और ऐतिहासिक निर्णय किया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए बनाए गए दो विधेयक को मंजूरी दे दी है। संसद के शीतकालीन सत्र में इसके लिए सरकार दो विधेयक पेश करेगी। इनके जरिए संविधान के अनुच्छेद 82ए, 83, 172 और 327 में संशोधन का प्रस्ताव रखा जाएगा। इससे लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने और लोकसभा व सभी विधानसभाओं के कार्यकाल से जुड़े जरूरी बदलाव किए जाएंगे। केंद्र सरकार ने इससे पहले सितंबर में पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट मंजूर कर ली थी, जिसकी सिफारिशों के आधार पर ये विधेयक तैयार किए गए हैं।

श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने सभी संबंधित पक्षों के साथ विचार विमर्श किया था। उनकी समिति के सामने अनेक विपक्षी पार्टियों ने सारे चुनाव एक साथ कराने के प्रस्ताव का विरोध किया था, लेकिन ज्यादातर पार्टियां इस विचार के समर्थन में थीं। चुनाव आयोग और आम लोगों से भी समिति ने राय ली थी। इसके बावजूद सरकार अपने संपूर्ण बहुमत के दम पर एकतरफा तरीके से इन विधेयकों को नहीं पास कराने जा रही है। सरकार इस मामले में आम राय बनाने का प्रयास कर रही है। इसलिए संविधान संशोधन के विधेयक पेश करने के बाद उसे संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी को भेजा जा सकता है, जहां सभी पार्टियों के सांसद इस पर विचार करेंगे। यह समिति सभी संबंधित पक्षों से सलाह मशविरा करेगी और आम लोगों की राय भी लेगी। उसके बाद सहमति बना कर इसे पास कराया जाएगा। वैसे सरकार जब चाहती तब इसे पास करा सकती थी क्योंकि ये साधारण संशोधन हैं, जिनके लिए संसद में साधारण बहुमत की जरुरत है और राज्यों की विधानसभा से मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी सरकार आम सहमति का रास्ता अपनाएगी।

जिस समय श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति बनाई गई थी तभी से इसे लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। विपक्ष पूछ रहा है कि इसका क्रियान्वयन कैसे होगा? अगर 2029 के लोकसभा चुनाव के साथ सभी राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव कराने हैं तो अगले चार साल में होने वाले विधानसभा चुनावों का क्या होगा? यह भी पूछा जा रहा है कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं का कार्यकाल तय कर दिया जाएगा तो बीच में सरकार ने बहुमत गंवाया या सरकार गिरी तब क्या होगा? क्या वहां राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा और अगले लोकसभा चुनाव के साथ ही वहां चुनाव होगा? वैसे इन सभी सवालों का जवाब सरकार की ओर से प्रस्तावित विधेयक में मिल जाएगा। परंतु अगर राजनीतिक पूर्वाग्रह छोड़ दें तो इन सवालों के जवाब बहुत मुश्किल नहीं हैं। कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ा कर और कुछ के कार्यकाल घटा कर सभी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराए जा सकते हैं।

जहां तक बीच में सरकार गिरने का सवाल है तो पिछले काफी समय से मध्यावधि चुनाव का चलन समाप्त हो गया है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से दिल्ली के एक अपवाद को छोड़ दें तो किसी राज्य में मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आई है। यह लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रतीक है। फिर भी इस संभावना को देखते हुए सकारात्मक अविश्वास प्रस्ताव का प्रावधान किया जा सकता है। यानी सरकार गिरने के साथ ही नई सरकार बनाने का प्रस्ताव भी रखा जाए। इसके बावजूद अगर कहीं सरकार गिरती है और नई सरकार नहीं बनती है तो वहां बचे हुए कार्यकाल के लिए चुनाव कराया जा सकता है। अगर इतने बड़े ऐतिहासिक निर्णय पर अमल करना है तो छोटे छोटे कुछ अपवाद बनाने होंगे।

विपक्ष की ओर से पहले दिन से इस प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है। विपक्ष का विरोध सिर्फ इस कारण से है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसका प्रस्ताव किया है। विपक्ष को सरकार के हर प्रस्ताव और हर अच्छी पहल का विरोध करना है इसलिए वह विरोध कर रही है। विरोध में विपक्ष की ओर से ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं, जिनसे खुद ही विपक्षी पार्टियां कठघरे में खड़ी होती हैं। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां लोकसभा के साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव को लोकतंत्र विरोधी बता रही हैं। प्रश्न है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना लोकतंत्र विरोधी कैसे है और अगर यह लोकतंत्र विरोधी है तो स्वतंत्रता के बाद करीब 20 साल तक चार लोकसभा चुनाव और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कैसे हुए?

क्या देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के दूसरे नेता लोकतंत्र विरोधी कार्य कर रहे थे? ध्यान रहे आजादी के बाद 1952 में हुए पहले चुनाव से लेकर 1967 के चौथे चुनाव तक देश के सारे चुनाव एक साथ होते थे। उस समय भी अगर कांग्रेस पार्टी ने अपनी संविधान विरोधी सोच में गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को बरखास्त करना नहीं शुरू किया होता तो आगे भी एक साथ चुनाव की प्रक्रिया चलती रहती। लेकिन कांग्रेस को बरदाश्त नहीं हुआ कि राज्यों में उसको हरा कर गैर कांग्रेसी सरकारें कैसे बन गई हैं। सो, उसने अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके उन सरकारों को बरखास्त किया, जिसकी वजह से एक साथ चुनाव का चक्र टूट गया। उसके बाद गठबंधन की राजनीति के दौर में केंद्र में और राज्यों में भी एक के बाद एक मध्यावधि चुनाव हुए। कहने की जरुरत नहीं है कि नब्बे के दशक का वह दौर देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था के लिए सबसे खराब दौर रहा।

देश उस दौर से निकल आया है। अब राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता है और देश प्रगति के रास्ते पर अग्रसर है। इसलिए अब उससे और आगे बढ़ने की जरुरत है। देश की अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र की मजबूती के लिए अगला चरण सभी चुनाव एक साथ कराने का है। ध्यान रहे भारत में चुनावों का ऐसा चक्र बना हुआ है कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते हैं। इस साल लोकसभा चुनाव के साथ चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए और उसके बाद छह महीने में चार और राज्यों के चुनाव हो चुके हैं। अगले साल यानी 2025 में दो राज्यों के चुनाव हैं। उसके अगले साल 2026 में छह राज्यों के चुनाव हैं। उसके अगले साल भी छह राज्यों के चुनाव होने हैं।

इसी तरह साल दर साल चुनाव चलते रहते हैं और चुनाव भले किसी छोटे राज्य का हो लेकिन उस पर राष्ट्रीय दृष्टि लगी रहती है। लोग भी उसमें व्यस्त रहते हैं और विकास के कामकाज या तो ठप्प रहते हैं या उनकी रफ्तार धीमी हो जाती है। राजनीतिक दल संगठनात्मक कार्यों और आम नागरिकों का राजनीतिक, सामाजिक प्रशिक्षण करने की बजाय चुनावों में व्यस्त रहते हैं तो सरकारें सकारात्मक व टिकाऊ विकास के कार्यों की बजाय लोक लुभावन कार्यों में व्यस्त रहती हैं। एक साथ चुनावों के जरिए हर समय चलने वाले चुनावों पर विराम लगाया जा सकेगा और सरकारें टिकाऊ विकास के प्रति ज्यादा समर्पण के साथ काम कर सकेंगी। सरकार जो विधेयक ला रही है उसके मुताबिक लोकसभा के साथ सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे और उसके एक सौ दिन के अंदर सभी स्थानीय निकायों के चुनाव हो जाएंगे।

इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हमेशा चलने वाले चुनावों पर विराम लग जाएगा। सरकारों का ध्यान विकास कार्यों की ओर होगा। आचार संहिता की वजह से विकास कार्य ठप्प नहीं होंगे। और सबसे ऊपर हर बार चुनाव में होने वाले बेहिसाब खर्चों पर लगाम लगेगी। चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दलों का चुनावों पर बेहिसाब खर्च होता है। एक साथ चुनाव से इन खर्चों में कटौती होगी। सुरक्षा बलों को भी लगातार इस राज्य से उस राज्य तक यात्रा करनी पड़ती है। आम लोगों का ध्यान भी चुनाव पर लगा रहता है। यह सब कुछ एक निर्णय से बदल जाएगा। तभी एक साथ चुनाव कराने का निर्णय ऐतिहासिक है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2014 के बाद से देश बदलने वाले जो ऐतिहासिक निर्णय किए हैं यह भी उसी कड़ी का एक महान निर्णय है। इस निर्णय को 2017 में ‘एक देश, एक कर’ यानी वस्तु व सेवा कर, जीएसटी की व्यवस्था लागू करने और 2019 में अनुच्छेद 370 व 35ए को समाप्त कर जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने की श्रेणी में रखा जा सकता है। यह देश की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने वाला निर्णय है। सभी पार्टियों, नेताओं, सामाजिक संगठनों और जागरूक नागरिकों को अपने पूर्वाग्रह छोड़ कर इस निर्णय का समर्थन करना चाहिए। इससे देश की अर्थव्यवस्था में भी स्थिरता आएगी और देश विकास की नई ऊंचाइयों को हासिल करेगा।    (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)

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