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जम्मू-कश्मीर में किन मुद्दों पर चुनाव?

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अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। यह लोग जब दिल्ली में होते है, तब ‘सेकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात करते हुए एकाएक भावुक हो जाते है। किंतु घाटी लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता के प्रति घृणा, तो बहुलतावाद-लोकंतत्र विरोधी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सहानुभूति दिखती है।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव 18 सितंबर से लेकर एक अक्टूबर के बीच तीन चरणों में संपन्न होंगे। चुनाव का मुद्दा क्या है? क्या कश्मीर वर्ष 2019 से पहले के उस कालखंड में लौटे, जब क्षेत्र में सभी आर्थिक गतिविधियां बंद थी, विकास कार्यों पर लगभग अघोषित प्रतिबंध था, सेना-पुलिसबलों पर लगातार पत्थरबाजी होती थी, गाए-बगाए अलगाववादियों द्वारा बंद बुला लिया जाता था और वातावरण ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे भारत विरोधी नारों से दूषित होता रहता था? या फिर इस केंद्र शासित प्रदेश में बीते पांच वर्षों की भांति वैसी विकास की धारा बहती रहे, जिसके कारण कश्मीर तुलमात्मक रूप से शांत है, देश के शेष हिस्सों की तरह संविधान-कानून का इकबाल है और बहुलतावादी संस्कृति के साथ समरसता से युक्त वातावरण है?

यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि इस चुनाव में जम्मू-कश्मीर के बड़े क्षत्रप दल नेशनल कॉन्फ्रेंस ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है, जिसका घोषणापत्र मतदाताओं से वादा करता है कि सत्ता में लौटने पर उस जहरीली धारा 370-35ए को भारतीय संविधान में बहाल करेंगे, जिसके सक्रिय रहते (अगस्त 2019 से पहले) पूरा सूबा अंधकार में था, पर्यटक आने से कतराते थे, सिनेमाघरों पर ताला लगा हुआ था, मजहब केंद्रित आतंकवाद, पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद का वर्चस्व था और शेष देश की भांति दलित-वंचितों के साथ आदिवासियों को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों (आरक्षण सहित) पर डाका था।

धारा 370-35ए के संवैधानिक परिमार्जन के बाद जम्मू-कश्मीर पिछले पांच वर्षों से गुलजार हो रहा है। तिरंगामयी हो चुके श्रीनगर स्थित लालचौक की रौनक देखते ही बनती है। पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। तीन दशक से अधिक के लंबे फासले के बाद नए-पुराने सिनेमाघर संचालित हो रहे हैं। देर रात तक लोग प्रसिद्ध शिकारा की सवारी का आनंद ले रहे हैं। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय भी सुचारू रूप से चल रहे हैं। दुकानें भी लंबे समय तक खुली रहती हैं। स्थानीय लोगों का जीवनस्तर सुधर रहा है। जिहादी दंश झेलने के बाद वर्षों पहले घाटी छोड़कर गए कश्मीरी पंडित धीरे-धीरे लौटने लगे है।

बदली परिस्थिति में जी-20 सम्मेलन हो चुका है, तो फिल्म निर्माता-निर्देशक घाटी की ओर फिर से आकर्षित होने लगे है। जम्मू-कश्मीर की नई औद्योगिक नीति के अंतर्गत, देश-विदेश से लगभग सवा लाख करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आ चुके हैं, जिससे प्रदेश में 4।69 लाख रोजगार पैदा होने का अनुमान है। यहां तक, गत वर्ष कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी श्रीनगर में तिरंगे के साथ अपनी महत्वकांशी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का समापन कर चुके है। अगस्त 2019 से पहले क्या स्थिति थी, यह पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे के हालिया वक्तव्य से स्पष्ट है।

जम्मू-कश्मीर का एक वर्ग पाकिस्तानी मानसिकता से ग्रस्त है। चूंकि पाकिस्तान किसी देश का नाम न होकर स्वयं में एक विचारधारा है और ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा पाता है, इसलिए घाटी के कुछ नेता इसी चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हुए क्षेत्र को पुराने, मजहबी, अराजकवादी और मध्यकालीन दौर में लौटाना चाहते है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी भी घाटी में इसी विभाजनकारी मानस के प्रमुख झंडाबरदार है। जातिगत जनगणना की हिमायती कांग्रेस का गठबंधन उसी नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ है, जिसने अपने चुनावी घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर में सभी आरक्षणों की ‘समीक्षा’ करने की भी बात कही है। यह वादा क्षेत्र में वाल्मिकी-आदिवासी समाज के साथ मुस्लिम गुज्जर और बकरवालों के अधिकारों पर कुठाराघात करता है। यही नहीं, नेशनल कॉन्फ्रेंस फिर से अलगाववाद से प्रेरित ‘स्वायत्तता’ की बात कर रहा है। उनके घोषणापत्र में उन कैदियों को रिहा करने का वादा किया गया है, जो आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के शामिल होने के कारण जेल में बंद है। साथ ही उसमें श्रीनगर के प्रसिद्ध शंकराचार्य पर्वत को ‘तख्त-ए-सुलेमान’ और हरि पर्वत किले को ‘कोह-ए-मरान’ के रूप में संदर्भित किया गया है।

जम्मू-कश्मीर में प्रमुख क्षत्रपों के अतिरिक्त सज्जाद लोन की ‘पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ और अल्ताफ बुखारी की ‘जेके अपनी पार्टी’ के साथ जेल में बंद अलगाववादी शेख अब्दुल राशिद (राशिद इंजीनियर) की ‘अवामी इत्तेहाद पार्टी’ भी चुनावी मैदान में है। जब से राशिद इंजीनियर ने इस वर्ष बारामूला की लोकसभा सीट से नेशनल कॉन्फ्रेंस के शीर्ष नेता और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बुरी तरह परास्त किया है, तब से आशंका जताई जा रही हैं कि राशिद एक प्रभावशाली ताकत बनकर उभर सकते है, जो क्षेत्र के साथ शेष देश के लिए चिंता का विषय हो सकता है।

लोकसभा चुनाव में उमर की करारी हार ने घाटी में अधिकांश सीटें जीतकर वापसी की उम्मीद कर रही नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थिति को धुंधला किया है। इसी हताशा और अवसरवाद की खोज में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया है, जो गुलाम नबी आजाद द्वारा अगस्त 2022 में पार्टी छोड़ने के बाद लगभग कमजोर हो चुकी है। बात यदि पीडीपी की करें, तो उसकी शीर्ष नेत्री और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को भी अनंतनाग-राजौरी संसदीय सीट पर हार का मुंह देखना पड़ा था। उमर और महबूबा की हार से स्पष्ट है कि घाटी के लोग परिवारवादियों से मुक्ति चाहते है। राष्ट्रीय दल के रूप में भाजपा एक बड़ी पार्टी है, जिसका 43 विधानसभा सीटों वाले जम्मू क्षेत्र में मजबूत आधार है।

अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवारों का दोहरा मापदंड किसी से छिपा नहीं है। यह लोग जब दिल्ली में होते है, तब ‘सेकुलरवाद’, एकता, शांति, भाईचारे की बात करते हुए एकाएक भावुक हो जाते है। किंतु घाटी लौटते ही उनके भाषणों/वक्तव्यों में भारतीय एकता-अखंडता के प्रति घृणा, तो बहुलतावाद-लोकंतत्र विरोधी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सहानुभूति दिखती है। सच तो यह है कि घाटी में बसे दो प्रकार के वर्ग— भारत-हितैषी और भारत-विरोधी, इन राजनीतिक परिवारों की असलियत जान चुके है और इनसे छुटकारा पाना चाहते है।

यह कहना तो कठिन है कि घाटी की जनता किस ओर जाएगी। इसका खुलासा 8 अक्टूबर को ईवीएम आधारित मतगणना के बाद हो जाएगा। परंतु इतना स्पष्ट कहा जा सकता है कि यदि प्रदेश को इसी तरह विकास के पथ पर चलना है और अलगाववादी-सांप्रदायिक-अराजक तत्वों से छुटाकारा पाना है, तो उन्हें संकीर्ण और मध्यकालीन मजहबी मानसिकता से ऊपर से उठकर सोचना होगा।

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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