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शिक्षा पर सार्थक फिल्मों की जरुरत

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राजनीतिक घटनाक्रमों और राजनेताओं पर हमेशा फ़िल्में बनती रहीं हैं। जब जिस विचारधारा का ज़्यादा प्रभाव रहता है, उसके पक्ष की कहानियां प्रमुखता पातीं हैं और विपक्ष के क़िस्सों को अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है। कुछ फ़िल्में ऐसी भी होती हैं जो दलगत विचारधारा से आगे निकल कर समाज में एक सकारात्मक भूमिका निभाने का काम करती हैं। ऐसे मामलों में ही सिनेमा एक माध्यम के रूप में बेहद सार्थक भूमिका निभाता है। ‘सिने-सोहबत’ में आज की फ़िल्म है ‘दसवीं’, जिसके  निर्देशक हैं तुषार जलोटा। ये उनकी निर्देशित पहली फ़िल्म थी। इस फिल्म के लेखक हैं रितेश शाह, सुरेश नायर और संदीप लेज़ल। मुख्य किरदार की भूमिका में अभिषेक बच्चन ख़ूब जमे हैं। साथ ही निम्रत कौर और यामी गौतम ने भी अपने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया है। ‘दसवीं’ के निर्माता हैं दिनेश विजन, शोभना यादव और संदीप लेज़ल। इस फिल्म का जिक्र इसलिए क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में कोई फिल्म कैसे सार्थक हस्तक्षेप कर सकती है, उसके बारे में यह फिल्म बताती है और इस जरुरत को भी रेखांकित करती है कि शिक्षा पर सार्थक फिल्में बननी चाहिए।

बहरहाल, ‘दसवीं एक दिलचस्प और मनोरंजक फिल्म है, जिसमें शिक्षा और सामाजिक सुधार का संदेश मज़ेदार तरीके से पेश किया गया है। हरियाणा के भ्रष्ट नेता गंगा राम चौधरी (अभिषेक बच्चन) को जेल भेजा जाता है, लेकिन नेता जी वहां की जेलर ज्योति देसवाल (यामी गौतम) के साथ झगड़े के बाद दसवीं कक्षा पास करने का फैसला करते हैं। इस सफ़र में गंगा राम के किरदार का गहराई से विकास होता है। अभिषेक बच्चन ने इस फ़िल्म में अपने करियर का सबसे बेहतरीन काम किया है। निम्रत कौर, जो गंगा राम की पत्नी बिमला का किरदार निभा रही हैं, ने एक मजबूत और अनोखे अवतार में अपनी अदाकारी दिखाई। बिमला का अपने पति की गैरमौजूदगी में राजनीति की कमान संभालना कहानी में एक नया मोड़ लाता है। यामी गौतम ने जेलर के रूप में दमदार अभिनय किया है। उनका किरदार सख्त और प्रेरक है, जो गंगा राम के लिए चुनौती खड़ी करता है। संगीत (सचिन-जिगर) और डायलॉग्स (संदीप लेज़ल) कहानी को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां जनप्रतिनिधि करोड़ों लोगों की जीवनशैली, नीति, और भविष्य को प्रभावित करते हैं, वहां शिक्षा का महत्व असीमित है। एक शिक्षित राजनेता न केवल समझदारी और विवेकपूर्ण निर्णय ले सकता है, बल्कि वह अपने क्षेत्र के लोगों को भी प्रेरित कर सकता है। शिक्षित राजनेता सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मुद्दों को गहराई से समझते हैं। इससे वे नीतियां बनाते समय दीर्घकालिक परिणामों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। शिक्षा यह सिखाती है कि भावनात्मक मुद्दों की बजाय तर्क और डेटा पर ध्यान दिया जाए।

शिक्षित नेता प्रोपेगैंडा से बचकर तथ्यों के आधार पर निर्णय लेते हैं। जब नेता खुद शिक्षित होते हैं, तो वे समाज में शिक्षा के महत्व को स्थापित करने के लिए उदाहरण बनते हैं। इससे समाज के विकास में मदद मिलती है। शिक्षित नेता अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते समय बेहतर संवाद और समझ का प्रदर्शन कर सकते हैं। शिक्षित राजनेता सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का विश्लेषण बेहतर तरीके से कर सकते हैं और उनके प्रभावी समाधान ढूंढ सकते हैं। शिक्षा केवल ज्ञान नहीं देती, यह नैतिकता और चरित्र भी बनाती है। फ़िल्म ‘दसवीं’ दर्शकों का ध्यान इस ओर भी खींचती है कि शिक्षा की मदद से अच्छे राजनेता कैसे तैयार किए जा सकते हैं?

भारत में चुनाव जीतने के लिए शिक्षा से ज्यादा जाति, धर्म और पैसे की प्रभावी भूमिका रहती है। इससे कई बार कम शिक्षित या अपरिपक्व नेता भी सत्तासीन हो जाते हैं। राजनीतिक उम्मीदवारों के लिए एक न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय होनी चाहिए। युवाओं को राजनीति में लाने के लिए शिक्षा और राजनीतिक प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए। शिक्षा को सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता से जोड़ा जाए। शिक्षा केवल एक औपचारिक योग्यता नहीं है, बल्कि यह राजनेताओं की क्षमता और चरित्र को गढ़ने का आधार है। शिक्षित नेता न केवल बेहतर निर्णय लेते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में भी सक्षम होते हैं। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षित और नैतिक नेतृत्व अनिवार्य है।

राजनीति और शिक्षा जैसे गहरे विषयों पर बनी फिल्में न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि जनता को जागरूक और प्रेरित भी करती हैं। राजनीति में शिक्षा के महत्व को लेकर भारत और विदेशों में कई फिल्में बनी हैं। इन फिल्मों की तुलना करने पर हम विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण देख सकते हैं। ‘दसवीं’ के अलावा अन्य फ़िल्मों में भी शिक्षा और राजनीति का चित्रण बखूबी हुआ है। 2001 में एक फ़िल्म आई थी, ‘नायक’, जिसमें एक पत्रकार शिवाजी राव, एक दिन के मुख्यमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ता है। उस फ़िल्म का मुद्दा ही यही कि कुशल और जागरूक नेतृत्व के लिए शिक्षा और नैतिकता की कितनी आवश्यकता होती है।

कुछ बेहद दिलचस्प और ज़रूरी अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में भी शिक्षा और राजनीति में शिक्षा की आवश्यकता का चित्रण बखूबी किया गया है। उदाहरणा के लिए, अमेरिका में बनी फिल्म ‘द ग्रेट डिबेट्स’ (2007) में 1930 के दशक में अश्वेत छात्रों की एक डिबेट टीम को राजनीति और सामाजिक अन्याय के खिलाफ तर्क करना सिखाया जाता है। इस फ़िल्म का विषय था शिक्षा, तर्कशक्ति और सामाजिक बदलाव में नेतृत्व की भूमिका। इस फ़िल्म का संदेश ये है कि शिक्षा न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी परिवर्तन का माध्यम है। इसी तरह की एक और ज़रूरी फ़िल्म 2009 में दक्षिण अफ्रीका में बनी थी, ‘इन्विक्टस’। इस फ़िल्म की कहानी नेल्सन मंडेला की ज़िंदगी पर आधारित है, जहां मंडेला शिक्षा और खेल का उपयोग राष्ट्र को एकजुट करने के लिए करते हैं। साथ ही इस फ़िल्म में शिक्षा का इस्तेमाल सामाजिक और राजनीतिक सुधार के लिए किया गया है। फ़िल्म यह संदेश देती है कि एक शिक्षित नेता समाज में विभाजन खत्म कर सकता है और विकास की राह पर ले जा सकता है।

भारतीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में राजनीति में शिक्षा के महत्व को अलग-अलग दृष्टिकोण से दिखाया गया है। हालांकि, दोनों प्रकार की फिल्में इस बात पर सहमत हैं कि शिक्षित नेता न केवल बेहतर प्रशासन करते हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में भी सक्षम होते हैं। निर्देशक तुषार जलोटा ने पहली फिल्म में ही एक सामाजिक संदेश को मनोरंजन के साथ जोड़ा है। हालांकि, कहानी कुछ हिस्सों में प्रेडिक्टेबल लगती है, लेकिन कलाकारों की परफॉर्मेंस इसे संभाल लेती है। फ़िल्म का अंत, जहां गंगा राम मुख्यमंत्री से शिक्षा मंत्री बनते हैं, एक प्रेरणादायक नोट पर समाप्त होता है। यह निश्चित रूप से एक सीक्वल की गुंजाइश देता है, जिसमें शायद गंगा राम चौधरी शिक्षा के सुधार में अपनी नई भूमिका को निभाते हुए दिख सकते हैं।

‘दसवीं’ एक हल्की-फुल्की फ़िल्म है जो मनोरंजन के साथ-साथ राजनेताओं के लिए शिक्षा का महत्व समझाती है। ‘दसवीं’ का एक बड़ा सामाजिक असर ये दिखा है कि इस फ़िल्म के आने के बाद आगरा सेंट्रल जेल में सज़ा काट रहे क़ैदियों में से 12 ने दसवीं पास भी कर ली। इस फ़िल्म का आगरा सेंट्रल जेल से गहरा रिश्ता है। फ़िल्म में जेल के अंदर के सारे सीक्वेंस आगरा सेंट्रल जेल में ही शूट किए गए थे और जब फ़िल्म बन कर तैयार हुई तो इसकी पहली स्क्रीनिंग भी यहीं हुई थी। ‘मैडॉक फ़िल्म्स’ और ‘बेक माय केक फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी ये फ़िल्म ‘जियो सिनेमा’ के साथ साथ ‘नेटफ़्लिक्स’ पर भी है। देख लीजिएगा।

(पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़” के होस्ट हैं।)

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