पूत के पांव भी पालने में ही दिख जाते हैं, सपूत के पांव भी और कपूत के पांव भी। कहते हैं कि पूत सपूत तो का धन संचय और पूत कपूत तो का धन संचय। अब कौन पूत है, कौन सपूत और कौन कपूत – यह तो आप तय करिए, मैं तो आप को इतना ही आगाह कर सकता हूं कि हमारे लोकतंत्र पर ये पांच साल, पिछले दस साल से भी, ज़्यादा भारी पड़ने वाले हैं। ये पांच बरस भारत के सियासी महाभारत की लड़ाई का अठारहवां दिन साबित होंगे। इस के संकेत अठारहवीं लोकसभा की शुरुआत होते ही मिल गए हैं।
दस साल से तमाम अवहेलना, अवमानना और अपमान झेल रहा विपक्ष 2024 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की मांसपेशियां ढीली पड़ने के बाद यह आस लगाने लगा था कि ख़ासी झुलस चुकी मोशा-रस्सी की ऐंठन भी अब ढीली पड़ेगी। सौ पर पहुंची कांग्रेस और 235 पर पहुंचे विपक्ष को आसरा बंधा था कि 240 पर लुढ़की भाजपा और 293 पर थम गया सत्ता पक्ष अब बा-मुरव्वत रुख अपनाना आरंभ करेगा और आने वाले दिन उस तरह की दो-फाड़ राजनीति के नहीं होंगे, जो मुल्क़ ने 2014 से 2024 के बीच देखे हैं। विपक्ष को लग रहा था कि संसद से सड़क तक की सियासत से अब कलौंछ आहिस्ता-आहिस्ता विदा लेने लगेगी और राहें गुलगूं होती जाएंगी।
मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से विपक्ष ने, लगता है, ज़रा ज़्यादा ही आरज़ू पाल ली थी। उन के आकलन में वह एक बार फिर गच्चा खा गया। उसे यह अंदाज़ ही नहीं था कि कोई भी चुनाव परिणाम उस फोंगली का निर्माण कर ही नहीं सकता, जो मौजूदा हुकू़मत की दुम को सीधा कर दे। पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में 63 की जगह अगर भाजपा की 163 सीटें भी कम हो जातीं तो भी मोशा के नेतृत्व का जलवा उस में यह ताब बनाए रखने को काफी था कि वह अपना भाला ले कर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की पायदान से चौगुनी छलांग लगा कर ‘विपक्ष मुक्त भारत’ के सोपान पर सवार हो जाए।
वही हुआ। संविधान को सीने से लगाए लोकसभा सदस्यता की शपथ लेने की पहलकदमी करने वाली कांग्रेस को, नरेंद्र भाई की तरफ़ से, स्पीकर ओम बिरला ने सदन में पहला काम ही आपातकाल के फड़तूस ज़िक्र का थप्पड़ जड़ने से किया और जब लगा कि निशान विपक्ष के गाल पर ठीक से उभरा नहीं हैं तो महामहिम राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू जी ने भी अपने अभिभाषण में आपातकाल का हाकाकार मचा दिया। 49 बरस पुराने जिस आपातकाल के लिए देश के तीन-तीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री – इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह – माफ़ी मांग चुके, उसे, कभी किसी ग़लती पर अफ़सोस ज़ाहिर नहीं करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने, पूरे खुर्रांटपन के साथ अपना पलटवार बना लिया।
सो, आर-पार के संग्राम का आमुख अब लिपिबद्ध हो गया है। पांच साल के बाकी सभी अध्यायों के लेखन का आधार यही अवतरणिका होगी। लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव को अंततः सर्वसम्मति में तब्दील कर देने की विपक्षी सदाशयता से उपजने वाली संभावित सकारात्मकता के परखच्चे 18वीं लोकसभा की शुरुआत होने के घंटे भर के भीतर ही उड़ गए। कोई माने-न-माने, संविधान हाथ में ले कर संसद में प्रवेश के दृश्य की प्रतीकात्मकता का जवाब देने के लिए संवैधानिक सिंहासनों पर बैठी हस्तियों को जिस तरह शासनाधीशों ने अपना ज़रिया बनाया, वह हर लिहाज़ से भद्देपन के दायरे में आता है। अठारहवीं लोकसभा का यह कुत्सित पन्ना, जब भी होगा, इतिहास में कलूटाक्षरों में ही दर्ज़ होगा।
अपने लिए आगे का रास्ता बेहद पथरीला बनाने के बीज नरेंद्र भाई ने सियासी जंगल में ख़ुद ही बिखेर दिए हैं। अपनी तीसरी पारी की नींव में बसी लुंजपुंजता की परवाह किए बिना वे पहले से भी ज़्यादा ठसक के साथ ऐरावत पर चढ़ गए हैं। मुझे उन के चिरंतन ग़ुरूर के पीछे से झांक रही ताज़ा अहंकृति सचमुच चिंतित कर रही है। रामलला न करें, लेकिन अगर उन का दर्प नहीं पिघला तो उस के लावे में वे स्वयं भी कब तक अपने को महफ़ूज़ रख पाएंगे – कौन जाने! पांच बरस का अपना कार्यकाल पूरा करने में यह मग़रूरी ही उन के लिए सब से बड़ा अड़ंगा बनेगी। सहयोगियों को तो छोड़िए, इस बार अपने सहोदरों को भी साथ बनाए रखना नरेंद्र भाई के लिए ख़ाला जी का खेल साबित नहीं होने वाला है।
लेकिन राहुल गांधी के लिए भी राह कम ऊबड़खाबड़ नहीं रहने वाली है। विपक्ष के नेता के नाते उन की ज़िम्मेदारियां पहले से दस गुनी बढ़ गई हैं। उन की जवाबदेही अब बीस गुनी हो गई है। संसदीय फ़लक के प्रबंधन का कौशल उन्हें दिखाना है। विपक्ष के आक्रामक तेवरों के साथ ही संसदीय संज़ीदगी का निर्वाह भी उन्हें करना है। सदन में हर मुद्दे पर उन की मुस्तैदी का भी देश बारीकी से तखमीना करेगा। मल्लिकार्जुन खड़गे भले ही अध्यक्ष हैं, मगर कांग्रेस के पार्टी-संगठन को भी राहुल को बहुत महीन छलनी से छानना होगा। उन के ‘हाथ’ की नसें काटने वाली कैंचियों की कमी तो वैसे भी कभी नहीं रही। अब तो अपने घर-दफ़्तर की हर दीवार पर मौजूद कर्तनियों से चौकस रहने में राहुल ने ज़रा भी कोताही की तो वे ऐसे रपटेंगे, ऐसे रपटेंगे कि नरेंद्र भाई की बांछें खिल जाएंगी।
मैं इसलिए आशंकित हूं कि विपक्ष का नेता बनते ही राहुल को तोहमत-कक्ष के हवाले करने के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। मैं नहीं जानता कि सैम पित्रोदा को फिर से इंडियन ओवरसीज़ कांग्रेस का अध्यक्ष बना देने का फ़ैसला राहुल की जानकारी में हुआ या उन्हें बताए बिना, मगर यह उसी दिन करना क्यों ज़रूरी था, जिस दिन राहुल लोकसभा में विपक्ष के नेता नियुक्त हुए? पित्रोदा अगर 48 दिन से इस पद के बिना सही-सलामत थे तो उन की पुनर्नियुक्ति के लिए दस-बीस दिन और इंतज़ार कर लेने में क्या बिगड़ रहा था? और, 82 बरस के पित्रोदा ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे कि ओवरसीज़ कांग्रेस के किसी और मुखिया का ईमानदारी से मार्गदर्शन करते रहते? पित्रोदा-प्रसंग में कोई कुछ देखे-न-देखे, मुझे उस में कुछ छींटे नज़र आ रहे हैं। राहुल अगर ऐसे फ़ैसलों से बच कर चलेंगे तो पुण्य कमाएंगे। नहीं तो उन के अगलिए-बगलिए पहले की ही तरह ‘आज के आनंद की जय’ बोलते रहेंगे और राहुल के पाप की गठरी भारी करते रहेंगे।
राहुल के व्यक्तित्व में वे तमाम घटक मौजूद हैं, जो उन्हें विपक्ष का एक विलक्षण और अभूतपूर्व नायक बना सकते हैं। उन में जो दृढ़ता है, जो अविचलन है, जो संकल्प-शक्ति है, जो अडिगता है, जो स्थिरचित्तता है, जो स्थायिता है और जो पारदर्शिता है – वह आज के दौर में अद्भुत और अलभ्य है। उन का विनत-भाव इस सब को और चमचम कर देता है। दूर-दूर से देख कर मुझे यह लगता है कि राहुल जब-जब अपने फ़ैसले अपने आप लेते हैं, सरस्वती-पुत्र साबित होते हैं। मगर जब-जब निहित-हित मंडली के झांपे में आ कर निर्णय कर बैठते हैं, बहेलिया-जाल में उलझ जाते हैं। राजनीति की प्राथमिक शाला का विद्यार्थी भी यह जान जाता है कि हुक़्मरान अपने स्पर्धियों के अंतःकक्ष में कैसे-कैसे अय्यारों की कैसे-कैसे तैनाती करता है। फिर हुक़्मरान अगर नरेंद्र भाई जैसा हो तो राहुल सरीखे प्रतिपक्षी को तो दो नहीं, चार आंखों से काम लेना होगा।