कांग्रेस संसदीय दल की नेता श्रीमति सोनिया गांधी ने शनिवार यानी 29 जून को अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार ‘द हिंदू’ में एक लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है ‘प्रीचिंग कन्सेंसस, प्रोवोकिंग कनफ्रन्टेशन’। इस लेख की प्रस्थापना यह है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से आम सहमति से सरकार चलाने और संसदीय कामकाज में सहयोग की बातें कर रहे हैं लेकिन असल में उनकी सरकार विपक्ष के साथ टकराव बढ़ा रही है। इस लेख के तीन हिस्से हैं। एक हिस्सा यह है कि सरकार सबको साथ लेकर नहीं चलना चाह रही है।
दूसरा हिस्सा है कि जरूरी मसलों पर बहस की जरुरत है और तीसरा हिस्सा है कि विपक्ष देश की आवाज बनेगा। क्या सचमुच ऐसा है कि सरकार सहमति नहीं बनाना चाह रही है और विपक्ष से टकराव बढ़ा रही है? हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। सरकार पहले दिन से सहमति के प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने नतीजों के बाद कम से कम दो बार कहा है कि सरकार बहुमत से बनती है लेकिन सर्वमत से चलती है। देश के मतदाताओं ने उनको स्पष्ट बहुमत दिया है, जिससे उन्होंने सरकार बनाई है और उसके बाद सरकार की ओर से लगातार आम सहमति बनाने की कोशिश हो रही है, लेकिन विपक्ष अपनी नई मिली ताकत के दम पर लगातार टकराव की स्थिति बना रहा है।
असलियत यह है कि चुनाव नतीजों के बाद से ही विपक्ष किसी ऐसे मुद्दे की तलाश कर रहा था, जिस पर संसद को बाधित किया जा सके। तभी याद करें कैसे चुनाव नतीजों के बाद राहुल गांधी ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में कथित शेयर घोटाले का मुद्दा उठाया था। उन्होंने विशेष प्रेस वार्ता बुला कर दावा किया था कि एक साजिश के तहत एक्जिट पोल के अनुमानों में भाजपा को तीन सौ से ज्यादा सीटें मिलने की भविष्यवाणी की गई, जिससे शेयर बाजार में उछाल आया और असली नतीजों के दिन इतनी बड़ी गिरावट हुई कि निवेशकों के 30 लाख करोड़ रुपए डूब गए। राहुल गांधी ने इसे बड़ा घोटाला बताते हुए कहा था कि संसद में विपक्ष इसे उठाएगा और संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से इसकी जांच की मांग करेगा। क्या किसी ने संसद के इस सत्र में राहुल गांधी या किसी विपक्षी नेता को यह मुद्दा उठाते सुना है?
अगर वह घोटाला था तो राहुल गांधी क्यों नहीं मुद्दा उठा रहे हैं? जाहिर है शेयर बाजार में कोई घोटाला नहीं हुआ है। चुनाव नतीजों के समय हर बार स्वाभाविक रूप से शेयर बाजार में उतार चढ़ाव होता है। लेकिन उस समय कांग्रेस को लगा था कि उसे संसद को बाधित करने के लिए कोई मुद्दा चाहिए तो उसने इसे मुद्दा बना दिया। लेकिन चार जून को मेडिकल दाखिले की परीक्षा के नतीजे आने के बाद उसमें कुछ गड़बड़ियों की खबर आई तो कांग्रेस ने तत्काल शेयर बाजार वाला मुद्दा छोड़ कर नीट की परीक्षा का मुद्दा पकड़ लिया। तय मानें कि अगर नीट परीक्षा का मुद्दा नहीं आया होता तो शेयर बाजार का मुद्दा उठता और अगर वह भी नहीं होता तो कोई और मुद्दा उठता। विपक्ष की मंशा संसद को बाधित करने की है तो वह कोई न कोई मुद्दा तलाश ही लेता। तभी यह हास्यास्पद है कि श्रीमति सोनिया गांधी ने सरकार पर टकराव का आरोप लगाया। असल में कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां टकराव के मुद्दे तलाश रहीं हैं और आरोप सरकार पर लग रहे हैं!
अगर ऐसा नहीं होता तो क्या प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति पर इतना बड़ा विवाद होता? यह कितना हास्यास्पद है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने इसे मुद्दा बनाया कि आठ बार के लोकसभा सांसद की जगह सात बार के लोकसभा सांसद को प्रोटेम स्पीकर बनाया गया! कांग्रेस ने आठ बार के सांसद कोडिकुन्निल सुरेश के हवाले इसे दलित अस्मिता का मुद्दा बना दिया, जबकि खुद कांग्रेस ने ही उनका अपमान किया था। वे पिछली लोकसभा में सातवीं बार के सांसद थे लेकिन कांग्रेस ने सदन का नेता पांच बारे के सांसद अधीर रंजन चौधरी को बनाया था। क्या तब कोडिकुन्निल सुरेश का अपमान नहीं हुआ था? कांग्रेस को टकराव का मुद्दा चाहिए था तो उसने प्रोटेम स्पीकर पर ही टकराव मोल लिया। उसके बाद जब स्पीकर के चुनाव की बारी आई तो विपक्ष ने उस पर भी आम सहमति की परंपरा को दरकिनार करके टकराव का रास्ता चुना। उसने भाजपा के ओम बिरला के मुकाबले कोडिकुन्निल सुरेश को उम्मीदवार बना दिया।
इसमें भी एक पैटर्न है। जब भी हार निश्चित होती है तो कांग्रेस किसी दलित चेहरे को आगे करती है। याद करें कैसे 2002 में कांग्रेस को पता था कि वह उप राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीत सकती है तो उसने महाराष्ट्र के दिग्गज दलित नेता सुशील कुमार शिंदे को प्रत्याशी बना दिया। इसी तरह 2017 में कांग्रेस को पता था कि वह चुनाव नहीं जीत सकती है तो उसने मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना दिया। इस बार उसने ओम बिरला के मुकाबले के सुरेश को उम्मीदवार बना दिया और जब चुनाव की बारी आई तो मत विभाजन की मांग ही नहीं की। तो क्या इसका मकसद दलित नेता कोडिकुन्निल सुरेश का अपमान करना नहीं था? यह भी सवाल कांग्रेस के पूछा जाना चाहिए कि जब उसके नेताओं के मन में दलितों के प्रति इतना सम्मान है तो आठ बार के सांसद कोडिकुन्निल सुरेश को कांग्रेस ने लोकसभा में नेता क्यों नहीं बना दिया? क्यों आठ बार के सांसद की जगह पांच बार के राहुल गांधी नेता बने?
बहरहाल, विपक्ष के हर मसले पर टकराव बनाने की मंशा का पता इस बात से भी चलता है कि उसने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सरकार की ओर से पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दिन काम रोको प्रस्ताव का नोटिस दिया। क्या कांग्रेस नेताओं को संसदीय नियमों का ज्ञान नहीं है? लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला ने कांग्रेस सांसदों को बताया कि अभिभाषण पर चर्चा के दौरान काम रोको प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता है। लेकिन कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेता काम रोको प्रस्ताव पेश करके नीट परीक्षा में हुई गड़बड़ियों पर चर्चा की मांग करते रहे। अगर कांग्रेस को संसदीय परंपरा का इतना ही ध्यान है और उसके प्रति इतना सम्मान है तो उसे नियमों को स्वीकार करना चाहिए था और अभिभाषण पर चर्चा में शामिल होना चाहिए था। क्या राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी और दूसरे नेता नीट परीक्षा का मुद्दा नहीं उठा सकते थे?
उन्हें किसी ने नहीं रोका है। वे अभिभाषण पर चर्चा में शामिल हों और यह मुद्दा उठाएं। सरकार को इसमें कोई आपत्ति होती तो राष्ट्रपति अपने अभिभाषण में इसका जिक्र नहीं करतीं। उन्होंने इसका जिक्र किया और कहा कि सरकार गंभीरता से इसकी जांच करा रही है। लेकिन विपक्ष को छात्रों के हितों से कोई मतलब नहीं है। उनको सिर्फ टकराव पैदा करना है। अगर उनकी मंशा ठीक होती तो वे नियम विरूद्ध नोटिस देने की बजाय अभिभाषण पर चर्चा में शामिल होते और उसमें यह मुद्दा उठाते।
अब सवाल है कि विपक्ष को क्यों टकराव मोल लेना है? इसका जवाब मुश्किल नहीं है। 10 साल तक विपक्ष पूरी तरह से हाशिए में रहा। कांग्रेस को तो दो चुनावों में इतनी सीटें नहीं मिलीं कि उसको मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा मिले। इस बार समाजवादी पार्टी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है लेकिन पिछली लोकसभा में उसके सिर्फ पांच सीटें मिली थीं, जिनमें से दो सीटें उसने उपचुनाव में गंवा दी थी। यानी उसके सिर्फ तीन सासंद बचे थे। सो, जनता द्वारा ठुकराई गईं ये पार्टियां मन मसोस कर संसद में बैठती थीं।
इस बार उनकी सीटों में बढ़ोतरी हुई है। कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा हासिल करने लायक बन गई है तो उसका असली रंग निकल कर सामने आ गया। 10 साल के बाद नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिला तो राहुल गांधी नेता बन गए और पूरी पार्टी उनकी छवि चमकाने में लग गई। यह समझना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस और विपक्ष का विरोध या टकराव मुद्दों को लेकर नहीं है। सिर्फ इसलिए है कि उनकी ताकत थोड़ी बढ़ गई है।
श्रीमति सोनिया गांधी के ‘द हिंदू’ में लिखे लेख का एक हिस्सा है, ‘द अपोजिशन विल रिफ्लेट इंडियाज वॉयस’ यानी विपक्ष भारत की आवाज बनेगा। यह कैसी विडम्बना वाली बात है कि 35 फीसदी से कम वोट लेकर विपक्ष भारत की आवाज बनेगा लेकिन 45 फीसदी से ज्यादा वोट वाला सत्तापक्ष देश की या जनता की आवाज नहीं बनेगा! भारत में या दुनिया के किसी भी देश में बहुमत हासिल करने वाला दल या गठबंधन सरकार बनाता है और देश की व जनता की आवाज का प्रतिनिधि भी वही होता है। लेकिन यहां कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष कह रही हैं कि विपक्ष देश की आवाज बनेगा। इसी से अंदाजा लग रहा है कि जनता द्वारा लगातार तीसरी बार खारिज कर दिए जाने के बावजूद देश की आवाज बनने की सोच में कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां सहमति, सद्भाव और सहयोग का रास्ता छोड़ कर टकराव का रास्ता चुन रही हैं।
(लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)