नरेंद्र मोदी सरकार में इस विद्रूपता से भारत की इच्छाशक्ति और समझ का सिरे से अभाव है। बेरोजगारी और महंगाई जैसे प्रश्नों पर वह नव-उदारवादी फॉर्मूलों पर पुनर्विचार करने तक को तैयार नहीं है। चूंकि हाल के आम चुनाव में इन दोनों समस्याओं के कारण उसे गंभीर झटके लगे, इसलिए वह इस दिशा में कुछ करते तो दिखना चाहती है, लेकिन सचमुच कुछ करना नहीं चाहती! …महंगाई के सवाल पर तो उसने आत्म-समर्पण कर दिया है। बेरोजगारी का जो समाधान उसने पेश किया है, उसे दिखावटी से ज्यादा कुछ मानने का तर्क नहीं है। तो विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत विकसित हो रहा है या चौतरफा लड़खड़ा रहा है?
लोकसभा चुनाव के दौरान ही ये बात जाहिर हो गई कि ‘विकसित भारत’ का नारा लोगों को उत्साहित या आकर्षित नहीं कर रहा है। इसके प्रति लोगों की उदासीनता का आलम यह था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेताओं ने पहले चरण के मतदान के बाद अपने प्रचार अभियान में इस थीम को हाशिये पर डाल दिया। इसके विपरीत हिंदुत्व का डोज (खूराक) बढ़ाने का दांव उन्होंने चला। वह भी कितना कारगर रहा, यह चार जून को आए चुनाव नतीजों से जाहिर हो चुका है।
यह निर्विवाद है कि लोकसभा के चुनाव का प्रमुख कथानक महंगाई, बेरोजगारी, अवसरहीनता आदि जैसे ठोस और रोजमर्रा की जिंदगी की जुड़े मुद्दों से तय हुआ।
इसके बावजूद अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘विकसित भारत’ अपना थीम बनाए रखा है, तो यही कहा जाएगा कि हकीकत से आंख मिलाने का साहस या क्षमता उसमें नहीं है। पिछले महीने संसद के साझा सत्र में दिए अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने एलान किया था कि 2024-25 के बजट में सरकार ‘विकसित भारत’ की कार्यसूची पेश करेगी। 23 जुलाई को पेश बजट को मोदी सरकार ने ‘विकसित भारत की तरफ यात्रा का रोडमैप’ कहा है। इसमें पेज-दर-पेज ‘विकसित भारत की प्राथमिकताएं’ बताई गई हैं।
यानी जो जुमला चुनाव अभियान में लोगों को लुभा नहीं सका, जिस पर लोगों ने यकीन नहीं किया, उसे ही इस बजट का मुख्य विषयवस्तु बनाया गया है। इसलिए यह सवाल विचारणीय हो जाता है कि आखिर किसी अर्थनीति और विकास नीति का मकसद क्या होना चाहिए? उनकी सफलता का पैमाना क्या होना चाहिए?
बीसवीं सदी के आरंभ में जब सोवियत क्रांति के साथ समाजवाद सपनों की रूमानी दुनिया से उतर कर जमीनी हकीकत का रूप लेना लगा, तो पहली बार तत्कालीन पूंजीवादी और अन्य व्यवस्थाओं के सामने भी अपना लक्ष्य तय करने और कुछ सपने जगाने की चुनौती पेश आई थी। क्या पूंजीवाद आधारित ‘लोकतंत्र’ खुद में सामाजिक एजेंडा जोड़ कर समाजवादी क्रांति का विकल्प पेश सकता है, यह बहस खड़ी हुई थी। उसी दौर में जॉन मेनार्ड कीन्स ने अर्थनीति संबंधी अपनी समझ दुनिया के सामने रखी, जो धीरे-धीरे पूरे पूंजीवादी विश्व का स्वीकृत आर्थिक एजेंडा बन गई। कीन्स की आर्थिकी ने “क्रांतिकारी समाजवाद” के विकल्प के रूप में “शांतिमय प्रगति आधारित लोकतांत्रिक पूंजीवाद” के लक्ष्यों और उन्हें हासिल करने के मार्ग की व्याख्या की थी।
बताया गया कि इस अर्थनीति का पालन करते हुए संपूर्ण रोजगार (full employment) हासिल किया जा सकता है। जब हर व्यक्ति के पास सम्मानजनक रोजगार होगा, तो उसका जीवन स्तर क्रमिक रूप से उठेगा और समाज समृद्ध एवं खुशहाल बनेगा। ऐसे समाज में आमदनी बढ़ने के कारण कर उगाही भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी, जिससे सरकारें जन-कल्याण एवं पुख्ता सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था कर सकेंगी। यानी कुल सोच यह थी कि पूंजीवाद धन पैदा करेगा जो धीरे-धीरे रिस कर निचले तबकों तक पहुंचेगा। इस तरह सभी खुशहाल होंगे।
इस आर्थिकी को कार्यरूप देने के लिए कीन्स ने अर्थव्यवस्था में सरकारों की सक्रिय भूमिका की वकालत की थी। सामाजिक लक्ष्य तय करना और उन्हें हासिल करने की तरफ ओर समाज को ले जाना सरकारों की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी मानी गई। full employment इन लक्ष्यों में सर्व-प्रमुख था।
पूंजीपति और धनिक तबकों ने अपनी नव-उदारवादी मुहिम के तहत इसी सोच पर हमला बोला। 1980 का दशक आते-आते उनकी यह मुहिम कामयाबी की राह पर चल निकली। 1990 के दशक में इस सोच और इस पर आधारित आर्थिकी का लगभग सारी दुनिया में प्रसार हो गया। 1991 में यह आर्थिकी भारत पहुंची और आज उसका सबसे विद्रूप चेहरा हमारे सामने है।
ताजा बजट ने यही दिखाया है कि नरेंद्र मोदी सरकार में इस विद्रूपता से भारत की इच्छाशक्ति और समझ का सिरे से अभाव है। बेरोजगारी और महंगाई जैसे प्रश्नों पर वह नव-उदारवादी फॉर्मूलों पर पुनर्विचार करने तक को तैयार नहीं है। चूंकि हाल के आम चुनाव में इन दोनों समस्याओं के कारण उसे गंभीर झटके लगे, इसलिए वह इस दिशा में कुछ करते तो दिखना चाहती है, लेकिन सचमुच कुछ करना नहीं चाहती!
महंगाई के सवाल पर तो उसने आत्म-समर्पण कर दिया है। इस बात का प्रमाण 22 जुलाई को संसद में पेश 2023-24 की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में मिला। इसमें खाद्य पदार्थों की ऊंची महंगाई दर का जिक्र किया गया और इसका कारण आपूर्ति संबंधी दिक्कतों को बताया गया। रिपोर्ट में कहा गया हैः ‘अक्सर खाद्य पदार्थों की महंगाई का कारण मांग से संबंधित नहीं, बल्कि आपूर्ति से संबंधित है।’ तो इस रिपोर्ट के जरिए सरकार ने दलील दी है कि ब्याज दरें बढ़ा कर महंगाई पर काबू पाने का तरीका मौजूदा खाद्य महंगाई के संदर्भ में कारगर नहीं होगा। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक से सिफारिश की गई है कि वह खाद्य पदार्थों के अलावा बाकी मुद्रास्फीति दर पर गौर करे, जो अब नियंत्रण में है। यानी वह ब्याज दरों में कटौती शुरू कर दे।
मतलब, सरकार मानती है कि खाद्य पदार्थों की महंगाई इसलिए है कि किसान पर्याप्त मात्रा में अनाज, सब्जियों और अन्य खाद्य पदार्थों का उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। क्या यह सच है? क्या इस बात को स्वीकार किया जा सकता है?
दरअसल, आज की मोनोपॉली नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में महंगाई सिर्फ मांग और आपूर्ति के आपसी संबंध से तय नहीं हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसाबेला बेवर जैसी अर्थशास्त्री और भारत के संदर्भ में रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने अनुसंधानों से यह साबित किया है कि महंगाई का एक बड़ा कारण मोनोपॉली घरानों की मुनाफाखोरी है। भारत में आढ़तियों के माध्यम से मोनोपॉली घराने अनाज, फल और सब्जियों आदि के बाजार भाव को प्रभावित या नियंत्रित कर रहे हैं। मगर इस नजरिए से महंगाई को देखने और और उसका समाधान ढूंढने का साहस सरकार (वैसे तो लगभग सारे राजनीतिक दलों) में नहीं है। इसीलिए पहले ब्याज दरों में कटौती को एकमात्र उपाय माना गया और उद्योगपतियों की मांग के दबाव में आकर खाद्य महंगाई को नजरअंदाज करते हुए ब्याज दर घटाने की सलाह उसने रिजर्व बैंक को दी सरकार ने दी है।
यही बात रोजगार के मामले में है। सरकार ने बजट में तीन योजनाओं का जिक्र किया हैः
- हर साल एक करोड़ नौजवानों को निफ्टी में लिस्टेड 500 कंपनियों में ट्रेनिंग दिलवाई जाएगी। प्रशिक्षण लेने वाले हर नौजवान को सरकार एक साल तक हर महीने पांच हजार रुपये देगी।
- कोई कंपनी एक लाख रुपये सालाना तनख्वाह तक वाले नए कर्मचारी को नौकरी देगी, तो उसके एक महीने की तनख्वाह (अधिकतम 15 हजार रुपये) का भुगतान सरकार करेगी।
- इसके अलावा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमों (एमएसएमई) को प्रोत्साहित करने के कुछ उपाय घोषित किए गए हैँ।
सवाल हैः
- बाजार में रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं, तो साल भर ट्रेनिंग लेने के बाद संबंधित नौजवानों को कहां रोजगार मिलेगा? क्या अभी लाखों नौजवान इंजीनियरिंग जैसी डिग्रियां लेकर, या आईटीआई जैसे संस्थानों से ट्रेनिंग लेने के बाद दर-दर की ठोकरें नहीं खा रहे हैं?
- क्या कोई भी उद्यम सिर्फ इसलिए नया कर्मचारी रखने को प्रेरित होगा कि उसकी एक महीने की तनख्वाह के बराबर की रकम सरकार दे देगी? उद्यम अपनी जरूरत के हिसाब से कर्मचारी रखते हैं या वे सरकार की रोजगार दिलाने की मंशा को पूरा करने के लिए अपना ओवरहेड खर्च बढ़ाएंगे?
- मुद्रा ऋण तथा प्रोत्साहनों से एमएसएमई सेक्टर कितना आगे बढ़ सकेगा, जब नोटबंदी और जीएसटी जैसे सरकारी कदमों ने उनकी कमर पहले से तोड़ रखी है? ऐसे प्रोत्साहनों का पहले क्या रिकॉर्ड रहा है? हकीकत यह है कि एमएसएमई सेक्टर में जीवंतता तभी आती है, जब बाजार में प्रतिस्पर्धा का स्वस्थ माहौल हो। मोनोपॉली नियंत्रित अर्थव्यवस्थाओं में यह स्थिति नहीं होती।
आज की सच्चाई यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश, उत्पादन, वितरण, उपभोग और मांग का सामान्य आर्थिक चक्र टूटा हुआ है। आज अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सरकार के पूंजीगत खर्च बढ़ाने और प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव जैसी योजनाओं पर अधिक से अधिक निर्भर होती गई है। इन योजनाओं को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत चलाया जा रहा है। इससे राजकोष का धन सीधे कॉरपोरेट घरानों के पास पहुंच जाता है। इस तरह बिना उत्पादन बढ़ाए कंपनियों का मुनाफा बढ़ा है। उसके आधार पर वे शेयर बाजार में अपना मूल्य बढ़ाती चली गई हैँ। यह मूल्य जीडीपी में गिना जाता है। मगर इन योजनाओं वजह से वास्तविक अर्थव्यवस्था में ना तो प्राइवेट निवेश बढ़ रहा है, ना पूंजी निर्माण हो रहा है और ना ही रोजगार के अवसर पैदा हो रहे हैँ।
इस सच को खुद इस बार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है। उसमें कहा गया हैः ‘2022-23 तक की चार साल की अवधि में प्राइवेट सेक्टर में गैर वित्तीय ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन (जीएफसीएफ) कुल 35 प्रतिशत रहा (यानी हर साल नौ प्रतिशत से भी कम।)। इस बीच आवास, अन्य इमारतों एवं निर्माण में जीएफसीएफ 105 प्रतिशत बढ़ा (अर्थात तीन गुना ज्यादा)। यह स्वस्थ मिश्रण नहीं है। दूसरी बात यह कि मशीनरी और बौद्धिक संपदा उत्पादों में निवेश की धीमी रफ्तार के कारण जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग का अनुपात बढ़ाने कोशिश में और देर होगी। इससे भारत की मैनुफैक्चरिंग प्रतिस्पर्धात्मकता में देर होगी और इस कारण अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियां बहुत कम संख्या में पैदा होंगी।’
इसी रिपोर्ट में कहा गया हैः “पिछले वित्त वर्ष में निफ्टी 500 कंपनियों का मुनाफा 30 प्रतिशत तक बढ़ा। 2022-23 में यह कुल मुनाफा 10.88 लाख करोड़ रुपये था, जबकि 2023-24 में यह 14.11 लाख करोड़ तक पहुंच गया। पिछले वित्त वर्ष में कुल (नोमिनल) जीडीपी पिछले साल की तुलना में 9.6 प्रतिशत यानी 295 लाख करोड़ रुपये बढ़ी। लेकिन नई नौकरियां और कर्मचारियों के वेतन-भत्ते इसकी (इस मुनाफे) तुलना में बेहद कम बढ़े। वैसे यह कंपनियों के अपने हित में होगा कि वे नए लोगों को नौकरी पर रखें और कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी करें।”
अब कंपनियों के हित में क्या है, इसकी सीख वे सरकार से लेंगी, इसकी संभावना कम ही है। उनके नजरिए से अहम यह है कि उत्पादन संबंधी निवेश किए बिना, नौकरियां दिए बिना और वेतन-भत्ता बढ़ाए बिना उनके मुनाफे में रिकॉर्ड वृद्धि हो रही है। इसमें बहुत बड़ा योगदान सरकार की टैक्स नीति का भी है, जिसकी वजह से कॉरपोरेट्स पर कर का बोझ घटता चला गया है।
बजट दस्तावेज से सामने आए इन आंकड़ों पर ध्यान दीजिएः सरकार के कुल कर राजस्व में अब सबसे ज्यादा हिस्सा- 19 प्रतिशत- व्यक्तिगत आय कर दाताओं (यानी सामान्य नौकरी-पेशा लोगों और पेशवरकर्मियो) का है। दूसरे नंबर पर जीएसटी और अन्य परोक्ष करों का योगदान है, जिसका हिस्सा 18 प्रतिशत है। अगर इसमें केंद्रीय उत्पाद कर और कस्टम को भी जोड़ दें (जिनका बोझ भी आम लोगों पर ही पड़ता है), तो यह हिस्सा 27 प्रतिशत हो जाता है। कॉरपोरेट टैक्स का हिस्सा सिर्फ 17 प्रतिशत रह गया है। ऊपर से अपने उत्पादों या सेवाओं की मनमानी कीमत/शुल्क तय करने का अधिकार तो उनके पास है ही!
जब अर्थव्यवस्था का यह स्वरूप हो, तो क्या सचमुच कोई इस बात पर यकीन करेगा कि सरकार की ताजा घोषणाओं से रोजगार पैदा होंगे? बेरोजगारी का आलम क्या है, इसकी जानकारी और अहसास आज आम शख्स को है- इसलिए उसकी अलग से चर्चा करना यहां गैर-जरूरी है।
तो बात घूम-फिर इसी सवाल पर आ जाती है कि जब कोई अर्थनीति full employment के लक्ष्य से लगातार दूर जा रही हो, तो क्या उसे सफल कहा जा सकता है?
इस अर्थनीति के जरिए आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के दावे खूब किए गए हैँ। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उसे प्रचार भी मिला है। मगर पिछले डेढ़ महीनों में फ्लैगशिप निर्माणों सहित जिस तरह पुल, सड़कें, हवाई अड्डे और अन्य निर्माण ढहते नजर आए हैं, उनसे विकास की ये कहानियां संदिग्ध हो चुकी हैं।
उधर आम जन जिस विकराल महंगाई से त्रस्त हैं, उस बारे में सरकार के पास कोई समाधान नहीं है। बेरोजगारी का जो समाधान उसने पेश किया है, उसे दिखावटी से ज्यादा कुछ मानने का तर्क नहीं है। तो विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत विकसित हो रहा है या चौतरफा लड़खड़ा रहा है? ताजा बजट से भारत के विकसित होने का मार्ग प्रशस्त होगा, या लड़खड़ाते आवाम पर इससे एक और चोट हुई है?