आज का शिक्षित भारतीय इतिहास से कुछ ऐसे पाठ आत्मसात करने की कोशिश कर रहा है जो हमारे पूर्वजों की सीखों के विपरीत है। पूरब के देश एक ऐसा इतिहास मानने की कोशिश कर रहे हैं जो उन के अपने जीवन का नहीं है।..राष्ट्र क्या है? यह किसी मानव समुदाय की एक संगठित शक्ति का रुप है। जो यांत्रिक है। फिर भी, इस संगठन में वह तमाम नैतिक श्रेष्ठता का संतोष प्राप्त करता है और इस प्रकार मानवता के लिए भारी खतरनाक हो जाता है।…वह सत्य को छोड़कर सीमा की ही पूजा करने लगता है; देवता से अधिक पंडे को मानता है। राजा को भूल जाता है, पर दरोगा को कभी नहीं भूलता। पृथ्वी पर नेशन का निर्माण तो सत्य के जोर से हुआ, लेकिन नेशनलिज्म सत्य नहीं है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर
भारत में सच्चे अर्थ में राष्ट्रवाद कभी नहीं रहा है। यद्यपि मुझे बचपन से ही सिखाया गया था कि राष्ट्र की प्रतिमा-पूजा ईश्वर और मानवता के प्रति श्रद्धा से भी लगभग बेहतर है, मुझे लगता है कि उस सीख से मैं बाहर निकल चुका हूँ। और यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि मेरे देशवासी अपने भारत को वस्तुत: उस शिक्षा के विरुद्ध लड़कर ही पाएंगे जो उन्हें सिखाती है कि कोई देश मानवता के आदर्शों से भी ऊपर है।
आज का शिक्षित भारतीय इतिहास से कुछ ऐसे पाठ आत्मसात करने की कोशिश कर रहा है जो हमारे पूर्वजों की सीखों के विपरीत है। पूरब के देश एक ऐसा इतिहास मानने की कोशिश कर रहे हैं जो उन के अपने जीवन का नहीं है।
यूरोप का अपना अतीत है। इसलिए यूरोप की शक्ति उस के इतिहास में है। हम भारत के लोगों को अपना मन अवश्य बनाना है कि हम दूसरे लोगों का इतिहास उधार नहीं ले सकते, और यदि हम अपने इतिहास का दमन करते हैं तो हम आत्महत्या कर रहे हैं। जब आप ऐसी चीजें उधार लेते हैं जो आपके जीवन से जुड़ी नहीं हैं, तो वह आप के जीवन को दबाने में ही काम आएंगी।
और इसीलिए मेरा विश्वास है कि पश्चिमी सभ्यता से उसी की भूमि पर प्रतियोगिता करने से भारत का कोई लाभ नहीं है। परन्तु हम यदि अपनी नियति पर चलें तो हमें उस से अधिक ही लाभ होगा।
यदि हम एक राजनीतिक राष्ट्रवाद खरीदने के लिए अपना सब कुछ दे देने की चाह रखें तो यह वैसा ही फूहड़ होगा जैसे यदि स्विट्जरलैंड इंग्लैंड से प्रतियोगिता करने में उस के जैसी शक्तिशाली नौसेना बनाने में अपना सब कुछ लगा दे। हम ऐसी भूल यह सोचकर कर रहे हैं कि मनुष्य की महानता का मार्ग एक ही होता है – वही मार्ग जिस ने अपनी गहरी उद्दंडता से अपने को अभी कष्टकारी रूप से उजागर कर दिया है।
हमें यह निश्चित रूप से जान लेना चाहिए कि हमारा एक भविष्य हमारे सामने है और वह भविष्य उन के लिए प्रतीक्षा कर रहा है जो नैतिक आदर्शों में समृद्ध हैं, न कि केवल वस्तुओं में। और यह मनुष्य का ही विशेष अधिकार है कि वह ऐसे फलों के लिए भी प्रयास करता है जो उस की सीधी पहुँच से बाहर होते हैं, और वह अपने जीवन को सीमित चाह में किसी वर्तमान सफलता या अपने ही अच्छे अतीत के भी दासवत अनुकरण में नहीं ढाल लेता। बल्कि हमारे सर्वोच्च अपेक्षाओं के आदर्शों को हृदय में रखकर असीम भविष्य के लिए अपने को बनाता है।
मैं किसी राष्ट्र विशेष के विरुद्ध नहीं, बल्कि राष्ट्रों की सामान्य धारणा के विरुद्ध हूँ। राष्ट्र क्या है? यह किसी मानव समुदाय की एक संगठित शक्ति का रुप है। यह संगठन उस आबादी विशेष की स्वयं को शक्तिशाली और दक्ष बनने की आन को अविराम रूप से बनाये रखता है। मगर शक्ति और दक्षता के लिए कठिन प्रयत्न व्यक्ति को अपने ऊँचे स्वभाव जहाँ वह आत्मोत्सर्गी और रचनात्मक है, वहाँ से हटाकर उस की ऊर्जा को सोख लेता है। क्यों कि तब उत्सर्ग करने की उस की शक्ति उस के सर्वोच्च उद्देश्य, जो नैतिक है, उस से घुमा कर इस संगठन को बनाए रखने में लगा दी जाती है, जो यांत्रिक है। फिर भी, इस संगठन में वह तमाम नैतिक श्रेष्ठता का संतोष प्राप्त करता है और इस प्रकार मानवता के लिए भारी खतरनाक हो जाता है।
क्योंकि वह अपनी अंतरात्मा की पुकार से मुक्त महसूस करता है जब वह अपना उत्तरदायित्व इस मशीन को स्थानांतरित कर देता है जो उस की बुद्धि की, न कि उस के संपूर्ण नैतिक व्यक्तित्व की निर्मिति है। इस मशीन के माध्यम से लोग स्वतंत्रता प्रेमी लोग ही दुनिया के बड़े हिस्से में गुलामी कायम रखने लगते हैं। वह भी एक आरामदेह गर्व-भावना के साथ कि वे कर्तव्य निभा रहे हैं। ऐसे लोग जो सहज न्यायप्रिय हैं, क्रूरतापूर्वक अन्यायी हो जाते हैं, अपनी करनी और चिंतन दोनों में। साथ ही उन्हें यह भी लगता है कि वे दुनिया को उस का उचित प्राप्य देने में सहायता कर रहे हैं। ऐसे लोग जो चरित्रवान हैं, अपनी राष्ट्रवादी अहंता में दूसरे लोगों के मानवीय अधिकारों को आँख मूँद कर लूटते रह सकते हैं। साथ ही उन लुटे लोगों को अपशब्द सुनाते हुए कि वे इसी लायक हैं।
हम दैनिक जीवन में देखते हैं कि व्यापार और धंधे के छोटे संगठन भी अपने लोगों में भावनाओं की क्रूर कठोरता पैदा कर देते हैं, जो स्वयं स्वभाव से बुरे नहीं हैं। अतः हम सरलता से कल्पना कर सकते हैं कि यह विश्व में कैसी नैतिक विभीषिका विश्व में पैदा कर रही है जहाँ पूरे के पूरे मानव समुदाय धन और शक्ति पाने के लिए उग्रता से अपने-अपने को संगठित कर रहे हैं। यही राष्ट्रवाद है।
इसलिए राष्ट्रवाद एक भारी खतरा, menace है। यह ठीक वह चीज है जो बरसों से भारत की समस्याओं की जड़ में है। और जिस हद तक हम एक ऐसे राष्ट्र द्वारा पराभूत और शासित रहे हैं जो अपने रुख में कठोरता पूर्वक राजनीतिक है, हम ने अतीत की अपनी विरासत के बावजूद अंततः राजनीतिक नियति के विश्वास का विकास अपने अंदर करने का यत्न किया है।
जबकि भारत में हमें जो सोचना है वह यह, कि अपनी उन सामाजिक प्रथाओं और आदर्शों को हटा दें जिन से हम में आत्मसम्मान की कमी हुई और अपने से ऊपर के लोगों पर पूर्ण निर्भरता बनी – ऐसी हालत जो पूरी तरह भारत में जाति-व्यवस्था की प्रबलता, और उन बेमेल परंपराओं की सत्ता पर अंधी और आलसी निर्भरता के कारण ही बनी जो आज के युग में बिलकुल अनुपयुक्त हो चुकी थीं।
भारत की समस्या लघु रूप में पूरे विश्व की समस्या है। भारत अपने क्षेत्र में इतना विशाल और आबादी में इतना विविध है। यह अनेक देशों का एक क्षेत्रीय परिदृश्य में एकत्रित हो जाना है। यह उस का ठीक उलटा है जो यूरोप वस्तुत: है: एक ही देश का अनेक बन जाना।
इसलिए राजनीतिक स्वतंत्रता हमें वह स्वतंत्रता नहीं देती जब हमारा मन स्वतंत्र न हो। एक मोटर-कार हमारे लिए घूमने-फिरने की स्वतंत्रता नहीं बनाती, क्यों कि वह एक मशीन मात्र है। जब मैं स्वतंत्र हूँ, तभी मैं मोटर-कार का उपयोग भी अपनी स्वतंत्रता के लिए कर सकता हूँ।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि आज जो लोग राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हैं, वे सभी वास्तव में भी स्वतंत्र नहीं हैं। उन में जो उच्छृंखल आवेग है उस से वे स्वतंत्रता के भ्रम में केवल दासता की बड़ी संरचनाएं बना रहे हैं। जिन्होंने धन की प्राप्ति को अपना अंतिम उद्देश्य बना लिया है वे अचेतन रूप से अपना जीवन और आत्मा धनी लोगों या उस संरचनाओं को बेच रहे हैं जो धन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी तरह, जो राजनीतिक शक्ति से मोहित हैं और दूसरे देशों पर अपना वर्चस्व बनाकर सुख में डूब-उतरा रहे हैं, वे क्रमशः अपनी ही स्वतंत्रता और मानवता उन संगठनों को सौंप रहे हैं जो दूसरे लोगों को दासता में रखने के लिए आवश्यक हैं।
कथित स्वतंत्र देशों में भी बहुसंख्य लोग स्वतंत्र नहीं हैं, वे एक लघु संख्या द्वारा उस उद्देश्य में घसीटे जाते हैं जिस की उन्हें जानकारी भी नहीं होती। ऐसा केवल इसीलिए संभव होता है क्योंकि लोग नैतिक और आध्यात्मिक मुक्ति को अपना उद्देश्य स्वीकार नहीं करते। वे अपनी कामनाओं से बड़ी-बड़ी विपरीत लहरें बना लेते हैं, और उस की चक्करदार गति की तीव्रता भर से नशे में झूमते से महसूस करते हैं, और उसी को स्वतंत्रता समझते हैं। लेकिन जो अंधपतन उन की प्रतीक्षा कर रहा है वह उतना ही निश्चित है जितनी मृत्यु – क्यों कि मनुष्य का सत्य नैतिक सत्य है और उस की मुक्ति आध्यात्मिक जीवन में ही है।
भारत के वर्तमान राष्ट्रवादियों की बहुसंख्या मानती है कि हम अपने सामाजिक और आध्यात्मिक आदर्शों की अंतिम परिपूर्ति तक आ पहुँचे हैं, समाज के लिए रचनात्मक कार्य के आदर्श का निर्माण हमारे जन्म से हजारों वर्ष पहले ही हो चुका है, और हम अपनी गतिविधियों को राजनीतिक दिशा में लगाने के लिए मुक्त हैं। हम कल्पना भी नहीं करते कि हमारी वर्तमान असहायता के लिए हम अपनी सामाजिक कमियाँ को दोष दें। क्योंकि हम ने अपने राष्ट्रवाद का यही सिद्धांत स्वीकार किया है कि यह सामाजिक व्यवस्था हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्ष पहले त्रुटिहीन बना ली थी, जिन में भविष्यत युगों की व्यवस्था सदा के लिए बना लेने की अतिमानवीय दूरदृष्टि थी। इसलिए अपनी सभी दुर्दशा और कमियों के लिए हम बीच में हुई ऐतिहासिक आकस्मिक विपदाओं को जिम्मेदार ठहराते हैं जो बाहर से हमारे ऊपर टूट पड़ीं। यही कारण है कि हम सोचते हैं कि सामाजिक दासता की बालू की भित्ति पर स्वतंत्रता का राजनीतिक चमत्कार निर्मित करना ही हमारा एक मात्र कर्तव्य है।
भारत में हमारे जो लोग इस भ्रम में पड़े हैं कि राजनीतिक स्वतंत्रता ही हमें स्वतंत्र बनाएगी, उन्होंने यूरोप से लिए हुए अपने पाठ को धर्म-सूत्र मान लिया है और मानवता में विश्वास खो दिया है। हमें याद रखना चाहिए कि हम अपने समाज में जिन गलतियों, गड़बड़ियों से लगाव रखते हैं वही राजनीति में खतरे के स्त्रोत बन जाएंगे। वही जड़ता जिस से हम अपनी सामाजिक प्रथाओं की कुरूपताओं की पूजा करते हैं, वही राजनीति में जड़ दीवालों से कैदखाने बना देगी। सहानुभूति की जो संकीर्णता हमारे लिए संभव बनाती है कि हम मानवता के खासे भाग को लज्जास्पद नीच स्थिति में बनाए रखें, वही हमारी राजनीति में अन्याय का जुल्म बन कर खड़ी हो जाएगी।
हमारे राष्ट्रवादी जब आदर्शों की बात करते हैं तो वे भूल जाते हैं कि राष्ट्रवाद के विचार का कोई आधार ही लापता है। इन आदर्शों की बात करने वाले ही अपने सामाजिक व्यवहार में सब से संकीर्ण लोग हैं। राष्ट्रवादी लोग, उदाहरण के लिए, कहते हैं कि स्विट्जरलैंड को देखिए, जहाँ विविध समुदायों के लोग होते हुए भी सभी एक राष्ट्र के रूप में एकताबद्ध हैं। पर याद रखिए, कि स्विट्जरलैंड में वे समुदाय एक-दूसरे में मिल-जुल सकते हैं, विवाह-संबंध कर सकते हैं, क्यों कि वे एक ही रक्त के हैं। जबकि भारत में कोई समान जन्म-अधिकार नहीं है। और जब हम यूरोपीय राष्ट्रों की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि वहाँ एक की दूसरे से शारीरिक दुराव, घृणा नहीं है, जो यहाँ विभिन्न जातियों के बीच है।
क्या पूरे विश्व में हम एक भी उदाहरण देखते हैं जहाँ कोई मानव समूह दूसरे समूह से अपने रक्त को मिलने की अनुमति न देता हो, वहाँ किसी दबाव या लोभ के बिना कोई एक दूसरे के लिए रक्त बहाता हो? और तब क्या हम कभी भी यह आशा कर सकते हैं कि भारत में हमारे सामाजिक मेलजोल में ऐसे नैतिक अवरोध हमारी राजनीतिक एकता के मार्ग में बाधा बन कर नहीं खड़े होंगे? फिर, हमें इस तथ्य को भी पूरी तरह से समझ लेना चाहिए कि हमारे सामाजिक प्रतिबन्ध अभी भी जोर-जुल्म से भरे हैं, इस हद तक कि वे लोगों को कायर बनाते हैं।
राष्ट्रवाद का दुष्प्रभाव
सामयिक और स्थानीय कारणों से मनुष्य सीमा के अंदर सत्य को देखता है, इसलिए वह सत्य को छोड़कर सीमा की ही पूजा करने लगता है; देवता से अधिक पंडे को मानता है। राजा को भूल जाता है, पर दरोगा को कभी नहीं भूलता। पृथ्वी पर नेशन का निर्माण तो सत्य के जोर से हुआ, लेकिन नेशनलिज्म सत्य नहीं है। फिर भी देश के वेष्टन-देवता के पूजा-अनुष्ठान के लिए चारो ओर नरबलि की तलाश है।
इसी दुर्बुद्धि का ही नाम है नेशनलिज्म, राष्ट्रीय अहंकार। यह है एक इन्द्रिय वृत्ति। ऐक्य तत्व के विरुद्ध दिशा में इस का खिंचाव है। … नेशनलिज्म के विकार को हम स्थान दें तो शकुनि की तरह कपट द्यूत की डिप्लोमेसी होगी, और इस से बार-बार कुरुक्षेत्र प्रस्तुत होगा। वर्तमान युग की साधना के साथ आज की शिक्षा सुसंगत होनी चाहिए। राष्ट्रीय वेष्टन-देवता के पुजारी किसी-न-किसी बहाने से शिक्षा से भी राष्ट्रीय अभिमान को बढ़ाना अपना कर्तव्य समझते हैं। जब जर्मनी की शिक्षा-व्यवस्था राजनैतिक भेदबुद्धि की क्रीतदासी बन गई, तब अन्य पाश्चात्य देशों ने जर्मनी की निन्दा की। लेकिन आज पश्चिम का कौन-सा बड़ा देश है जहाँ वही बात नहीं हुई है? इन देशों के अखबारों का मुख्य कार्य क्या है? राष्ट्रीय अहंकार की कुशल कामना करना और इस के लिए असत्य के पीर को नैवेद्य चढ़ाना।
राष्ट्रीय अहमिका (अहंकार) से मुक्तिदान की शिक्षा ही आज की प्रधान शिक्षा है। स्वदेश का गौरव बोध मुझे भी है, लेकिन मेरी इच्छा है कि गौरव-बोध के कारण मैं यह कभी न भूलूँ कि एक दिन हमारे देश के साधकों ने जिस मंत्र का प्रचार किया था वह भेद-भाव दूर करने का मंत्र था। मैं सुन पा रहा हूँ कि समुद्र के उस पार मनुष्य आज अपने-आप से यही प्रश्न कर रहा है, “हमारी कौन-सी शिक्षा कौन-से चिंतन और कर्म में मोह प्रच्छन्न था, जिस के कारण हम आज ऐसा दारुण दु:ख भोग रहे हैं?” हमारे देश से ही इस प्रश्न का उत्तर देश-देशांतर पहुँचे: “तुम ने अपनी साधना से मनुष्य के एकत्व को दूर रखा था, यही था तुम्हारा मोह, और इसी से तुम दुःख सहन रहे हो”:
‘यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानत: तत्र को मोह:
क: शोक: एकत्वमनुपश्यत:।’
मेरी यह आंतरिक कामना है कि हमारे देश के विद्यानिकेतन को पूर्व-पश्चिम का मिलन-केंद्र बनाया जाए। विषय-लाभ के क्षेत्र में विरोध आसानी से नहीं मिटता। लेकिन सत्य-लाभ के क्षेत्र में मिलन के रास्ते में कोई बाधा नहीं है। अभागे भारत में आज शिक्षा के लिए जो कुछ व्यवस्था है, वह रूपये में पंद्रह आने पराए से विद्या-भिक्षा माँगने की व्यवस्था है। जिस की वृत्ति भीख माँगने की है वह आतिथ्य न कर सकने पर लज्जित नहीं होता। वह कहता है: ‘मैं भिक्षुक हूँ, मुझ से आतिथ्य की प्रत्याशा कोई नहीं करता’। लेकिन यह सच नहीं है। मैंने बार-बार पश्चिम को यह जिज्ञासा करते हुए सुना है: ‘भारत की वाणी कौन सी है?’ और फिर भारत के द्वार पर आकर जब पश्चिम ने कान लगाया है तो कहा है: ‘यह तो हमारी ही वाणी की क्षीण प्रतिध्वनि है, जो व्यंग्य (विद्रूप) की तरह लगती है।’
इस प्रकार, आधुनिक भारत के गर्व प्रकाशन में पाश्चात्य वाद्य की आवाज सुनाई पड़ती है; और जब वह पश्चिम का विरोध करता है तब भी उस के धिक्कार में पाश्चात्य रोग के ही तीव्र स्वर तारसप्तक में बज उठते हैं।
मेरी प्रार्थना है कि आज भारत समस्त पूर्वी जगत का प्रतिनिधि बन कर सत्य-साधना के लिए अतिथिशाला स्थापित करे। जानता हूँ, उस के पास धन संपदा नहीं है, पर साधन-संपदा तो है।
हमें सत्य चाहिए – केवल किसी सुविधा के लिए नहीं, सम्मान के लिए नहीं, बल्कि मानव-आत्मा को प्रच्छन्नता से मुक्त करने के लिए। मनुष्य के इसी प्रकाशन तत्व को हमारी शिक्षा में प्रचारित करना होगा, तभी सारी मानव-जाति को सम्मानित करके हम स्वयं सम्मान लाभ करेंगे। हमारे विद्यापीठों का शिक्षा-मंत्र यही होना चाहिए: ‘यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति, सर्वभूतेषु चात्मान: ततो न विजुगुप्सते।’(उपर्युक्त अंश टैगोर के तीन व्याख्यान ‘नेशनलिज्म‘, तथा कुछ अन्य निबंधों से चुन-चुनकर संकलित किये गये हैं। सभी शब्द टैगोर के हैं। तीनों मूल व्याख्यान अंग्रेजी में थे।संकलन एवं अनुवाद: शंकर शरण)