भोपाल । आज सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि समूचा विश्व एक दमघोटू माहौल में जीनें को मजबूर है, साम्प्रदायिकता का यह जहरीला धुंआ हर किसी के दिल-दिमाग में घुटन पैदा कर रहा है, भारत का ‘हिन्दूराष्ट्र’ का नारा अब विश्वमंच से लगाया जाने लगा है, इस कारण से एक सम्प्रदाय विशेष में डर तथा चिंता व्याप्त हो गई है, अब यह माहौल क्यों बनाया गया और इसके पीछे कौन सी शक्तियां है? इसका उत्तर तो बाद में खोज लिया जाएगा, किंतु प्राथमिकता इस माहौल को खत्म करने की है, क्योंकि यह माहौल यदि खतरे की सीढ़ी पार कर गया तो पूरे विश्व की शांति खतरे में पड़ सकती है।
भारत में इस माहौल की शुरूआत देश को राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करने वाले उत्तरप्रदेश से हुई है, जहां सबसे पहले धार्मिक रैलियों के मार्ग की दुकानों के बाहर उनके मालिकों के नाम की पट्टियां लगाने के आदेश प्रदान किए गए, जिसका सबसे पहले अनुसरण पड़ौसी राज्य उत्तराखण्ड़ ने किया जहां कांवड मार्ग की दुकानों पर इस विवादित नियम को लेकर सख्ती बरती गई। उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड के बाद अब छूत का यह रोग मध्यप्रदेश में भी प्रवेश कर गया है और मध्यप्रदेश स्थित देश की सबसे पूण्य व पवित्र नगरी अवंतिका (उज्जैन) में इस नियम को सख्ती के साथ लागू करने के निर्देश प्रदान कर दिए गए।
अब आज देश की सबसे बड़ी और अहम् चिंता यही है कि आखिर इन आदेशों को पालन करवा कर देश-प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व अपना कौन सा मकसद पूरा करना चाहता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने पद ग्रहण करते ही आज से एक दशक पहले प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के ‘पंचशील’ सिद्धांतों की तो इतिश्री कर ही दी थी, जिनमें भारत में शांति की पहल की गई थी, अब आज के शासक देश को साम्प्रदायिक भट्टी में झौंक कर अपना कौन सा मकसद पूरा करना चाहते है, यदि मोदी जी को अपने तीसरें कार्यकाल में ‘हिन्दूराष्ट्र’ का संकल्प पूरा करना ही है तो उसके और भी अन्य रास्ते हो सकते है इसके लिए एक सम्प्रदाय विशेष को लक्ष्य बनाने की क्या जरूरत है?
….और अब तो यह मुहीम भारत तक सीमित न रहकर धीरे-धीरे विश्व स्तरीय स्वरूप ग्रहण करती जा रही है, यही आज की चिंता का सबसे बड़ा कारण है यदि देश-विदेश में यही माहौल बना रहा तो इसके परिणाम कितने खतरनाक होगें? इसकी किसी ने कल्पना भी की है? हमारा इतिहास ऐसी मुहीम के परिणामों का गवाह है, इससे आज शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत है। हमारा पुरातन काल से नारा ‘‘सर्वधर्म समभाव’’ रहा है, हम आखिर उसे त्यागने को क्यों आतुर है?
शायद इसका मुख्य कारण आज का बदला हुआ माहौल है, हमारा देश हमेशा से धर्मपरायण रहा है, इसीलिए ऋषि-मुनियों ने अपना दबदबा कायम रखा, किंतु अब माहौल एकदम उलट गया है, आज देश के कर्णधार राजनेता साधु-महात्माओं की शरण में नही बल्कि साधु- महात्मा राजनेता की शरण में नजर आ रहे है, अब ऐसे में सहज ही देश, प्रजा और यहां के आध्यात्म के भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
वैसे इस स्थिति के लिए कोई दोषी नही है, न राजनेता और न उनके आराध्य। दोषी है तो कुर्सी का मोह, जिसने एक बार कुर्सी प्राप्त कर ली वह उसे ‘दीर्घजीवी’ बनाने की कौशिश करता है और यही भावना आज की राजनीति का मुख्य केन्द्र है, अब ऐसे में यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि इसका ईलाज क्या है? तो सत्य बात यह है कि इसका ईलाज किसी संत-मौलवी या डॉक्टर के पास नही बल्कि स्वयं रोगी के पास है, जो अपने में आत्म चेतन पैदा कर अपने आपको ठीक कर सकता है और वही अब करना भी चाहिए, दुकानों पर नाम पट्टी लगाने से कुछ नही होगा।