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राहुल के लिए जीत की गारंटी राजा के ‘नाथ’…!

भोपाल। राहुल गांधी की संसद की सदस्यता बहाल होने का रास्ता साफ होने के साथ पार्टी में करंट ला कर इसको भुनाने की रणनीति बनाई जाने लगी.. इसका सकारात्मक असर मध्य प्रदेश में कब कितना कैसे पड़ेगा इसका इंतजार करना होगा.. क्योंकि भारत जोड़ो यात्रा को छोड़ दिया जाए तो राहुल गांधी ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही मध्य प्रदेश से दूरी बना रखी थी.. छत्तीसगढ़ राजस्थान में देर से ही सही अंदरूनी कलह को रोकने में अभी तक सफल रही कांग्रेस को मध्यप्रदेश में अभी भी किसी स्वीकार्य फार्मूले का इंतजार है.. जहां सर्वे, क्राइटेरिया, हाईकमान की सतर्कता व्यवस्था पर गिने-चुने लोगों की व्यक्तिगत पसंद चुनावी रणनीति को गड़बड़ा सकती है.. कर्नाटक की जीत से नेतृत्व और नीति निर्धारकों के हौसले पहले से हौसले बुलंद.. गठबंधन के स्वरूप के साथ सामने आए इंडिया का मध्य प्रदेश की राजनीति से सीधे कोई लेना-देना ना हो जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से लेकिन माहौल बनाने के साथ उसे सीधी चुनौती देने के लिए कई दूसरे हित साधे जरूर जा सकते हैं..

इससे पहले भारत जोड़ो यात्रा जो मध्य प्रदेश से भी गुजरी थी उसने खासतौर से राहुल गांधी की बढ़ती स्वीकार्यता और चुनाव जिताने का उनका माद्दा प्रदेश के कार्यकर्ताओं को संदेश दे चुका है कि तमाम झगड़े झंझट, पुरानी नई पीढ़ी के बीच महत्वाकांक्षा की टकराहट के बावजूद 2018 की तरह 2023 में भी कांग्रेस के लिए सरकार बनाने का एक और मौका मध्य प्रदेश में बरकरार.. कांग्रेस का मीडिया मैनेजमेंट जो पार्टी के कुछ प्रभावशाली नेताओं की अपनी पसंद ना पसंद से जुड़ा हो या अति आत्मविश्वास के चलते पार्टी हित से ज्यादा व्यक्तिगत राग द्वेष और संवाद समन्वय की कमी से प्रभावित देखा जा सकता.. कमलनाथ से ज्यादा उनके इर्द-गिर्द रहने वाले तय करते हैं कि उनके नेता से कौन मिलेगा और किसे नहीं मिलने दिया जाएगा.. सोशल मीडिया के इस दौर में राहुल गांधी की लाइन हो या फिर कमलनाथ की मीडिया को खरी खरी ऐसे में इवेंट सब कुछ नहीं लेकिन इसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता.. प्रबंधन के मोर्चे पर पार्टी ही नहीं उम्मीदवार के लिए कार्यकर्ताओं का साथ उनकी आवश्यकता और प्रचार प्रसार से माहौल बनाने के लिए जरूरी आर्थिक स्रोत.. भाजपा के मुकाबले कांग्रेस की कमजोरी मानी जा सकती है.. बदलते राजनीतिक परिदृश्य में कारण सिर्फ कांग्रेस के हौसले बुलंद होना नहीं बल्कि तमाम डैमेज कंट्रोल के बावजूद पीढ़ी परिवर्तन की टकराहट और विधायक मंत्रियों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी से जूझ रही भाजपा के सामने अंदरूनी समस्याएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही..

कांग्रेस अपने दम और रणनीति से ज्यादा भाजपा की कलह पर निर्भर होकर रह गई.. ऐसे में सवाल जीत की जमावट के लिए कांग्रेस द्वारा कई समितियों का गठन कर दिया जाना क्या यह सब कुछ पर्याप्त है.. क्योंकि भाजपा 2024 लोकसभा को ध्यान में रखते हुए 2023 की रणनीति बना रही है.. मोर्चा किसी और ने नहीं सख्त मिजाज और खरी खरी कहने में यकीन रखने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यहां संभाल लिया है..तो बड़ा सवाल आखिर कांग्रेस की मध्यप्रदेश में जीत और राहुल गांधी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता में इजाफा करने के लिए मध्यप्रदेश के लिए फाइनल स्क्रिप्ट आखिर क्या होगी.. इसमें कौन कैसे कहां फिट होगा और राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए मध्य प्रदेश में कमलनाथ को फ्री हैंड या फिर एडजस्टमेंट के नाम पर पुराने अनुभव के साथ 2024 को ध्यान में रखते हुए 29 लोकसभा वाले मध्यप्रदेश के लिए कोई नई पटकथा.. जहां 15 महीने की सरकार में युवा नेतृत्व की भरमार लेकिन राहुल की पसंद फ्रंट लाइन पर अभी तक नहीं आ सकी.. जुझारू जीतू पटवारी जैसे उनके भरोसेमंद नेताओं की घेराबंदी पार्टी के अंदर ही चर्चा का विषय बनी हुई है.. जिसे टिकट वितरण की लाइन से जोड़कर देखा जा रहा.. सवाल आखिर कांग्रेस हाईकमान के लिए मध्यप्रदेश में मुफीद क्या कैसे और कौन ..

चाहे वह रणनीति के मोर्चे पर हो या फिर टिकट का क्राइटेरिया.. प्रबंधन का त्रिस्तरीय फार्मूला और नेतृत्व ही नहीं जीत की गारंटी के लिए सबसे ज्यादा जरूरी असरदार मुद्दे.. और उनको धार देने के लिए सक्षम नेतृत्व.. क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर बेबाक राहुल की लाइन को आगे बढ़ाने में मध्य प्रदेश का नेतृत्व उसकी ताकत अभी तक साबित नहीं हो पाया.. मोदी. शाह .नड्डा के सामने राहुल. मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी तो शिवराज विष्णु दत्त. सिंधिया समेत दूसरे क्षत्रप और दिग्गजों के सामने सिर्फ कमलनाथ, दिग्विजय सिंह या फिर यह लाइन और आगे बढ़ाई जाएगी.. चुनावी रणनीति को अंजाम देने के लिए मोदी शाह की टीम मध्यप्रदेश में उतार दी गई है तो राहुल गांधी ने भी अपने भरोसेमंद पर दांव लगाया है.. भाजपा में सबकुछ अमित शाह पर निर्भर तो यहां कांग्रेस में कमलनाथ के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गया.. भाजपा के मुकाबले कांग्रेस हाईकमान की पकड़ मजबूत नहीं.. चुनौती डबल इंजन की सरकार से ऐसे में विकास भ्रष्टाचार परिवारवाद जैसे जीवंत और ज्वलंत मुद्दों से आगे जातीय समीकरण ही नहीं ध्रुवीकरण से जुड़े और दूसरे मुद्दों के बीच सवाल हिंदू मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान राष्ट्रवाद ,राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय मुद्दे या फिर कर्नाटक की तर्ज पर क्षेत्र विशेष पर कांग्रेस फोकस बनाएंगी.. यही नहीं नेतृत्व की स्पष्टता या फिर सामूहिक नेतृत्व ही नहीं राष्ट्रीय नेतृत्व और मध्य प्रदेश के बीच हो या राहुल गांधी और कमलनाथ की केमिस्ट्री पर खड़े होते रहे सवाल से ज्यादा सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी गणित का मैथमेटिक्स भी उसके लिए जरूरी होगा..

सवाल क्या सिर्फ कमलनाथ या अंदर खाने भविष्य की कॉन्ग्रेस के लिए सुविधा की सियासत के बावजूद नाथ और राजा की परफेक्ट जोड़ी ही सबकुछ या फिर इस विशेष अवसर पर संतुलन के लिए अभी एडजस्टमेंट के दूसरे विकल्प और दिल्ली के हस्तक्षेप से ज्यादा सीधा कमांड ज्यादा जरूरी है.. चुनाव कर्नाटक की तर्ज पर कांग्रेस लड़ना चाहेगी या मध्य प्रदेश का मिजाज उसे नए सिरे से रणनीति बनाने को मजबूर करेगा.. कमलनाथ को सीधा और खुलकर सीएम प्रोजेक्ट किया जाएगा या विधायक दल के नाम पर संतुलन के लिए सस्पेंस बना रहेगा.. क्यों कि नेतृत्व पर सवाल को पार्टी के अंदर दिल्ली से लेकर मध्य प्रदेश के नेताओं की सोच गाहे-बगाहे ही सही उसके कुनबे की कलह को उजागर करती रही.. एक से बढ़कर एक ये सवाल इसलिए क्योंकि मध्यप्रदेश में भी राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के साथ विधानसभा के चुनाव का माहौल गरमा चुका है.. अपने भविष्य को लेकर चिंतित दूरदर्शी कमलनाथ बहुत पहले नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़कर संगठन के मुखिया के नाते हर विधानसभा क्षेत्र में संगठन को मजबूत करने की जुगत में अभी भी जुटे हुए हैं.. इसका एक मकसद अपनी पसंद के वफादार उम्मीदवार को तलाशना और तराशना भी माना जा सकता.. अब चुनाव अभियान स्क्रीनिंग से जुड़ी समितियों के गठन के साथ टिकट के क्राइटेरिया और टिकट चयन की जद्दोजहद से अभी भी इनकार नहीं किया जा सकता.. एआईसीसी का सर्वे हो या कमलनाथ का व्यक्तिगत सर्वेक्षण .. हाईकमान के ऑब्जर्वरों की रिपोर्ट हो या फिर छत्रपों की पसंद ऐसे में कमलनाथ के वफादारों की अपने नेता से बढ़ती अपेक्षाएं.. यही नहीं भाजपा और दूसरे दलों में उपेक्षित नेताओं की कांग्रेस में एंट्री के साथ टिकट के बढ़ते दावेदार भी सामने आने लगे है.. अमित शाह और उनकी टीम ने मध्य प्रदेश में भाजपा की चुनावी कमान संभाल ली है ..

राहुल गांधी की अभी तक मध्यप्रदेश से फिलहाल दूरी के बीच प्रियंका गांधी के दौरे और सभाएं शुरू हो चुकी.. राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की नजर भी मध्यप्रदेश पर टिक चुकी है.. 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के रहते कांग्रेस को सरकार बनाने में जो फायदा खासतौर से ग्वालियर चंबल से मिला था वहीं कांग्रेस अब सिंधिया के विरोध को पार्टी में गुटबाजी का खात्मा मानकर ग्वालियर चंबल से आगे भी संभावनाएं तलाश रही.. प्रदेश कांग्रेस के सारे सूत्र कमलनाथ के पास जिनके दखल, वर्चस्व, रसूख ही नहीं अनुभवी दूरदर्शी, सक्षम, स्वीकार्य , अनिवार्य और उपयोगी नेतृत्व के सामने हाईकमान भी टिकता नजर नही आ रहा.. कुछ सवाल यदि नजरअंदाज कर दिए जाए तो भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर ज्यादा स्पष्टता.. फिर भी दूसरे बड़े नेता दिग्विजय सिंह को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.. कॉन्ग्रेस राजा को मैदान में कार्यकर्ताओं के बीच अपनी ताकत तो भाजपा ध्रुवीकरण के मोर्चे पर राजा को अपने लिए मुफीद मान लेती है.. दिग्विजय ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के साथ कदमताल कर अपनी उपयोगिता साबित कर मध्यप्रदेश में कांग्रेस के अंदर भविष्य को लेकर संगठन पर कब्जे की अपनी लाइन को भी आगे बढ़ाया है.. महाराजा सिंधिया के कांग्रेस से बाहर जाने के बाद दिग्गी राजा राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए मध्यप्रदेश में जरूरी तो कमलनाथ कांग्रेस के लिए मजबूरी बन चुके.. जो कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए कृत संकल्प लेकिन 23 का चुनाव हारे या जीते उससे ज्यादा नाथ के बाद की कॉन्ग्रेस के लिए दिल्ली में अपनी पकड़ बनाए रखते हुए पार्टी के भविष्य पर पकड़ की बिसात प्रदेश में बिछाने में विशेष दिलचस्पी लेते हुए देखे जा सकते हैं.. जो फिलहाल मैदान से लेकर टिकट वितरण में अपने संभावित वर्चस्व का संकेत हारी हुई 66 सीटों से आगे समर्थकों को दे चुके..

पार्टी के अंदर परसेप्शन यही बना हुआ है मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह हमेशा की तरह कमलनाथ के साथ लेकिन भविष्य की कांग्रेस में अपने समर्थकों और परिवार के लिए नई संभावनाओं पर पैनी नजर रखते हुए .. राजा हाई कमान से लेकर नाथ कांग्रेस के अंदर अपनी अहमियत और उपयोगिता का एहसास कराते हुए आगे बढ़ रहे.. सवाल राहुल गांधी की पसंद माने जाने वाले तेजतर्रार विधायक जीतू पटवारी हो या फिर उमंग सिंगार को पार्टी के अंदर हाशिए पर आखिर क्यों पहुंचा दिया.. अभी तक जो क्षत्रप कांग्रेस की कभी ताकत तो कभी कमजोरी साबित होते रहे.. उनमें यदि कांतिलाल भूरिया दिग्विजय सिंह की पसंद बनकर फ्रंट लाइन पर आदिवासी नेता के तौर पर मोर्चा संभाले हुए हैं.. तो पिछड़े वर्ग के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को लूप लाइन में रखते हुए कमलेश्वर पटेल को उनके मुकाबले उपयोगी साबित कर आगे बढ़ाया जा रहा.. जिससे न सिर्फ अरुण यादव बल्कि विंध्य के कद्दावर नेता अजय सिंह भी शायद खुश नहीं होंगे.. समितियों में इन्हें शामिल जरूर किया गया लेकिन निर्णायक और प्रभावशाली स्थिति में कोई भी नहीं.. चाहे फिर वह पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव की तरह सुरेश पचौरी ही क्यों न हो.. 2023 के चुनाव में महिला और युवाओं पर फोकस कर आगे बढ़ने का दावा करने वाली कांग्रेस के लिए ये छत्रप और उनके समर्थक क्या कमजोर या फिर मजबूत कड़ी साबित होंगे.. जिनके अपने क्षेत्र में युवा समर्थक मौजूद है ..

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