एक बात तो तय है कि अगर तीन बरस बीतते-बीतते लोकसभा के मध्यावधि चुनाव होने की स्थिति नहीं आई तो 2029 का आम चुनाव नरेंद्र भाई मोदी की अगुआई में तो नहीं होगा। आज ये दोनों बातें चरण चुंबन के चरम चारणों को चुभेंगी और वे अर्राते हुए पूछेंगे कि मध्यावधि चुनाव क्यों होंगे और अगले चुनाव पांच बरस बाद अपने तय वक़्त पर ही हुए तो नरेंद्र भाई के नेतृत्व में क्यों नहीं होंगे? सो, मैं आप को, दो नहीं, तीन बातें बताता हूं। एक, नरेंद्र भाई के अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाने की आशंका क्यों हैं? दो, मध्यावधि चुनाव की संभावना क्यो हैं? और तीन, वे कौन हैं, जिन के अगला प्रधानमंत्री बनने के सब से ज़्यादा आसार हैं?
बतौर प्रधानमंत्री ये पांच बरस नरेंद्र भाई इसलिए पूरे नहीं कर पाएंगे कि वे अपने पितृ-संगठन को झक्कू दे कर, उस से एक साल की मोहलत मांग कर और भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को गच्चा दे कर इस बार सिंहासन पर काबिज़ हुए हैं। बावजूद इस के कि यह तथ्य पूरा ज़ोर लगा कर खुरदुरे गलीचे के नीचे ठेलने की कोशिशें की गईं, यह हक़ीक़त सब के सामने पूरी तरह दिगंबर है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने पूर्व प्रचारक नरेंद्र भाई को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते नहीं देखना चाहता था। संघ के तीन उच्चाधिकारियों ने अगर उन्हें एक साल की मोहलत देने के लिए दिन-रात भागदौड़ न की होती तो इस बार वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाते।
भाजपा के भीतर भी एक बहुत बड़ा वर्ग यह ज़िम्मा किसी नरमपंथी को देने का हिमायती था। पूरी तैयारी थी कि भाजपा संसदीय दल की बैठक में दो-तीन दर्जन सांसद खड़े हो कर बाक़ायदा यह मांग करें। यही वज़ह है कि इस की भनक मिलते ही मोशा-मंडली ने पार्टी के संसदीय दल की बैठक नहीं बुलाने की बिसात बिछाई और एनडीए के सहयोगी दलों से परवारे ही समर्थन की चिट्ठियां इकट्ठी कर नरेंद्र भाई को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। संसद के दोनों सदनों में भाजपा के 330 सदस्यों में तीन चौथाई ऐसे हैं, जिन्हें यह फ़रेब भीतर तक झिंझोड़ रहा है और इस का दर्द कभी कम होने वाला नहीं है।
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर तीसरी बार विराजते ही नरेंद्र भाई के जैसे लक्षण सामने आए हैं, उन से यह साफ़ है कि वे अपनी पुरानी कार्यशैली में कोई बदलाव करने को कतई तैयार नहीं हैं। इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उस के आनुषंगिक संगठनों और भाजपा में संताप बढ़ता जा रहा है। ऊपर से ओढ़ी हुई शांति के भीतर का लावा जिस तरह खदक रहा है, वह अगले साल सितंबर में नरेंद्र भाई के 75 बरस की उम्र पूरी करते ही खुल कर रिसने लगेगा। चूंकि इस के पहले भाजपा तक़रीबन आधा दर्जन प्रदेशों के चुनाव हार चुकी होगी, एक-न-एक दिन यह सवाल लहीम-शहीम आकार लेगा ही कि क्या ज़्यादा ज़रूरी है – भाजपा को बचाना या नरेंद्र भाई को बचाना? बस, उसी दिन नरेंद्र भाई की ‘गरिमामयी’ विदाई का दृश्य देखने के लिए आप अपने को तैयार रखिए।
लेकिन अगर नरेंद्र भाई ने यह शालीनता दिखाने से इनकार कर दिया तो? इसी ‘तो’ में मध्यावधि चुनाव के बीज छिपे हैं। ऐसे में पूरे आसार हैं कि भाजपा दो-फाड़ हो जाए। उस का मोशा-भाजपा और पारंपरिक भाजपा में औपचारिक विभाजन हो जाए। यह परिस्थिति देश को मध्यावधि चुनावों की तरफ़ ले जाएगी। लोकसभा के 240 मौजूदा सांसदों में से सवा दो सौ तो इतने समझदार ज़रूर हैं कि वे जानते हैं कि जो नरेंद्र भाई 2024 में सारे पापड़ बेल लेने के बाद भी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं ला पाए, वे किसी मध्यावधि चुनाव में, या 2029 में, कहां से कोई चमत्कार दिखा देंगे? सो, ‘कमल’ के चुनाव चिह्न वाली पारंपरिक भाजपा की अगुआई नरेंद्र भाई के अलावा ही कोई कर रहा होगा। 2025 की अंतिम तिमाही से ले कर 2026 की पहली तिमाही तक भाजपा अगर साबुत रह भी गई तो 2029 के आम चुनावों के दो-ढाई साल पहले प्रधानमंत्री का चेहरा बदले बिना तो उस की वापसी की दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं बचेगी। इसलिए मैं कह रहा हूं कि लोकसभा का अगला चुनाव बीच में हो या सदन का कार्यकाल पूरा होने के बाद, उस का मुख्य किरदार नरेंद्र भाई नहीं होंगे।
अब आइए इस पर कि अगले चुनावों के पहले नरेंद्र भाई की जगह प्रधानमंत्री कौन बनेगा? मैं जानता हूं कि आप की निग़ाहें योगी आदित्यनाथ से ले कर अमित शाह और नितिन गड़करी तथा राजनाथ सिंह से ले कर शिवराज सिंह चौहान के चेहरों पर घूम रही हैं। मगर मैं आप को बताता हूं कि नरेंद्र भाई की विदाई के बाद अगर सब से ज़्यादा आसार किसी के प्रधानमंत्री बनने के बनेंगे तो वे होंगे जगदीप धनखड़। जी, राज्यसभा के सभापति और देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़। तमाम संसदीय परंपराओं से परे जा कर भरे सदन में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खुलेआम सर्वोत्तम तमगों से यूं ही विभूषित करने में नहीं जुटे हुए हैं। अपने जिस पितृ-संगठन को नरेंद्र भाई सरेआम ठेंगा दिखा रहे हैं और जिसे भाजपा-अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा सार्वजनिक तौर पर अक्षम और अप्रासंगिक करार दे चुके हैं, उस संघ के कसीदे धनखड़ ज़ोर-ज़ोर से ऐसे ही नहीं पढ़ रहे हैं।
नरेंद्र भाई की विदाई यह कह कर नहीं होगी कि वे 75 साल के हो गए हैं, इसलिए अब उन की ज़गह मार्गदर्शन मंडल में है। अमित भाई शाह साफ़ कह चुके हैं कि 75 वर्श की उम्र होने पर सेवानिवृत्ति का भाजपा के संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। सो, यह मत समझिए कि उम्र की सीमा का अडंगा धनखड़ के प्रधानमंत्री बनने की राह में आ पाएगा। अगर संघ ने योगी आदित्यनाथ को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने का फ़ैसला कर लिया तो धनखड़ को प्रधानमंत्री बना ही समझिए। जो संघ-भाजपा नरेंद्र भाई से उकता गए हैं, वे अमित भाई को तो वैसे ही उन का वारिस नहीं बनने देंगे। तो दौड़ में असली चेहरे तीन ही होंगे। गड़करी, योगी और शिवराज। नड्डा से ले कर देवेंद्र फडनवीस तक के नाम बस नाम के लिए चलते रहेंगे। सो, इन पेचोख़म के बीच धनखड़ की शक़्ल पर अपनी निग़ाहें गड़ा कर रखिएगा।
एक बात और। जो नरेंद्र भाई को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि उन के मन में एक दांव ने आकार लेना शुरू कर दिया होगा। यह दांव है अगला राष्ट्रपति बनने का। मौजूदा राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू का कार्यकाल 2027 की जुलाई के तीसरे सप्ताह में ख़त्म होगा। नरेंद्र भाई इस गुंताड़े में अभी से लगे होंगे कि कैसे वे अपने पितृ-संगठन को राज़ी करें कि वे प्रधानमंत्री का पद किसी और को सौंपने को तैयार हैं, बशर्ते मुर्मू के बाद उन्हें राष्ट्रपति बना दिया जाए। दांव, दांव है। लग भी सकता है। लेकिन मुझे तो यह उलटा पड़ता हुआ ही दिखता है। इसलिए कि नरेंद्र भाई की गच्चागिरी उन के हमजोली अच्छी तरह जानते हैं और वे यह भी जानते हैं कि जब नरेंद्र भाई ने प्रधानमंत्री रहते हुए देश को ऐसा ताताथैया करा दिया तो राष्ट्रपति बन कर तो वे मालूम नहीं हमें कौन-सा मोहिनीअट्टम कराने पर पिल जाएंगे! इसलिए उन के वन-गमन की घड़ी अब हर दिन तेज़ी से टिक-टिक करेगी।
लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।