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मोदीजी, मणिपुर की लाइव फिल्म देखिए!

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प्रधानमंत्री कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, द साबरमती रिपोर्ट फिल्मों की तारीफ करते हैं मगर सामने वास्तविक रूप से घट रहे मणिपुर पर आंखे मूंदे हैं। मोदी जी कहते हैं फिल्म देखो मगर असली मणिपुर को नहीं।… बताना केवल इतना था कि मणिपुर जैसी समस्याएं पहले भी आईं। मगर प्रधानमंत्रियों ने काम किया। उनसे निपटा। देश को सबसे उपर रखा। राजनीति को एकदम हटा दिया। तो समस्याएं खत्म हुईं। मणिपुर भी हो सकता है। मगर करना तो जैसा कहते है शहंशाहे वक्त को है! मतलब आज के शासक! प्रधानमंत्री को ही है।

मणिपुर की कहानी क्या है?

सबसे संक्षेप में यह कि मणिपुर में स्थिति सुधारने की कोई कोशिश ही नहीं है। इससे पहले पंजाब, जम्मू कश्मीर, तमिलनाडु, असम और दूसरे कई पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति हुई। और सभी जगह सीमा पार से। मगर किसी एक जगह को भी आपने हाल पर तो छोड़ने का सवाल ही नहीं वहां शांति के लिए देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों ने अपनी जान गवां दी। जबकि मणिपुर में हाल यह है कि सारा तनाव, अशांति घरेलू है। बाहरी हस्तक्षेप का कोई सबूत नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अशांति के बीच वहां एक बार भी नहीं गए। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी दो, दो बार हो आए हैं।

मणिपुर को मोदी सरकार ने अपने हाल पर छोड़ रखा है। वहां भाजपा सहित सभी दलों के विधायकों ने मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का साथ छोड़ दिया है। राज्यपाल मणिपुर छोड़कर चली गईं। अनुसुईया उइके बीजेपी की नेता थीं।  मगर उन्होंने कहा कि लोग प्रधानमंत्री मोदी के मणिपुर नहीं आने से निराश और दुःखी थे। इससे ज्यादा क्या होगा कि खुद मोदी द्वारा नियुक्त राज्यपाल, भाजपा की नेता रहीं सीधे सीधे प्रधानमंत्री के न जाने पर सवाल उठा रही हैं। मगर प्रधानमंत्री मोदी किसी की सुनने को तैयार नहीं। मनमोहन सिंह को मौन कहते थे। मगर खुद चुप्पी के सारे रिकार्ड तोड़ रहे हैं।

डेढ़ साल हो गए। स्थिति इतनी खराब हो गई है कि नदियों में लाशें तैरने जैसी खबरे है। बीरेन सिंह सरकार अल्पमत में आ गई है। मुख्यमंत्री द्वारा अभी 18 नवंबर को बुलाई गई बैठक में भाजपा के 37 में से 19 विधायक नहीं आए। मणिपुर में 60 सदस्यीय विधानसभा है। इसमें एनडीए बड़े बहुमत 53 विधायकों के साथ सत्ता में थी। इनमें से एनपीए ने 17 नवंबर को ही बीरेन सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। उसके 7 विधायक हैं।

अब मुख्यमंत्री के साथ कितने विधायक हैं, किसी को नहीं पता। आखिरी मीटिंग में केवल 26 विधायक शामिल हुए थे। जो बहुमत से कम हैं। भाजपा सहित हर पार्टी के नेता वहां मुख्यमंत्री पर अक्षमता के साथ जनता में विभाजन को बढ़ाने का आरोप लगा रहे हैं। मगर भाजपा न तो उन्हें हटा रही है और न मोदी सरकार वहां राष्ट्रपति सरकार लगा रही है। और एक बात जो कम लोगों को पता है कि वहां राज्यपाल उइके को हटाने के बाद कोई पूर्णकालिक राज्यपाल ही नहीं है। इतनी खराब स्थिति वाले राज्य में असम के राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य को अतिरिक्त जिम्मेदारी दे रखी है।

प्रधानमंत्री कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, द साबरमती रिपोर्ट फिल्मों की तारीफ करते हैं मगर सामने वास्तविक रूप से घट रहे मणिपुर पर आंखे मूंदे हैं। मोदी जी कहते हैं फिल्म देखो मगर असली मणिपुर को नहीं।

समझना तो जनता को चाहिए। मगर यह सच है कि जनता अपने आप कम ही समझ पाती है। उसे समझाना पड़ता है। बताना। मगर मीडिया ने तो यह काम बंद कर दिया है। वह तो महजनों येन गत: स पन्था के रास्ते पर चल रहे हैं। मगर उस मार्ग या अर्थ पर नहीं जो युधिष्ठर ने यक्ष के प्रश्न के उत्तर में बताया था। धर्म का रास्ता, पूर्वजों के तप बलिदान का रास्ता। बल्कि वह जो पंचतंत्र की कहानी में आता है चार युवकों का जिन्होंने पोथी खोलकर देखा और पीछे पीछे चल पड़े। श्मशान पहुंच गए!

तो मीडिया मोदी जी के पीछे पीछे चलता है। और फिल्मों की तारीफ करता है मगर मणिपुर जाकर कोई रिपोर्ट नहीं बनाता है। टीवी स्टूडियो में फिल्मों पर डिबेट होती है मगर असली जल रहे मणिपुर पर नहीं।

लोग भूल गए है कि कैसे जलते हुए पंजाब को इन्दिरा गांधी ने बचाया था। अपनी जान कुर्बान कर दी। मगर पंजाब में वापस अमन चैन भाईचारा ला दिया। वह पत्रकार अभी हैं, अफसर हैं, नेता हैं जिन्होंने चार दशक पहले का पंजाब देखा है। क्या लगता था?  कैसे बचाएंगे? मगर नेता ऐसे ही होते हैं। इन्दिरा गांधी ने बड़े निर्णय लिए। आलोचनाओं में घिरीं। आज तक कांग्रेस पर सवाल होते हैं। मगर पंजाब बच गया।

कश्मीर। 24 घंटे का कर्फ्यू होता था। 1990 में जब हम वहां गए। हम जैसे एक सामान्य पत्रकार को राज्यपाल चेतावनी देते थे कि या तो हम आपको सुरक्षा देंगे या आपका घूमना प्रतिबंधित कर देंगे। हम कहते थे हमारे पास आपके प्रशासन का दिया कर्फ्यू पास है। गवर्नर गैरी सक्सेना और गुस्सा होकर कहते थे इसे देखकर आतंकवादी छोडेंगे नहीं। क्रास फायरिंग में यह कवच का काम नहीं करेगा। ऐसे कठिन हालात थे। लेकिन 1991 में केन्द्र में कांग्रेस सरकार आने के बाद वहां स्थिति सामान्य बनाने की प्रक्रिया तेज हुई। वहां तो पाकिस्तान का सीधा हस्तक्षेप था। और पाकिस्तान के कंधे पर चीन अमेरिका दूसरे पश्चिमी देशों का हाथ था। यह अपने आप में एक ही उदाहरण है जब चीन और अमेरिका दोनों साथ हों। मगर केन्द्र सरकार की मजबूती से हालातों में सुधार आना शुरू हुआ।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया वापस शुरू होना बहुत मुश्किल काम था। मगर की गई। और 1996 में विधानसभा के चुनाव हुए। और पाकिस्तान को करारा जवाब मिला। उसके बाद तो अब इतिहास है कि कैसे लगातार समय पर चुनाव होते रहे। 1996 के बाद 2002 फिर 2008 और फिर 2014। और फिर सबको मालूम है कि 2014 में मोदीजी आ गए। और चुनाव फिर सीधे 10 साल बाद करवाए। अभी 2024 में। खैर वह कहानी अभी नहीं लिख रहे। बता यह रहे हैं कि कैसे मणिपुर से पहले अशांत राज्यों में केन्द्र सरकारों ने काम किया। और वापस नार्मलसी स्थापित की।

सब सीमावर्ती राज्य थे। हर केन्द्र सरकार जानती थी कि छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। वहां शांति स्थापित करना पड़ेगी। असम। राजीव गांधी ने शांति समझौता किया। अभी सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मोहर लगाई। असम में राजीव गांधी ने अपनी सरकार बनाने के लिए काम नहीं किया। आज असम भी अपेक्षाकृत शांत है।

और तमिलनाडु! लिट्टे की गंभीर समस्या श्रीलंका से तमिलनाडु तक आ गई थी। यहां भी राजीव गांधी को उसी तरह एक बड़ा फैसला लेना पड़ा जैसा इन्दिरा गांधी को पंजाब में। राजीव गांधी को मालूम था कि पंजाब में शांति स्थापित करने की कीमत उनकी मां भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को अपनी जान देकर चुकाना पड़ी थी। मगर जैसा की हमने उपर पहले ही लिखा कि नेता तो ऐसे ही होते हैं। राजीव गांधी ने लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका की सहायता की। और जैसे इन्दिरा गांधी के साथ हुआ यहां भी लिट्टे के लोगों ने राजीव गांधी की जान ले ली। बहुत बड़ी कीमत चुकाना पड़ी। देश को, कांग्रेस को और परिवार को।

6 साल में परिवार के दो लोगों ने शहादत दी। है कहीं और ऐसा इतिहास में? राहुल प्रियंका का बचपन जैसा बीता है अकेलेपन में। दादी, पिता दोनों की हत्या। अकेली मां सोनिया गांधी ने पाला। और खतरा चारों तरफ से। आतंकवाद का तो था ही। राजनीतिक विरोधियों का अलग। वह कांग्रेस में भी थे और भाजपा के तो थे ही। मगर ऐसी परिस्थितियों में भी राहुल प्रियंका किसी के मन में विद्वेष की भावना नहीं आई। खैर वह सब लिखना भी अभी उद्देश्य नहीं है।

बताना केवल इतना था कि मणिपुर जैसी समस्याएं पहले भी आईं। मगर प्रधानमंत्रियों ने काम किया। उनसे निपटा। देश को सबसे उपर रखा। राजनीति को एकदम हटा दिया। तो समस्याएं खत्म हुईं। मणिपुर भी हो सकता है। मगर करना तो जैसा कहते है शहंशाहे वक्त को है! मतलब आज के शासक! प्रधानमंत्री को ही है।

अब वे क्या करते हैं! कैसे करते हैं ! यह तो खुद उनकी पार्टी में कोई नहीं बता सकता। तो हम पत्रकार क्या कहेंगे! बस इतना कर सकते हैं कि लिख दें। ताकि सनद रहे। वक्त जरूरत काम आए!

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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