पंकज त्रिपाठी ने अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका की है। बोलते हुए कहां कितना पॉज़ देना है, कहां सिर झटकना है, क्या पोस्चर रखना है और बोलने का लहजा, यह सब पंकज ने पकड़ा है। लेकिन वे आवाज़ का क्या करते? आवाज बता देती है कि ये तो पंकज त्रिपाठी बोल रहे हैं। फ़िल्म काफ़ी कुछ संवादों पर निर्भर है, मगर कई मौकों पर वे उपदेश जैसे लगते हैं। …वास्तव में, इस फ़िल्म में कहानी कहने की कला ही गायब है। यह तो बस घटनाओं का एक सिलसिला भर है।
परदे से उलझती ज़िंदगी
वरिष्ठ पत्रकार टीआर रामचंद्रन ने एक बार एक वाक़या सुनाया। सन 2004 के लोकसभा चुनाव के मतदान के तुरंत बाद वे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने गए। वह चुनाव चार चरणों में हुआ था। चौथे चरण का भी मतदान हो चुका था और वोटों की गिनती में दो दिन बाकी थे। ऐसे में उन्होंने वाजपेयी से मिलने का समय मांगा और नियत समय पर प्रधानमंत्री निवास पहुंच गए। रामचंद्रन के पूछे कुछ सवालों के बाद खुद वाजपेयी ने उनसे पूछा- ‘राम, तुम्हें क्या लगता है, हमारी कितनी सीटें आ रही हैं?’ रामचंद्रन ने कहा- ‘मेरे हिसाब से करीब 220 सीटें आएंगी।‘ वाजपेयी ने उनकी बात सुनी और आंखें बंद कर लीं। कुछ सोचते रहे। फिर करीब एक मिनट बाद आंखें खोलीं और बोले- ‘ज़्यादा बता रहे हो।‘ और हंस पड़े। यह एक ऐसे प्रधानमंत्री की हंसी थी जिसके पास या तो सूचनाएं थीं या जिसने मीज़ान लगा लिया था कि वह हार रहा है। ऐसी ज़िंदादिली कम ही नेताओं में दिखेगी।
यह वही चुनाव था जिसमें ‘शाइनिंग इंडिया’ का नारा धरा रह गया था और भाजपा को केवल 138 सीटें मिली थीं। अगर आप दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी को याद करेंगे तो किसी न किसी रूप में यह चुनाव भी याद आएगा। लेकिन उनकी बायोपिक ‘मैं अटल हूं’ में इस चुनाव का जिक्र ही नहीं है। इस फ़िल्म की कहानी तो कारगिल युद्ध तक आकर ही समाप्त हो जाती है। मतलब यह कि इसमें वाजपेयी का निधन भी नहीं है और उनकी अंतिम यात्रा भी नहीं है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा मुख्यालय से सदैव अटल स्मृति स्थल तक पैदल चले थे।
लगता है कि निर्माता विनोद भानुशाली और संदीप सिंह के साथ लेखक-निर्देशक रवि जाधव ने भी एक बड़ा अवसर गंवा दिया है। रवि जाधव पहले ‘बालगंधर्व’ की बायोपिक बना चुके हैं जिसे 2011 में तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। उससे पहले अतुल कुलकर्णी और सोनाली कुलकर्णी को लेकर उन्होंने ‘नटरंग’ बनाई थी जो 2010 के राष्ट्रीय पुरस्कारों में मराठी की श्रेष्ठ फीचर फिल्म मानी गई थी। फिर अपने बेटे की पढ़ाई के लिए न्यूड मॉडलिंग करने वाली एक महिला की कहानी पर बनी उनकी फ़िल्म ‘न्यूड’ भी खासी चर्चित हुई। हिंदी में उन्होंने रीतेश देशमुख और नरगिस फाखरी के साथ ‘बैंजो’ और सुष्मिता सेन वाली वेब सीरीज़ ‘ताली’ बनाई हैं। मराठी सिनेमा में रवि जाधव स्क्रिप्ट में बारीकियों का ध्यान रखने वाले फ़िल्मकार के तौर पर ख्यात हैं। हैरानी की बात है कि ‘मैं अटल हूं’ में वे इसी मामले में पिछड़ गए, जबकि उन्होंने खुद ऋषि विरमानी के साथ इसे लिखा भी है।
सवाल है कि किसी राजनीतिक हस्ती की जीवन कथा लिखी जाए या उस पर फ़िल्म बने तो क्या उसे इतिहास कहेंगे? शायद नहीं, क्योंकि उसके व्यक्तित्व को उभारने के लिए उसके समकालीनों को कम या कमतर दिखाना पड़ता है। जबकि निर्णायक भूमिका किसी की भी रही हो, लेकिन किसी कालखंड की परिस्थितियों और घटनाओं को गढ़ने वाले और उनसे अपनी-अपनी तरह से निपटने वाले कई प्रमुख लोग हो सकते हैं। उस दौर की गाथा अथवा कथानक में उन सबका हिस्सा और अधिकार होता है। लेकिन अपने यहां पिछले कुछ सालों से जो राजनीतिक फ़िल्में बनाई जा रही हैं उन्हें कम से कम इतिहास की निगाह से नहीं देखना चाहिए। चाहे ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ हो या ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ हो या अब रिलीज़ हुई ‘मैं अटल हूं’ हो।
आज के चर्चित अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका की है। बोलते हुए कहां कितना पॉज़ देना है, कहां सिर झटकना है, क्या पोस्चर रखना है और बोलने का लहजा, यह सब पंकज ने पकड़ा है। लेकिन वे आवाज़ का क्या करते? आवाज बता देती है कि ये तो पंकज त्रिपाठी बोल रहे हैं। फिर कई जगह उनके हाथों का मूवमेंट इतना तेज और ज़्य़ादा है कि नाटकीय लगता है। यह फ़िल्म काफ़ी कुछ संवादों पर निर्भर है, मगर कई मौकों पर वे उपदेश जैसे लगते हैं। आवाज़ की ही तरह पंकज स्क्रिप्ट का क्या करते जिसका उनके प्रयासों से तालमेल नहीं है। वास्तव में, इस फ़िल्म में कहानी कहने की कला ही गायब है। यह तो बस घटनाओं का एक सिलसिला भर है।
‘द अनटोल्ड वाजपेयी: प़लिटीशियन एंड पैराडॉक्स’ नाम की एक किताब है जिसे पत्रकार उल्लेख एनपी ने लिखा है। हुआ यह कि ‘मैं अटल हूं’ फ़िल्म के निर्माताओं और उल्लेख के बीच विवाद अदालत तक जा पहुंचा। पिछले अक्टूबर तक यह मामला बॉम्बे हाईकोर्ट में चल रहा था। इससे भाजपा और संघ से संबंधित कई लोगों को आशंका हुई कि कहीं इस फ़िल्म की कहानी वामपंथी नज़रिये से तो नहीं लिखी गई। यानी कहीं इसमें वाजपेयी की छवि को नुक्सान तो नहीं पहुंचाया जाएगा। शायद इसीलिए, फिल्म के शुरू में बाक़ायदा बताया गया है कि यह फ़िल्म सारंग दर्शने की मराठी पुस्तक ‘कविहृदयाच्या राष्ट्रनेत्याची चरितकहाणी’ से प्रेरित है। इसके निर्माताओं में शामिल संदीप सिंह वही हैं जो ‘मैरी कॉम’, ‘अलीगढ़’, ‘भूमि’ और ‘झुंड’ बना चुके हैं और जिन्होंने सुरेश ओबराय के साथ मिल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ भी बनाई थी। इन संदीप सिंह का अपनी एक और फ़िल्म ‘सावरकर’ को लेकर भी अभिनेता और निर्देशक रणदीप हुडा से कानूनी झंझट चल रहा है।
बहरहाल, वामपंथी नज़रिए की आशंका गलत निकली। उलटे इस फ़िल्म में राम मंदिर और हिंदुत्व के उभार का सकारात्मक बखान है जिससे यह किसी पार्टी का फ़िल्मी अभियान लगती है। दिक्कत यह है कि वह भी सलीके से नहीं किया गया। फ़िल्म में आज़ादी से पहले की कुछ घटनाएं, वाजपेयी का छात्र जीवन, उनका संघ से जुड़ना, उनके परिवार के बारे में कुछ बातें, खास कर पिता की सीख, संघ के प्रचारक के तौर पर वाजपेयी का काम, राजनीति में उनका आगमन, संसद में उनकी प्रखरता, जनसंघ वाला दौर, जनता दल में जनसंघ का विलय, वाजपेयी का विदेश मंत्री बनना, फिर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना, वाजपेयी का अध्यक्ष बनना और फिर प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की घटनाएं हैं। उनके समय का 1998 वाला परमाणु बम परीक्षण भी है, लाहौर की उनकी बस यात्रा और कारगिल युद्ध है। उनकी लाल कृष्ण आडवाणी से दोस्ती है, सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, अरुण जेटली से उनके संबंध भी हैं। उनके परिवार का जिक्र उनके समय में मीडिया में नहीं होता था। उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन पर बनने वाली फिल्म में उनका प्रेम ही नहीं, प्रेम गीत भी होगा।
फिल्म में पिता के रूप में पीयूष मिश्रा हैं तो राजकुमारी कौल की भूमिका में एकता कौल हैं। राजा रमेश सेवक ने लाल कृष्ण आडवाणी, दयाशंकर पांडे ने दीनदायल उपाध्याय और पायल कपूर नायर ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई है। एक-दो को छोड़ ज़्यादातर कलाकारों ने काम भी ठीक किया है। फिर भी, वाजपेयी और उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ नया आपको जानने को नहीं मिलता। आम तौर पर लोग वह सब पहले से जानते हैं जो यह फ़िल्म दिखाती है। अनेक राजनीतिकों और पत्रकारों को उनके बारे में इससे कहीं ज़्यादा चीज़ें मालूम होंगी। वाजपेयी से संबंधित कोई सूक्ष्म राजनीतिक विचार या पहलू या कोई गंभीर बहस भी इसमें नहीं है। इसलिए तकनीकी तौर पर बेहतर होते हुए भी, कुछ लोगों को यह फिल्म डॉक्यूमेंट्री जैसी लग सकती है। बस एक के बाद एक, घटनाएं गुज़रती जाती हैं। वह भी सुविधानुसार, यानी कई घटनाओं और नेताओं को नहीं भी दिखाय़ा। और जो दिखाया उसमें तारतम्य, गहराई और वह प्रक्रिया गायब है जो बताए कि अटल जैसे थे वह वे कैसे बने। उनके बहुत से चाहने वालों की इच्छा रही होगी कि उन पर कोई फ़िल्म बने। ‘मैं अटल हूं’ उस मुराद पर खरी नहीं उतरती।
इसमें उन मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है जो आज के संदर्भ में उनकी पार्टी के लिए उपयोगी रहें। वाजपेयी की ख़ूबी थी कि उन्हें अपनी पार्टी के बाहर वाले लोग और नेता भी पसंद करते थे। लेकिन इस फ़िल्म में वाजपेयी के अलावा कोई और चरित्र ठीक से उभरा ही नहीं। कांग्रेस और भाजपा के बीच की राजनीतिक लड़ाई को एक पक्षीय तरीके से दिखाया गया है। खास कर इंदिरा गांधी, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के चेहरे के भाव ऐसे हैं मानो वे विलेन हों। इसकी वजह से इस फ़िल्म पर प्रोपेगेंडा का आक्षेप भी लग सकता है।
अटल बिहारी वाजपेयी कवि थे, प्रेमी थे, हिंदी प्रेमी थे और खाने और पीने के भी प्रेमी थे। साथ ही बेहद विनोदी थे। उनके गुस्से या दुख-तकलीफ़ का बयान करने वाले बहुत कम लोग मिलेंगे, लेकिन उनके मज़ाक सुनाने वाले ढेरों मिल जाएंगे। एक बेहतरीन वक्ता के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा थी। बहुत से लोग तो केवल उनकी भाषण-कला के चक्कर में उनकी रैलियों में पहुंच जाते थे। निश्चितता, स्पष्टता या एकरूपता की बजाय ये भाषण स्थान और श्रोताओं के हिसाब से बदलते रहते थे। यानी यहां-वहां, सब जगह, सब खुश। एक राजनीतिक के तौर पर विरोधी दलों के साथ-साथ अपनी पार्टी के नेताओं को भी चौंकाने और हतप्रभ कर सकने की क्षमता वाजपेयी में थी। और सबसे बड़ी बात यह कि, दलीय बाध्यता में कई जगह चूक जाने के बावजूद, वे भीतर से लोकतांत्रिक थे, जो कि अब एक दुर्लभ गुण है। यह फ़िल्म उनका यह स्वरूप नहीं उकरे पाई। उनके वक्त के बहुत से नेता इसमें दिखते हैं, पर वे इतने छोटे और हल्के दिखाए गए हैं कि वाजपेयी को भी हल्का बना देते हैं। बॉलीवुड राजनेताओं की बायोपिक बनाने में एक बार फिर कमज़ोर निकला।