चुनावी दल और कार्यकर्ता
भोपाल। बदलते चुनावी परिवेश में प्रचार और प्रबंधन ने ऐसा बघार लगाया है कि सारे मानक उलटपुलट हो रहे हैं। अपने पैसे खर्च कर महीनों, हफ़्तों और वोटिंग के दिन काम करने वाले कार्यकर्ताओं की भागीदारी घट रही है। हरेक दल में यह हर चुनाव में गहरे तक पैठ बना रहा है। पुराने नेता-कार्यकर्ता मुंह फाडे हक्के बक्के नैतिकता के चढ़ाव का उतार देख रहे हैं। उनकी मनोदशा को व्यक्त करने मशहूर हास्य कवि काका हाथरसी की दो पंक्तियां काफी है-
“बुझ चुका है तुम्हारे हुस्न का हुक्का।
ये तो हमीं है जो गुड़गुड़ाए जाते हैं…”। संगठन के प्रति समर्पित कार्यकर्ता को पता है बदलती सियासत में वे अप्रसांगिक हो रहे हैं। पार्टी का उनके प्रति चिंता करने और प्रेम करने का भाव सफाचट्ट हो गया है। चंपू, चापलूस, मौकापरस्त,दलाल और दलबदलुओं का वर्चस्व हो गया है। ज्यादातर निर्णायक उनसे ही घिरे हुए हैं।
भाजपा की जन आशीर्वाद रैलियां भी उम्मीद के हिसाब से प्रभाव छोड़ने में सफल होती नही दिखी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 25 सितम्बर की सभा मे अलबत्ता जनसमूह दिग्गजो को राहत दिला सकता है। जन आशीर्वाद यात्रा में कार्यकर्ताओं को बड़ी संख्या में टिकट कम, सम्पर्क व संवाद के साथ काम ज्यादा मांगा है। भोपाल के पास के जिले में एक पूर्व विधायक ने अपना टिकट कटने के बाद यह कहा कि वह टिकट मांगने की जिद नहीं कर रहा लेकिन उसे कोई दायित्व मिल जाए तो बेहतर है। कम से कम थोड़ा मान तो बचेगा जनता के बीच में। ये हांडी के एक चावल की तरह समझने की बात है। काम करने वाले कार्यकर्ताओं का यही दर्द है। इसका समाधान नही होने पर असंतुष्ट नेता कार्यकर्ता के बागी होने के रास्ते खोलते हैं।
कमोबेश ऐसे ही हालात कांग्रेस में हैं। पूर्व सीएम दिग्विजयसिंह पीसीसी चीफ कमलनाथ के साथ नए प्रभारी रणदीव सिह सुरजेवाला को भी कार्यकर्ताओं को टिकट में संतुलन बनाने के साथ उन्हें महत्व देने के साथ जिम्मेदारी की भी है ताकि असन्तोष और बगावत को कम किया जा सके। भाजपा के साथ कांग्रेस भी डेमेज कंट्रोल के लेकर चिंतित है। इसलिए उम्मीदवारों की सूची जारी होने में देरी हो रही है। अनुमान है अक्टूबर के पहले हफ्ते तक पहली सूची आ जाए।
सभी दलों में कारपोरेट कल्चर को लेकर भांग घुली हुई है। चाहे जनता के आंदोलन से उपजी कांग्रेस हो, चाल चरित्र और चहरा बदलने वाली भाजपा, समाजवादी आंदोलन से परिवारवादी सपा, बसपा, राजद और हाल ही में अन्ना आंदोलन से पैदा हुई आम आदमी पार्टी। हमाम में सब की सब निर्लज्जता के साथ निर्वस्त्र हैं। विचारों के प्रति समर्पित बड़ों से लेकर मुहल्ले के छुटभैये नेता-कार्यकर्ताओं का गायब होना शामिल है। अपना समय और धन लगाने वाले ये पागल काम में ऐसे जुटते थे मानो घर मे लड़की की शादी है और ये सब उसके चाचा, मामा और भाई हैं। अपने विरोधियों से तर्क कुतर्कों से बहस करने से लेकर हाथापाई तक करने का जज्बा होता था। दिल्ली में पार्टी हार जाए तो दुख में ये दुबले हो जाते थे। नारे गढ़ना,लिखना, बैनर पोस्टर लगाना, सभाओं की तैयारी में भोंपू से प्रचार करना इनके जुनून का हिस्सा होता था। मगर कारपोरेट कल्चर में बदलते इलेक्शन में जो चुनावी प्रबंधन का बघार लग रहा है उसमें कार्यकर्ता नाम का प्राणी पहले बहुत उदासीन और अब गुम होने लगा है।
रूस में तो युद्ध भी भाड़े की फौज से…
हर काम भाड़े की फौज से कराने के कारण खर्च बढ़ रहा है। अब तो रूस जैसे देश ने नियमित सेना के साथ यूक्रेन युद्ध मे भाड़े की सेना से जंग भी लड़नी शुरू कर दी है। इधर भारत की राजनीति में भी पार्टीयों ने चुनाव प्रचार उम्मीदवार चयन में रायशुमारी , रैली, आम सभा, बैनर- पोस्टर लगाना कार्यकर्ताओं के लिए भोजन- पानी का इंतजाम करना,उन्हें लाने , लेजाने जैसे सब काम ठेके पर देने का सिलसिला जोरों पर है। कार्यकर्ता तो पार्टी के बुझे हुए हुक्के को गुड़गुड़ाने का काम शायद एक दो चुनाव तक और कर पाएगा। तब तक पीढ़ियों वाले परिवर्तन भी जाएंगे।