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विधानसभा चुनाव: विपक्ष से अधिक असंतुष्टों से खतरा..?

चुनाव

भोपाल। मध्य प्रदेश की राजनीति ने अब ‘सेवा’ नहीं ‘कुर्सी’ अधिक महत्वपूर्ण हो गई है, शायद इसीलिए राज्य विधानसभा की 230 सीटों के लिए सभी दलों को मिलाकर कुल सीटों से 10 गुना से अधिक उम्मीदवार सामने आ रहे हैं, यह स्थिति राज्य के सिर्फ दो प्रमुख दलों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की है यदि उत्तर प्रदेश की तरह यहां भी बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तथा दिल्ली पंजाब की तरह आम आदमी पार्टी सक्रिय होती तो टिकिटार्थियों की संख्या और भी कई गुना बढ़ जाती। अगले महीने जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, उन राज्यों में राजनीतिक अफरातफरी के दौर जारी हैं, चूंकि नामांकन के अभी 3 दिन और शेष बचे हैं, इसलिए राजनीतिक पारा भी दिनों दिन ऊपर चढ़ता जा रहा है, इसी कारण टिकटों की घोषणा के बाद भी प्रत्याशी बदलने का दौर शुरू हो गया है। जिसे टिकट नहीं मिली, वही ‘असंतुष्ट’ की श्रेणी में शामिल हो जाता है और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पार्टी प्रत्याशी के सामने चुनौती खड़ी करने का प्रयास करता है। यह चलन राजनीति में कोई नया नहीं है, किंतु राजनीतिक चिंता का विषय यह है कि इसका अत्यधिक विस्तार हो गया तो मूल राजनीतिक भावना का क्या होगा?

आज स्थिति यह है कि देश में हर वर्ग में राजनीतिक ‘ललक’ बढ़ती जा रही है, क्योंकि यही एक ऐसा क्षेत्र बनकर रह गया है, जहां “व्यक्ति पूजा” के साथ पर्याप्त रूप से स्वार्थ की पूर्ति होती है। इसी कारण आज के युवा वर्ग में भी राजनीति के प्रति लगाव बढ़ने लगा है और आज की राजनीति बेरोजगारों के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र बन गई है और स्थापित नेताओं के “चरण चुंबन” की प्रवृत्ति भी बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।

जहां तक आज के राजनीतिक दलों का सवाल है, ये अपने विरोधी दलों को उनके नेताओं की अपेक्षा अपने ही दलों के ‘असंतुष्टों’ या ‘बगावती’ शख्सों से ज्यादा भयभीत रहने लगे हैं, क्योंकि आज का आलम तो यह है कि जिसे टिकट नहीं मिला, वही उसी क्षण ‘बगावती’ हो जाता है और पार्टी के सामने चुनौती बने का प्रयास करता है। इसका ताजा उदाहरण मौजूद विधानसभा चुनाव है, जहां विधानसभा की कुल सीटों से 10 गुना से अधिक प्रत्याशी अभी से सामने नजर आने लगे हैं, यह स्थिति भाजपा व कांग्रेस दोनों ही प्रमुख दलों में है, अब पार्टी की भी मजबूरी यह है कि कहीं उसे वंशवाद को प्रश्रय देना पड़ता है, तो कहीं राजनीतिक दबाव को, जबकि मूल मुद्दा जीत सकने वालों को ही टिकट का होना चाहिए।

…. लेकिन आज की मूल जरूर यह है कि मौजूदा विधानसभा चुनाव को भावी चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, क्योंकि इन चुनावों के बाद मात्र 100 दिन के अंतराल से ही लोकसभा के चुनाव होना है, इसीलिए इस बात की कल्पना करके की इन चुनावों के परिणाम क्या भावी राजनीतिक तस्वीर पेश करेंगे? इसकी अपेक्षा यह कयास लगाना चाहिए कि इन विधानसभा चुनावों के बाद प्रदेश की राजनीतिक तस्वीरें कैसी होगी? क्योंकि यह सोचना व्यर्थ है की यह विधानसभा चुनाव मोदी या भाजपा के भविष्य की तस्वीर पेश करेंगे? वास्तव में भारत का आम मतदाता अब उतना अपरिपक्व नहीं रहा, जैसा की ये दल सोचते हैं, वह काफी समझदार वह परिपक्व है, उसे देश प्रदेश का भी पूरा ध्यान है, इसीलिए राजनीतिक दलों को भी अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए।

इसलिए राजनीतिक दलों को भी अपनी धारणा बदलना पड़ेगी, क्योंकि अब आम मतदाता राज्य और केंद्र की राजनीति के साथ देश व आम आदमी के हित से पूरी तरह परिचित हो गया है, इसीलिए राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामों से केंद्र के राजनीतिक भविष्य का चिंतन व्यर्थ है। दोनों की क्षेत्रों के चुनाव का महत्व आम मतदाता भली प्रकार समझता है। संभवत: आम मतदाता के इसी ज्ञान को लेकर राजनीतिक दल भी अपने भविष्य को लेकर काफी चिंतित है। इसी कारण से मौजूदा परिप्रेक्ष्य में विधानसभा व लोकसभा के चुनावों का महत्व बढ़ गया है, अब देखते हैं… “राजनीतिक ऊंट” दोनों ही जगह में किस करवट बैठता है?

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