भोपाल। मतदान के रूप में लोकतंत्र का उत्सव नेताओं के कर्मों का लेखाजोखा है और इसके फल उनकी मां स्वरूप पार्टियों को भुगतने पड़ते हैं। इसमे जनता से आपके सम्बन्ध, सहजता, सरलता और सदा सहयोग करने के सद्गुणों के साथ रिश्वतखोरी, गुंडागर्दी, धमण्ड, अनदेखी अय्याशी करने जैसे कर्मों पर हार-जीत का दारोमदार रहेगा। बारह नवंबर को दीपावली और उसके बाद यम द्वितीया का पर्व भी धार्मिक रीति रिवाज के अनुसार संपन्न हो गया। यम को हमारे कर्मों का हिसाब रखने और उसके अनुरूप फल देने के रूप में भी देखा जाता है। जम्हूरियत में ये जिम्मा जनता के हाथ में होता है। मध्यप्रदेश में सभी 230 विधानसभा सीटों पर 17 नवंबर को मतदान है और उम्मीदवारों के साथ उनके परिवार जनों के कर्मों का भी हिसाब किताब मतदाता करेंगे।
हमारे यहां तो चुनाव जीतने के बाद यदि कोई नेता किसी के नमस्कार का जवाब मुस्कुरा कर न दे तो वोटर इसकी भी गांठ बांध वक्त आने पर हिसाब चुकता करने का मानस बना लेते हैं। ऐसे में 24/7 अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। 100 दिन मदद करिए और एक दिन भी अगर चूक गए तो चुनाव के दिन उसका भी हिसाब होता है। इसलिए सियासत में बहुत कुछ चल सकता है लेकिन अहंकार बिल्कुल भी नहीं। इसमें कई दफा ऐडे बनकर पेड़ा खाने वाले और कंबल ओढ़कर घी पीने वाले खूब सफल होते देखते हैं। इसमे भाग्य की भी बड़ी भूमिका होती है।
चुनाव में पैसे का खूब बोलबाला होता दिखता है अब तो मतदाताओं के साथ टिकटों के खरीदने का भी चलन चल पड़ा है। यह उम्मीदवारों के लिए बहुत ही दुखदाई है। एक तो यम रूपी वोटर मतदान के दिन उनके कर्मों का हिसाब किताब कर निर्णय ईवीएम मशीन में बंद कर देते हैं। जरा भी गलती हुई तो पराजय के परिणाम आते देर नही लगती। दूसरी तरफ टिकट खरीदने और मतदाताओं को लुभाने के लिए पैसे को पानी की तरह बहाना पड़ता है। ऐसे में लड़की के पिताजी बने उम्मीदवार के चाल चलन और उनके पुत्र -पुत्रियों, पति – पत्नियों , चाचा-चाचियों, मामा- मामियों, भतीजा- भतीजियों, साले – सालियों आदि के कर्मों का फल भी प्रत्याशियों के साथ संगठन को झेलना पड़ता है। चुनाव ऐसे ही पीड़ादायी दिनों का नाम है।