भोपाल। मध्यप्रदेश में वर्षाऋतु खत्म होते ही वादों के घटाटोप और वोटों की बरसात की उम्मीद का मौसम शुरू हो गया है, राज्य में सक्रिय दोनों ही मुख्य राजनीतिक दल अपने घोषणा या संकल्प पत्रों के माध्यम से गरजने वाले बादलों की भूमिका का निर्वहन कर रहे है, हर राजनीतिक दल अपने पक्ष में वोटों की बरसात चाहता है, इसीलिए मतदाताओं को हर तरीके से अपने पक्ष में प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है, किंतु यहां फिर वही एक अहम् चिन्तनीय प्रश्नचिन्ह सामने खड़ा हुआ है कि हम पिछले सत्तर साल पुरानी चुनावी विचारधारा का त्याग कर विश्व के अन्य देशों की तरह बदलते समय के अनुरूप अपनी चुनावी विचारधारा को मूर्तरूप कब देेगें? क्योंकि आज के मतदाता की नई पीढ़ी भी नए यूग के साथ पुराने चुनावी ढकोसलों को बदलना चाहती है, अर्थात् हमारे प्रजातंत्र को नया स्वरूप प्रदान करना चाहती है। अब मतदाताओं की यह नई पीढ़ी राजनीतिक दलों के वादों और उनके इरादों का विश्लेषण भी करने में सक्षम हो गई है।
यही नहीं पिछले दो चुनावों याने एक दशक के चुनावी माहौल के दौरान कितने वादे किए गए और उनमें से कितने प्रतिशत वादों को मूर्तरूप मिल पाया, इसका भी विश्लेषण नई पीढ़ी ने करना शुरू कर दिया है, इसलिए अब राजनीतिक दलों को हवा-हवाई वादों से दूर रहकर जिन्हें मूर्तरूप देना संभव हो, वे ही वादें करना चाहिए, यद्यपि हमारे यहां आजादी के बाद से ही एक परिपाटी गलत चली आ रही है, यह कि प्रथम तो चुनावी वादों को मूर्तरूप मिलता ही नही है और यदि कुछ प्रतिशत वादों को मूर्तरूप मिलता भी है, तो वह जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई के बलबूते पर। अर्थात् वादें राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धी के लिए करते है और उन्हीं वादों के बलबूते पर सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी पूर्ति सरकारी खर्च अर्थात् जनता के पैसों से करते है, इसीलिए अब इन चुनावी वादों में ‘लोकलुभावन’ का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है, चूंकि वादें करने वालों को अपनी गांठ से कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता, इसलिए ये वादें आसमानी होते है और इनकी यदि पूर्ति होती भी है तो वह जनता के पैसों से। आज की सत्ता की राजनीति की यही परम्परा बन गई है, आज इसी का मौसम अपने राज्य में चल रहा है, प्रदेश में अठारह वर्षों से सत्तारूढ़ भाजपा और सत्ता से वंचित कांग्रेस के बीच यही स्पर्द्धा जारी है, जिसके दर्शन दोनों ही दलों के घोषणा या संकल्प पत्रों में हो रहे है।
हाल ही में कांग्रेस ने ग्यारह ग्यारंटियां अपने घोषणा पत्र में जारी की है, जिनके माध्यम से मतदाताओं के हर वर्ग को सुनहरे सपने दिखाने का प्रयास किया गया है, इसी तरह सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में दस ग्यारंटियों का उल्लेख किया है, दोनों ही दलों ने युवाओं, महिलाओं, किसानों और कर्मचारियों के लिए वादों की श्रृंखला प्रस्तुत की है, जैसे युवाओं के लिए उनकी प्रमुख समस्या बेरोजगारी, महिलाओं को हर तरीके से पुरूषों के साथ बराबरी का दर्जा देना, कर्मचारियों के लिए आर्थिक सहायता का झुनझुना और किसानों के लिए आर्थिक सहायता के साथ खाद्य-बीच आदि की पर्याप्त व्यवस्था कराना है, दोनों ही दलों के घोषणा तथा संकल्प पत्र इन्हीं से सम्बंधित वादों से पटे पड़े है, अब इनका कितना असर होगा और ये वोटों की कितनी व कैसी बरसात करवा पाएगें, यह तो अगले महीनें की तीन तारीख को ही उजागर हो पाएगा। फिलहाल तो मतदाताओं को अपनी ओर आकृष्ट करने की ही प्रतिस्पर्द्धा जारी है, और अगले मात्र तीन दिन यही सब चलने वाला है, चौथे दिन मतदान है, उसके बाद आम-आवाम थोड़ी शांति व राहत महसूस कर पाएगा।
आज यह सब स्पष्ट करने का मेरा मूल मकसद यही था कि हमारे देश में हमारे बाप-दादाओं द्वारा शुरू की गई चुनावी पद्धति आज भी जारी है, हम इस मायने में विश्व के अन्य देशों से काफी पिछड़े हुए है, जबकि हमें बदलते युग के साथ अपनी राह तय करनी थी, खैर अभी भी हमारे सही रास्ते पर आने का मौका है, यदि हम चाहें तों?