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चेहरा नहीं मोदी की जीत की गारंटी..या नई चुनौती..!

विधानसभा

भोपाल। भाजपा के लिए मिशन मोदी 2024 से पहले दूसरे 4 राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश में सरकार बनाना जितना महत्वपूर्ण उतनी ही इस बार जीत किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं.. भविष्य की भाजपा या यह मिशन 2024 या किसी दूरगामी रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया गया.. भाजपा ने 230 प्रत्याशियों में अपने 127 विधायकों में से 94 विधायकों को फिर टिकट दिया. कुल 27 विधायकों के टिकट काटे गए. 47 नये चेहरों को मौका दिया और बाकी बची सीटों पर पूर्व विधायक या हारे हुए प्रत्याशियों को मौका दिया. 6 सीटों पर वर्तमान विधायकों के परिजनों को टिकट या प्रत्याशी बदला गया. वर्तमान कैबिनेट के 28 मंत्री फिर मैदान में हैं. इस बार भाजपा ने 28 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है वहीं 50 युवा चेहरों को मैदान में उतारा है.

सबसे खास बात ये कि भाजपा ने अपने तीन केन्द्रीय मंत्रियों समेत 7 सांसदों को टिकट दिया है. इनमें दिमनी से नरेन्द्र सिंह तोमर, नरसिंहपुर से प्रहलाद पटेल और निवास से फग्गन सिंह कुलस्ते शामिल हैं. वहीं बाकी सांसदों में रीति पाठक, राकेश सिंह, राव उदयप्रताप और गणेश सिंह हैं. वहीं इंदौर 1 से भाजपा ने राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को टिकट देकर सबको चौंका दिया था. केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और सिंधिया परिवार से ही जुड़ी शिवराज कैबिनेट की मंत्री रह चुकी यशोधरा राजे भी चुनाव नहीं लड़ रही.. अलबत्ता सिंधिया परिवार से करीबी रिश्ता रखने वाली पूर्व मंत्री माया सिंह को जरूर ग्वालियर से मैदान में उतरा गया.. चुनाव में कर्नाटक हिमाचल की जीत से उत्साहित कांग्रेस से लेकर सब पर भारी मोदी की गारंटी जब बड़ा मुद्दा बनकर सामने है.. तब सवाल क्या मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं करना मोदी की जीत की एक और गारंटी साबित होने वाली है.. फिर भी सवाल क्या गारंटी है कि सीएम इन वेटिंग के जितने दावेदार दिल्ली से एम पी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भेजे गए वह सभी खुद हारी हुई सीटों पर जीतेंगे और ऐसी ही अपने प्रभाव वाली 5 से 10 सीटों पर कमल खिला भाजपा की जीत सुनिश्चित करने की गारंटी साबित होंगे.. क्या यह दांव भाजपा का ब्रह्मास्त्र या जरूरी से ज्यादा मजबूरी बनकर सामने है.. जिसका कारण एंटी इनकंबेंसी से भाजपा को बाहर निकालना.. तो क्या इस रणनीत में वह कामयाब होती नजर आ रही..

भाजपा के अंदरूनी बदलते बिगड़ते समीकरणों के बीच चुनावी आचार संहिता लागू होने के तीन माह पहले और उसके बाद की भाजपा की दिशा.. नीति और नीयत से बने माहौल में नया सवाल खड़ा हो चुका है.. सवाल 15 महीने की कमलनाथ सरकार को गिराकर जोड़-तोड़ से बनी शिवराज सरकार के इस दौर में 2023 के लिए पिछड़ती भाजपा क्या गलतियों से सीख लेकर समय रहते निर्णायक बढ़त बनाकर सेफ जोन में है.. या कांटे के मुकाबले में इस बार भी वह बमुश्किल लगभग बराबरी पर आ खड़ी हुई है.. क्या कांग्रेस की एकजुटता बीजेपी का संकट बढ़ा रही है या कांग्रेस का बिखराव और कपड़े फाड़ पॉलिटिक्स भाजपा की ताकत साबित हो सकती है.. ऐसे तमाम सवालों के बीच बड़ा सवाल कमरा बंद रणनीति और कागजी प्रबंधन और जमीनी हकीकत एक है.. या फिर कर्नाटक की गलतियों से सीखना लेते हुए जानकर भी नेतृत्व चुनौतियों से अनजान बना हुआ है.. चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना या नहीं करना ..आखिर यह रणनीति कितनी कारगर सिद्ध होगी.. दिल्ली का हस्तक्षेप चुनाव के लिए कितना ज़रूरी या मजबूरी बनकर सामने है.. सवाल क्या उसके लिए बागी या क्षेत्र विशेष के नेताओं की दबदबे की 40 से अधिक त्रिकोणीय संघर्ष वाली सीट की जीत हार बड़ी भूमिका निभाने वाली है..

पुराने चेहरों को मैदान में उतार कर क्या इस फार्मूले को भाजपा अपनी जीत की गारंटी मान बैठी है.. टिकट वितरण से लेकर चुनाव प्रबंधन क्या सब कुछ सही या इससे और बेहतर की संभावना को जान पूछ कर नजरअंदाज किया गया.. सियासत में मजबूत कड़ी साबित होती रही समन्वय.. सामंजस्य.. सद्भाव से आगे सम्मान और सकारात्मक सोच के साथ क्या बीजेपी आगे बढ़ रही है..सरकार बनाना.. चलाना.. गिरना फिर बनाना.. में महारथ हासिल कर चुकी भाजपा की इंटरनल पॉलिटिक्स भी 2018 के बाद यहां बदली ..इस दौरान न सिर्फ समीकरण बदले बल्कि नेतृत्व पर अनिश्चितता के साथ दिल्ली से ले कर प्रदेश नेतृत्व और दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच श्रेय लेने की होड़ भी साफ देखी जा सकती.. मिशन 2023 को लेकर बने माहौल के बीच बदलते राजनीतिक परिदृश्य में जब कांग्रेस 2018 की तरह बड़ी चुनौती साबित हो रही.. तब एक बार फिर डबल इंजन की सरकार का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज की साख के साथ उनकी पुण्याई यदि कसौटी पर है.. तो राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से ज्यादा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की प्रबंधन क्षमता और दूरदर्शिता के साथ प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा की जमावट के साथ उनकी संगठन क्षमता कसौटी पर है.. हालत सुधरी पार्टी के इस दावे पर यदि यकीन भी किया जाए तो क्या सब कुछ ठीक-ठाक है.. मोदी और शिवराज की पुण्याई इसलिए क्योंकि डबल इंजन सरकार से उपकृत हितग्राहियों को पार्टी अपना बड़ा वोट बैंक मान चुकी है.. जिसमें शिवराज सरकार की लाडली बहना भी इन दिनों खासी चर्चा में है.. शिवराज को पार्टी हाई कमान ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया बावजूद इसके आचार संहिता के ऐलान से पहले शिवराज ने कर्मचारियों और दूसरे संगठनों ही नहीं जाति विशेष वर्ग के लिए घोषणा का पिटारा खोलकर उनका गुस्सा कम करने की कोशिश कर भाजपा को तात्कालिक तौर पर एक बड़ी चिंता से मुक्त कर दिया था..

तो चुनाव के इस निर्णायक दौर में शिवराज पार्टी लाइन को चुनौती न देते हुए भी दो कदम पीछे जाकर लंबी छलांग लगाते हुए देखे जा सकते हैं.. आधा दर्जन से ज्यादा सीएम इन वेटिंग के दावेदारों के चुनाव लड़ने के बावजूद शिवराज अपने दम पर मैदान में सिर्फ टिके ही नहीं हुए बल्कि दूसरों की जरूरत बन कर उनका सहारा बने हुए हैं.. पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति शायद शिवराज से नाराज नेता और कार्यकर्ताओं को एकजुट करने से ज्यादा 2024 के लिए अपने निर्विवाद नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग में इजाफा करना माना जा रहा है.. जो शायद विरोधियों के इंडिया गठबंधन के सामने अब जरूरी हो गया है.. फिर भी सवाल खड़ा होना लाजमी है मध्य प्रदेश में शिवराज यदि चेहरा नहीं तो हार का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाएगा.. ऐसे में पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही भाजपा का मध्य प्रदेश में कैडर और बूथ प्रबंधन कहीं कमजोर कड़ी साबित ना हो जाए इसकी चिंता भी अब अमित शाह और विष्णु दत्त को सताने लगी है.. चुनाव प्रचार के अंतिम पखवाड़े में दूसरे मुख्यमंत्री समेत भाजपा ने अपने सारे दिग्गजों को प्रचार में उतर कर जो माहौल बनाया वह कांग्रेस की चिंता में इजाफा करने के लिए काफी है.. मोदी का तिलस्म शिवराज की ताबड़तोड़ सभाएं और उनकी मेहनत पर पार्टी को भरोसा है कि कार्यकर्ता भी सब कुछ भूल कर मतदाता को बूथ तक जरूर पहुंचा देगा.. टिकट वितरण में जिस तरह पुराने चेहरों पर पार्टी ने दांव लगाया ..उससे संदेश यह जा चुका था कि उसके लिए चेहरा जाना पहचाना क्षेत्र में दबदबा जो अनुभवी वह ज्यादा महत्वपूर्ण यानी नए चेहरे को सामने लाने का जोखिम मोल लेने की स्थिति में नहीं.. इनमें से अधिकांश वही चेहरे जिनके खिलाफ सरकार में रहते नाराजगी और आक्रोश देखने को मिलता रहा..नेतृत्व ने अपनी इस मजबूरी को चुनौती के तौर पर लिया और दूसरे रास्ते खोलते हुए कार्यकर्ताओं को भरोसे में लेने की कोशिश नए सिरे से शुरू की..

सामूहिक नेतृत्व की रणनीति के बावजूद शिवराज का चेहरा सब पर भारी साबितहो रहा जो प्रचार में डिमांड बना हुआ है.. अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मामा की याद दिलाकर लाडली बहनों की चुनाव में भूमिका को महत्वपूर्ण मान लिया है.. रही सही कसर कांग्रेस में कमलनाथ के सामने शिवराज को खड़ा कर पूरी कर दी जिससे चुनाव इन दो प्रतिद्वंदियों के इर्द-गिर्द सिमट गया.. शिवराज के महत्व को पार्टी उसके नेतृत्व और आला कमान ही नहीं संघ ने बखूबी समझा तो अमित शाह के हस्तक्षेप के साथ ही विष्णु दत्त की संगठन क्षमता इस निर्णायक दौर में पार्टी की जरूरत बनकर सामने है.. भाजपा की डबल इंजन की सरकार के खिलाफ कांग्रेस का हल्ला बोल मोर्चा अपनी जगह तो मोदी और उनकी टीम राहुल प्रियंका और कांग्रेस जम कर कोस रही.. परिवारवाद भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे जीवंत और ज्वलंत हो या फिर पुराने कांग्रेस को सोचने को जरूर मजबूर कर रहे.. भाजपा मैदान में प्रचार के दौरान जितनी संजीदा उतना संगठन को लेकर भी गंभीर नजर आने लगी है.. इस सच को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है कि शिवराज और मोदी सरकार के हितग्राही + बूथ समिति और पन्ना प्रमुख भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है। इस चुनाव में उपलब्धियां के नाम पर व्यक्तिगत आर्थिक और अन्य सहायता प्राप्त करने वाला वर्ग यानि हितग्राही चुनाव का महत्वपूर्ण फैक्टर है.. कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस की गारंटी हो या फिर मोदी शिवराज के हितग्राही..

खासतौर से चुनावी सभा में लाडली बहना से लेकर किसानों और दूसरे वर्ग विशेष के लिए सुविधा और सहायता का प्रचार प्रसार कितना मतदाता को प्रभावित करेगा इस पर सवाल खड़ा किया जा सकता लेकिन इसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है..ऐसे में पर्दे के पीछे संघ के वैचारिक अनुसांगिक संगठनों की बड़ती सक्रियता.. भाजपा का कैडर उसके कार्यकर्ता और नेटवर्क की भूमिका अहम हो जाती है.. और इस नब्ज को अमित शाह ने बखूबी पहचाना और विष्णु दत्त की भाजपा ने गलतियों से सीख लेकर ऐसे वर्ग पर पूरा फोकस बना रखा है.. पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरना अपनी प्राथमिकता बना दी है.. जो नेता लंबे समय से किसी न किसी रूप में भाजपा सरकार और संगठन के पदों पर बैठे थे.. उनमें जो अभी खाली थे जिनके पास काम नहीं था जो उपेक्षा से आहत थे.. या वो पट्ठावाद को बढ़ावा देने वाले वर्तमान विधायक से दुखी थे.. ये ही भाजपा के खिलाफ माहौल बना रहे थे। इनमें से कई पार्टी छोड़कर भी चले गए.. संगठन महामंत्री से लेकर दिल्ली के दूत भी जब असहाय खुद को महसूस कर रहे तब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जी ने सख्ती दिखाते हुए नीति निर्धारकों से लेकर छोटे बड़े नेताओं में कसावट की और संभाग बैठकों से बूथ पर किए जाने वाले अपने 15 विशेष कार्यों की योजना बताई और उसपर पूछताछ की..नेताओं की अकाउंटबिलिटी फिक्स की। बूथ के कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया। सीधा संदेश दिया कि कोई हीला हवाली नहीं चलेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संगठन की सबसे मजबूत कड़ी माने जाने वाले कार्यकर्ताओं को ज्वाबदेई का एहसास कराया था.. लेकिन अमित शाह का संभागीय द्वारा शायद वक्त का तकाजा साबित हुआ.. प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा इसी लाइन को अपनी पहली प्राथमिकता साबित करते हुए आगे बढ़ा रहे हैं.. अध्यक्ष और संगठन के लिए यह बड़ी चुनौती लेकिन सरकार बनाने की चिंता अब पार्टी को एकजुट कर सकती.. अमित शाह की अपनी टीम के प्रतिनिधियों की पैनी नजर के कारण अब विरोध की स्थिति में कोई नजर नहीं आता.. जिन्हें जाना था वह चले गए और वह चिन्हित हो चुके हैं..

अपने दौरों के दौरान अमित शाह ने बागियो और नाराज महत्वाकांक्षी नेताओं से खुद संवाद करके पहले ही एक साथ कई संदेश दे दिए थे.. जिस बूथ पर विरोधी दलों का दबदबा वहां भाजपा के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा वोट डलवाना पार्टी की रणनीति का प्रमुख हिस्सा बनकर सामने है.. यानी कांग्रेस के गढ़ में बूथ पर तैनात कार्यकर्ताओं के दम पर अपनी लाइन को बढ़ाकर विरोधियों का समर्थन कम साबित करना.. फिर भी सवाल क्या भाजपा तीन माह पहले जिस स्थिति में थी उस से बाहर निकल कर अब वह कांग्रेस को सीधी चुनौती देने की स्थिति में आकर खड़ी हो गई.. यह बात क्या सिर्फ सर्वे और सर्वेक्षण से ज्यादा प्रचार प्रसार की उसकी रणनीति और बूथ मैनेजमेंट के प्रबंधन की स्थिति दुरुस्त होने के कारण बनती हुई देखी जा सकती है.. टिकट वितरण के दौरान केंद्रीय मंत्रियों को विधायक का चुनाव लड़ना पहले ही पार्टी सर्वेक्षण को झूठा साबित कर चुकी है..केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की रणनीति उनकी सोच और लाइन को जिस तरह प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त ने आगे बढ़ाकर उसे जमीन पर उतारा क्या यह रणनीति चुनाव में निर्णायक साबित होगी..क्या संभागीय दौरे से डैमेज कंट्रोल और कार्यकर्ताओं का मोबिलाइजेशन अप संगठन की ताकत साबित होगा.. चुनाव प्रचार में जब नेता जनसभाओं का चेहरा बने हुए हैं..

तब प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त बूथ मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं से समवाद समन्वय स्थापित कर पार्टी के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा मतदान करने की रणनीति को मैदान में अंजाम तक पहुंचने में जुट गए हैं.. उधर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो इस चुनाव की निर्णायक और महत्वपूर्ण कड़ी माने जाने वाली लाडली बहना की सफलता का बड़ा और लोकप्रिय चेहरा बनकर सामने है.. उनकी प्रतिदिन अब 4/5 से बढ़ कर 8 से 10 चुनावी सभाओं से एक नया माहौल दूरदराज क्षेत्र में बना है.. अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हर चुनावी सभा में मध्य प्रदेश की धरती से बहना का हवाला देकर मामा की याद दिलाना नहीं भूलते हैं.. जिसने कहीं ना कहीं मामा शिवराज में भी एक नया जोश भर दिया है.. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो या केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दूसरे स्टार प्रचारक सभी शिवराज सरकार के साथ मोदी सरकार की जनहित ऐसी योजनाओं को बड़ी उपलब्धि का लेखा-जोखा जनता के सामने रखकर भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं.. भाजपा की रणनीति कांग्रेस को परिवारवाद भ्रष्टाचार और वादा खिलाफी जैसे मुद्दों पर सवालिया निशान खड़ा कर कमलनाथ और कांग्रेस को घेरने की कितनी कारगर सिद्ध होगी यह कहना जल्दबाजी होगी.. मतभिनता .. भाजपा के लिए तमाम चुनौतियां लेकिन यह भी सच है कि देर से ही सही हठधर्मिता और फैसलें थोपे जाने के बावजूद राष्ट्रीय नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के बीच देर से ही सही बेहतर तालमेल स्थापित हो चुका है.. हारी हुई सीटों से अपने उम्मीदवारों का ऐलान करने वाली भाजपा ने टिकट वितरण में सांसद और केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतर कर जो माहौल बनाया था.. राष्ट्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप और धमक के बाद कहीं ना कहीं मोदी शाह ने प्रदेश के नेताओं को भरोसे में लेना ही मुनासिब समझा.. टिकट वितरण की अंतिम दो सूची यह समझने और बताने के लिए काफी है.. नेतृत्व ने प्रदेश नेताओं पर फैसला छोड़ा और प्रदेश के नेताओं के बीच एक अंडरस्टैंडिंग बनी या फिर उन्होंने अपनों को नवाजा..ऐसे में सवाल कहीं कुछ टिकट भाजपा को 2018 की तरह महंगे ना पड़ जाए.. क्योंकि अभी तक ना तो अंडर करंट है और ना ही कोई लहर दूर तक नजर आती है.. कांग्रेस हो या भाजपा अपना गढ़ कैसे बचाती यह नई चुनौती के तौर पर उनके सामने है.. जनआशीर्वाद यात्रा का चेहरा रहे अधिकांश नेता खुद विधानसभा का चुनाव लड़ रहे जिन्हें सीएम इन वेटिंग माना जा रहा..

इन दिग्गज नेताओं से भाजपा ने उम्मीद पाली है कि वह न सिर्फ कांग्रेस से सीट छीनेंगे बल्कि अपने प्रभाव और दबदबे वाली सीट पर कमल खिलाएंगे… शिवराज के निर्विवाद लोकप्रिय चेहरे को पीछे रखकर पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने लाकर 29 लोकसभा वाले मध्यप्रदेश में 2024 की तैयारी जरूर मिशन 2023 से ही शुरू कर दी है.. स्टार प्रचारकों की सूची में नहीं होने के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती का भी अंततः चुनावी प्रोग्राम पार्टी द्वारा जारी कर दिया गया.. संदेश साफ है मत भिन्नता से आगे निकलकर बीजेपी चुनाव को लेकर संजीदा है.. जो यह भी बताने के लिए काफी है की कड़े मुकाबले की स्थिति में भाजपा अब ज्यादा जोखिम नहीं ले सकती है.. 2018 विधानसभा चुनाव के परिणामों से सीख लेकर बीजेपी ने प्रचार के अंतिम दौर में दो बड़े मोर्चो पर पूरी ताकत लगा दी है.. पहली चुनावी सभा और नरेंद्र मोदी का चेहरा और उनकी आमसभाओं के साथ दूसरे दिग्गज नेताओं की आए दिन मध्य प्रदेश में मौजूदगी.. उत्तर प्रदेश अध्यक्ष संगठन महामंत्री विष्णु दत्त का बूथ मैनेजमेंट और कार्यकर्ताओं को भरोसे में लेना.. जिनकी कोशिश अमित शाह के सूत्र वाक्य ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं से वोट डलवाना और पार्टी समर्थकों को पहली फुर्सत में मतदान केंद्र तक पहुंचाना..फोकस के बावजूद चुनौती डबल इंजन की सरकार से उपकृत हितग्राहियों को भाजपा के वोट बैंक में तब्दील करना.. तभी भाजपा की राह आसान साबित हो सकती है.. कुल मिलाकर मोदी के लिए 24 से पहले 23 का यह चुनाव और सरकार कुछ ज्यादा ही मायने रखती है तो शिवराज की स्वीकार्यता और उनका पार्टी में नेतृत्व नई भूमिका के साथ राजनीतिक भविष्य भी यह चुनाव तय करने वाला है.. मोदी के बाद अमित शाह के लिए भी पांच राज्यों के साथ मध्य प्रदेश का चुनाव परिणाम महत्वपूर्ण साबित होगा क्योंकि कमान उनके हाथों में थी.. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा के नेतृत्व में पार्टी चुनाव लड़ रही इसलिए उनके राजनीतिक कैरियर के लिए यह चुनाव एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित होगा.. क्योंकि अमित शाह ने खजुराहो से वक्त विष्णु दत्त के लिए चुनावी सभा में उनको भविष्य का बड़ा नेता बताया था..

तो पार्टी के केंद्रीय मंत्री, सांसद और राष्ट्रीय महासचिव के लिए भी जीत हार उनकी नई संभावनाओं का द्वार खोल सकती तो पॉलीटिकल करियर पर ब्रेक भी लग सकता है.. कांग्रेस एकजुट नहीं टिकिट वितरण में कमलनाथ दिग्विजय सिंह के बीच मतभेद इसका फायदा भाजपा उठा सकती है.. लेकिन कांग्रेस में नेतृत्व का संकट नहीं है.. राहुल गांधी पार्टी का चेहरा और मुख्यमंत्री का दावेदार कमलनाथ को घोषित कर चुके हैं.. जबकि भाजपा ने चेहरे को पीछे कर दिया है.. कमलनाथ दिग्विजय सिंह की कपड़ा फाड़ पॉलिटिक्स उसकी कमजोरी के साथ में कांग्रेस का संगठन कमजोर लेकिन उसका कार्यकर्ता सरकार बनाने के लिए जोर-जोर से मैदान में है.. वहीं दूसरी ओर एक साथ कई नेता मुख्यमंत्री की शपथ लेने को तैयार लेकिन भाजपा का 55 से 65 साल का कार्यकर्ता पूछ परख और सम्मान न होने के कारण गुस्से में ना सही लेकिन घर में शांत , निष्क्रिय बैठा है.. पीढ़ी परिवर्तन के दौर में कई टिकट के युवा दावेदारों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया.. जो चुनाव न लड़ने का ऐलान कर चुके उन्हें टिकट दिया गया..नेता पुत्रों को टिकट की दौड़ से बाहर करके जरूर भाजपा ने परिवारवाद के मुद्दे को धार दे दी है..

लेकिन कुछ विवाद व्यक्ति विशेष या पार्टी के लिए गले की हड्डी बन चुके.. चुनाव के समय संकटनात्मक रचना और कार्य पद्धति चुनाव में कैसी होनी चाहिए, इसकी भी कमी दिखती है। जिसे अध्यक्ष विष्णु दत्त दुरुस्त करने में जुटे हुए.. चुनाव का समय संगठन के कार्य पद्धति का नहीं चुनाव लड़ने और लड़ने का होता है। चुनाव प्रबंधन में राष्ट्रीय नेतृत्व की धमक और दखलदाजी दखलंदाजी से ज्यादा कमान सीधे हाई कमान के पास अच्छा फैसला लेकिन प्रादेशिक स्तर का मैनेजमेंट प्रभावी और असरदार साबित नहीं हो पा रहा.. दीपावली को ध्यान में रखते हुए अयोध्या की याद और राम का नाम तो जोर शोरों से लिया जा रहा लेकिन धान की कटाई, दीपावली का समय और छठ पूजा यह भी समस्या भाजपा के सामने खड़ी हुई है। 80 साल से ज्यादा के वोटर का वोट घर पर ही सुनिश्चित कर अतिरिक्त बढ़त लेने में भाजपा जरूर जुटी हुई है.. फिर भी क्या दीपावली मनाने घर आया अप्रवासी मध्य प्रदेश वासी जो लाखों की संख्या में है। क्या मध्यप्रदेश भाजपा उन तक पहुंच पाएगी और वोट दिए बिना न जाने देने के लिए प्रेरित कर पाएगी। चर्चा है बीजेपी के जो केंद्रीय मंत्री एवं नेता मध्य प्रदेश में काम कर रहे हैं.. उनकी चिंता चुनाव का माहौल बहुत ठंडा है ..भाजपा मध्य प्रदेश में सतही तौर पर काम कर रही है लेकिन कॉरपोरेट कल्चर हावी होने से भी समर्पित नेता और कार्यकर्ता चाह कर भी मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाए..

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