भोपाल। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नाथ कमलनाथ के इर्द-गिर्द सिर्फ चुनाव ही नहीं पार्टी की राजनीति भी घूम रही है.. चाहे फिर वह पार्टी हाई कमान.. राहुल प्रियंका ही क्यों ना हो या फिर सिंधिया के जाने के बाद दिग्विजय सिंह समेत दूसरे छत्रप सभी नाथ शरणम गच्छामि नजर आते हैं.. सब ने कसम खा ली एक बार फिर कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना है.. टिकट वितरण में हाई कमान नतमस्तक तो भविष्य की कांग्रेस की जमावट में रुचि ले रहे दूरदर्शी दिग्गी राजा पर भी फिलहाल कमलनाथ ही भारी देखे जा सकते.. फिर भी सवाल टिकट वितरण में बंदर बांट हो या बगावत से मचे बवाल के बीच जरूरी समय रहते डैमेज कंट्रोल पर सवाल ने बने बने माहौल को क्या बिगाड़ा .. इस बात में दम है तो क्या इसका असर चुनाव प्रचार के निर्णायक दौर में देखने को मिल रहा.. क्योंकि कई दिग्गज नेताओं जिनकी गिनती पार्टी के छत्रपों में होती या तो उन्हें टिकिट दे कर सीट तक सीमित कर दिया गया या फिर उन्हें हासिए पर पहुंचा दिया गया था.. क्षेत्र विशेष की जिम्मेदारी और जन आक्रोश यात्रा के जरिए जो संदेश पार्टी नेतृत्व ने दिया था..
क्या क्षेत्रीय और जातीय समीकरण दुरुस्त कर पार्टी एक जुटता का जो संदेश दे सकती थी क्या वह कार्यकर्ताओं तक पहुंचा है.. ऐसी तमाम चुनौतियों को नजरअंदाज कर नेतृत्व आगे बढ़ता गया.. अधिकांश कांग्रेस उम्मीदवार अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं.. फिर भी सर्वे रिपोर्ट पर यकीन किया जाए तो वचनबद्ध कमलनाथ के 11 वचन के साथ नाथ कांग्रेस मैदान में 2018 की तरह भाजपा को कड़े मुकाबले में ले आई है.. कांग्रेस के नाथ के नेतृत्व में 15 महीने की सरकार गवां देने के बाद जिस तरह पार्टी सदमे में आकर बिखरने की कगार पर पहुंच गई थी.. वह अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी.. विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस एक बार फिर बुलंद हौसलों और मजबूत इरादों के साथ वह मिशन 2023 यानी सत्ता वापसी को लेकर कृत संकल्प है.. 2018 से ठीक पहले पिछड़े वर्ग के अरुण यादव की जगह अध्यक्ष की कुर्सी संभालने वाले कमलनाथ ने न सिर्फ पार्टी की चाल उसका चरित्र बदल कर अपना चेहरा निर्विवाद तौर पर स्थापित किया है.. बल्कि संघ और भाजपा के हिंदुत्व की चुनौती को ध्यान में रखते हुए सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन पर पार्टी को लाकर खड़ा कर दिया.. हनुमान भक्त कमलनाथ के लिए कर्नाटक से निकले हनुमान संदेश ने इस लाइन को आगे बढ़ाया और भाजपा को सोचने को मजबूर किया..
कह सकते हैं कि भाजपा के पिच पर कांग्रेस लेकिन इसके पीछे कमलनाथ का अपना गणित जो अब सनातन और राम मंदिर की बहस में मतदाताओं को कांग्रेस के बारे में भी सोचने को मजबूर कर सकता.. मध्य प्रदेश नहीं छोड़ने की बात पर अटल कमलनाथ ने बाल कांग्रेस समेत संगठन में कई प्रयोग किए.. कई समझौते लेकिन संगठन की कमान अपने हाथों से नहीं जाने दी .. नव नियुक्त के नाम पर महामंत्री उपाध्यक्ष और प्रकोष्ठों की भरमार यानी एडजस्टमेंट.. सर्व को प्राथमिकता बता टिकट के दावेदारों से विधान परिषद का वादा कर पार्टी को एकजुट करने की कोशिश की.. वह बात और है कि बागियों ने कई सीटों पर गणित गड़बड़ा दिया.. नई पीढ़ी सामने लाने के लिए मुख्यमंत्री रहते कई युवा चेहरों को मंत्री बनाया तो 2024 में भी 50 से ज्यादा नए चेहरों को टिकट दिए ..लेकिन यदि भाजपा को वह चुनौती दे रही तो उसकी एक बड़ी वजह पुराने चेहरें .. जिसकी दम पर कांग्रेस मोदी शिवराज के सामने खड़ी नजर आ रही.. सिंधिया की बगावत से जो पार्टी में बचे अपवाद छोड़ दे तो सभी का टिकट पहले ही पक्का माना जा रहा था.. ऐसे में कई सवाल खड़े भी किए गए सवाल क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थको के पार्टी छोड़ देने के बाद कांग्रेस में गुटबाजी खत्म हो गई है.. या कोई नई कहानी सामने आ सकती.. नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी छोड़ने के बावजूद मध्य प्रदेश में पिछले 3 साल से नाथ जमें रहे .. कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर संगठन में बड़ा बदलाव किया गठबंधन की पॉलिटिक्स से समझौता किया लेकिन मध्य प्रदेश में प्रेशर पॉलिटिक्स कहे या विकल्प का अभाव या वक्त का तकाजा कमलनाथ को अध्यक्ष रहते मुख्यमंत्री का चेहरा पार्टी नेतृत्व को घोषित करना ही पड़ा.. समझा जा सकता है कमलनाथ कांग्रेस के लिए कितने जरूरी कितनी बड़ी मजबूरी बनकर सामने है.. तो सवाल यहीं पर खड़ा हुआ क्या सारे सूत्र अब कांग्रेस के नाथ के पास ही है और आगे भी सरकार आने पर सत्ता के साथ संगठन पर भी उनका कब्जा बरकरार रहेगा.. या फिर बदलती कांग्रेस चुनाव परिणाम सामने आने के बाद ही सही बैलेंसिंग पॉलिटिक्स की लाइन पर चलती हुई नजर आएगी.. क्यों कि मल्लिकार्जुन खड़गे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में सरकार से ज्यादा संगठन पर कब्जे की लड़ाई राज्य स्तर पर नहीं.. इससे इनकार नहीं किया जा सकता..
क्यों कि लोकसभा चुनाव 2019 में मिली करारी हार के बाद राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से इस्तीफा देने के साथ अशोक गहलोत और कमलनाथ से सोनिया राहुल प्रियंका के संबंध उतने मजबूत और पारदर्शी नहीं रह गए थे.. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव में जब राहुल ने कदम पीछे खींच लिए थे.. तब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विवादों में पड़ने के साथ दिग्विजय सिंह भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए बड़े दावेदार के तौर पर सामने आए थे.. भारत जोड़ो यात्रा छोड़कर राजा ने फार्म भी लिया था.. उस वक्त किंग मेकर कमलनाथ जो खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष के सबसे बड़े दावेदारों में से एक थे .. उनका साइलेंट मूव और परदे के पीछे से पैनी नजर खूब चर्चा में रही,..ऐसे में सवाल 2024 को ध्यान में रखते हुए क्या राहुल गांधी के भरोसेमंद दिग्गी राजा की बिसात कोई नई कहानी सामने ला सकती है.. जो सरकार बनाने के लिए बड़े भाई और छोटे भाई की भूमिका में सार्वजनिक तौर पर बेहतर समन्वय का दावा करते हैं.. कमलनाथ के सोनिया गांधी से सबसे अच्छे मजबूत रिश्ते और उसके बाद प्रियंका से तालमेल राहुल के मुकाबले ज्यादा नजर आता रहा.. शायद यह भी एक कारण है कि प्रियंका ने मिशन 2023 के लिए कमलनाथ को मजबूत करने के लिए बढ़-चढ़कर दिलचस्पी ली है.. प्रियंका ने ही मध्य प्रदेश में प्रचार की बढ़-चढ़कर शुरुआत की.. बाद में राहुल ने ही कमलनाथ को अधूरे काम पूरे करने के लिए भविष्य का मुख्यमंत्री भी घोषित किया,.. यह सब कमलनाथ के व्यक्तिगत मैनेजमेंट और चुनाव प्रबंधन के कारण संभव हुआ.. जिन्होंने कांग्रेस दफ्तर जाना नहीं छोड़ा लेकिन बंगले से कमांडिंग पोजीशन अपने पास रखी..
नाथ ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र पर संगठन को मजबूत कर दावेदारों को चिन्हित करना बहुत पहले ही शुरू कर दिया था.. दिल्ली से दूरियां तब खत्म हुई या यूं कहे यह सब कुछ यानी एक नए रिश्ते की शुरुआत राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के मध्य प्रदेश पड़ाव के बाद संभव हुआ.. सोनिया के वरदहस्त और राहुल प्रियंका के कोई विकल्प न होने की स्थिति में कमलनाथ एक बार फिर स्वीकार्य और सर्वमान्य नेता के तौर पर सामने है.. जिन्हें 5 साल और दिए जाने पर मध्य प्रदेश से लेकर दिल्ली तक सभी सहमत हैं बशर्ते बहुमत मिले और सरकार बने.. 2018 विधानसभा चुनाव में कमलनाथ की उद्योगपति वाली छवि पर जो सवाल खड़े किए जा सकते थे.. अब कांग्रेस के नाथ उसे बाहर निकल चुके हैं.. जो सौदेबाजी वाली सरकार और गद्दार की तोहमत लगाकर पार्टी में अपनी पकड़ मजबूत करने के साथ अपनी छवि और नेतृत्व को लेकर चिंतित रहे.. कमलनाथ ने प्रदेश अध्यक्ष रहते संगठन को प्रभावी और असरदार बनाने के लिए कई फैसले लिए जिसकी अग्नि परीक्षा का समय आ चुका है.. देखना दिलचस्प होगा कमलनाथ चुनाव में मजबूत या फिर कमजोर कड़ी साबित होते हैं.. हारी हुई 66 सीटों की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को देने वाले कमलनाथ ने टिकट वितरण में सर्व सर्वेक्षण का सहारा लेकर अपनी पसंद से ज्यादा वफादारी को महत्व दिया.. ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर चंबल के लिए इस बार दिग्विजय सिंह और उनके पूर्व मंत्री पुत्र जयवर्धन को फ्री हैंड दिया गया था,..
लेकिन टिकट वितरण में नाथ ने कोई कंप्रोमाइज नहीं किया.. कुछ सीटों पर कमलनाथ के भरोसेमंद सज्जन सिंह वर्मा और दिग्विजय सिंह के बीच तकरार भी चर्चा का विषय बनी थी.. जब राजा ने 48 घंटे प्रचार से दूरी बनाकर घर बैठना उचित समझा था.. कांग्रेस ने 96 में से 9 विधायकों के टिकट काटे (इसमें सचिन बिरला शामिल हैं) कांग्रेस ने भाजपा से आए 7 नेताओं को टिकट दिया। कांग्रेस ने कुल 30 महिलाओं को टिकट दिये। कांग्रेस ने 10 जैन और दो मुस्लिम प्रत्याशी बनाए। कांग्रेस ने 62 ओबीसी उम्मीदवार उतारे। कांग्रेस ने 29 ब्राह्मण और 31 ठाकुर उम्मीदवार उतारे। कांग्रेस ने 50 साल से कम उम्र के 65 उम्मीदवार उतारे हैं.. कमलनाथ दिग्विजय सिंह के बीच पसंद की प्रतिद्वंता और मचे बवाल के चलते जो टिकट बदले गए उनमें..दतिया से अवधेश का टिकट बदल कर राजेंद्र भारती, सुमावली से कुलदीप सिकरवार का टिकट काटकर अजब सिंह कुशवाहा को दिया गया,.. बडनगर से राजेंद्र सिंह सोलंकी की जगह मुरली मोरवाल, जावरा से हिम्मत श्रीमल का टिकट काटकर वीरेंद्र सिंह सोलंकी को दिया,.. पिपरिया से गुरु चरण खरे का टिकट काटकर वीरेंद्र बेलबंसी , पिछोर से शैलेंद्र सिंह का टिकट काटकर अरविंद लोधी को दिया गया.. गोटेगांव से शेखर चौधरी का टिकट काट कर फिर से पूर्व विधानसभा अध्यक्ष एमपी प्रजापति को ही दिया..टिकट वितरण में नाम वापसी हो या फिर यह विवाद का दिल्ली दरबार तक पहुंचाना एक नई बहस को जन्म दे चुका है.. कपड़ा फाड़ पॉलिटिक्स के सार्वजनिक मंचन के बाद सवाल खड़ा हो गया था क्या दिल्ली के हस्तक्षेप से सब कुछ ठीक-ठाक हो गया या फिर यह सत्ता प्राप्ति के लिए घोषित जरूरी से ज्यादा मजबूरी समझौता साबित हो सकता है.. क्या गारंटी है मिशन 2023 कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ के जिद की जीत बन कर सामने आएगी.. विकल्प के अभाव में मजबूरी ही सही जिसके सामने कांग्रेस हाई कमान को भी नतमस्तक होना पड़ा.. मजबूरी क्या नए ऊर्जावान नेतृत्व से ज्यादा भरोसा पुरानी पीढ़ी के अनुभवी कमलनाथ पर करना माना जाएगा.. या फिर भाजपा के आरोप में दम है कि भविष्य की कांग्रेस में कब्जे और पार्टी से ज्यादा विरासत की राजनीति के पैर जमाना ही नाथ संग राजा की जोड़ी का असली लक्ष्य है.. ओबीसी के सबसे बड़े पैरोंकार बनकर उभरे जो जातीय जनगणना की वकालत कर बड़े चुनावी फैक्टर को साधने की कोशिश कर रहे ..क्या वह मध्य प्रदेश में कोई मायने नहीं रखता है.. अरुण यादव का विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ाना इसी पिछड़े वर्ग के तेज सम्राट युवा नेता और राहुल गांधी की पसंद जीतू पटवारी का अपने विधानसभा क्षेत्र तक सीमित हो जाना,.. यही नहीं तमाम वरदहस्त के बावजूद कमलेश्वर पटेल का उभरता नेतृत्व नई पीढ़ी के लिए स्वीकार्यता में तब्दील नहीं हो पाया.. जीत हो या हार कांग्रेस की इंटरनल पॉलिटिक्स में बड़ा और नया सवाल इस नई बहस का मुद्दा बन चुका है..
हर हो या जीत विधानसभा चुनाव के बाद क्या कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी कमलनाथ खाली करेंगे या लोकसभा चुनाव एक बार फिर उन्हें नए सिरे से संगठन में जमावट का मौका देगा.. ऐसे कई सवाल जीत सुनिश्चित मानकर चल रही कांग्रेस के नेताओं के बीच से ही निकाल कर सामने आए.. चुनाव प्रचार खत्म होने की जब उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है तब सवाल कांग्रेस ने करीब 5 माह पहले भाजपा के झगड़ा झंझट और नेतृत्व विहीन होने की उठापटक के बीच जो शुरुआती बढ़त बनाई थी क्या वह बरकरार है.. क्या कांग्रेस सेफ जोन में है और सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत हासिल करने की स्थिति में पहुंच गई है.. या फिर भाजपा के खिलाफ एंटी इनकममैंसी के भरोसे खुद को सत्ता का दावेदार समझ चुकी नाथ कांग्रेस और उसके मुख्यमंत्री के दावेदार कमलनाथ ओवर कॉन्फिडेंट नजर आ रहे है है,जो बड़े लक्ष्य को लेकर चुनाव प्रचार के निर्णायक दौर में गलतियों से सीख लेकर ही आगे बढ़ेंगे.. राहुल गांधी के मुकाबले प्रियंका की सभा में जनता से कनेक्टिविटी कांग्रेस का प्लस पॉइंट मानी जा रही है.. भाजपा के मुकाबले स्टार प्रचारकों का टोटा जरूर पार्टी की समस्या बनी हुई है.. 2018 विधानसभा चुनाव में बहुमत से कुछ काम सीट मिलने के बावजूद कांग्रेस ने जिस तरह सरकार बनाई थी,.. क्या एक बार फिर वह इस स्थिति में या सत्ता के बहुत करीब पहुंच कर खड़ी हो गई है.. क्या इस चुनाव में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी ,आम आदमी पार्टी और निर्दलीय समेत दूसरे दल भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के चुनावी गणित को गड़बड़ाने की सामर्थ रखते हैं.. ऐसे में निर्दलीय या बागियों की जरूरत क्या कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ को रहेगी .. कमलनाथ के 11 वचन और कर्नाटक की जीत से उत्साहित इंडिया गठबंधन की चिंता से दूर राहुल गांधी की कई गारंटी के बावजूद लाडली बहना उसके पर्याय बनाकर सामने खड़े कड़ी मेहनत कर रहे शिवराज और मोदी के तिलिस्म के साथ अमित शाह के प्रबंधन ने इस कड़े मुकाबले में कांग्रेस के सामने नई चुनौती खड़ी हो गई है.. क्या उसे टिकट वितरण खासतौर से कपड़ा फाड़ पॉलिटिक्स ने पीछे धकेल दिया है.. कांग्रेस जरूर मैदान से बाहर नहीं उसने भाजपा को सोचने को मजबूर किया यह कड़वा सच .. लेकिन टिकट वितरण और खास तौर से 7 टिकट वापसी की स्थिति निर्मित होने के कारण क्या वह बैक फुट पर जाने को मजबूर हुई है.. जिसका बहुत अच्छा संदेश दूसरी सीटों तक भी नहीं पहुंचा.. प्रचार के निर्णायक दौर में राहुल प्रियंका ने अपनी सभाओं और पार्टी की प्रेस कांफ्रेंस के जरिए कर्नाटक के बाद राहुल प्रियंका और मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने जनता की गारंटी के दम पर जो माहौल देश में बनाया और इंडिया गठबंधन ने उसे और मजबूत साबित करने में भूमिका निभाई.. क्या उसका फायदा कांग्रेस को मध्य प्रदेश के चुनाव में मिलता नजर आ रहा है.. यह सवाल इसलिए क्योंकि कमलनाथ के विवादित बयान के बाद समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने भले ही विवाद को ठंडा कर दिया.. लेकिन पार्टी ने उम्मीदवार खड़े कर क्या कांग्रेस की चुनौती बढ़ा दी है..
जबकि कमलनाथ के राष्ट्रीय स्तर पर सपा ,बसपा तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, जनता दल जैसे कई क्षेत्रीय दलों के नेतृत्वकर्ता से व्यक्तिगत बहुत अच्छे संबंध माने जाते हैं.. लेकिन अब मायावती अखिलेश यादव अरविंद केजरीवाल जैसे नेता प्रचार में कूद चुके हैं.. यह बात इसलिए क्योंकि भाजपा के चाणक्य अमित शाह सपा बसपा जैसे दलों को मजबूत करने की सलाह दे चुके हैं.. अब जब राष्ट्रीय स्तर पर अपने विवादित बयानों से नीतीश कुमार और अखिलेश यादव जैसे नेताओं के बयान इंडिया गठबंधन को कमजोर कर रहे तब क्या गारंटी है छोटे दलों की भूमिका कांग्रेस की जीत की राह में रोड़ा साबित नहीं होगी.. कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा इंडिया गठबंधन की राजधानी भोपाल में बैठक और रैली के ऐलान के बावजूद कमलनाथ का हस्तक्षेप रंग ला चुका है.. जब इंडिया गठबंधन का कार्यक्रम भाजपा शासित राज्य से टाल दिया गया.. फिर भी कांग्रेस की ताकत राहुल प्रियंका की सभाएं रोड शो और पार्टी नेताओं की मुद्दा आधारित प्रेस कॉन्फ्रेंस बनकर सामने है.. कमलनाथ के सीमित दौरों और सभाओं के बीच इस चुनाव में दिग्विजय सिंह को भी कार्यकर्ता और सभा के लिए जनता के बीच जाना पड़ रहा है.. राष्ट्रीय प्रवक्ता से राष्ट्रीय महामंत्री बने रणदीप सिंह सुरजेवाला भी जनसभाओं का नेतृत्व कर रहे हैं..
सवाल क्या पिछले चुनाव की तर्ज पर ज्योतिरादित्य की और अब जीतू पटवारी जैसे तेज तर्रार मुखर नेता की कमी कांग्रेस की समस्या में इजाफा कर रही है.. सवाल क्या भाजपा की डबल इंजन सरकार कांग्रेस के लिए ताकत या फिर उसकी कमजोरी साबित होगी.. अयोध्या से राम मंदिर की याद दिलाए जाना शुरू हो चुकी है और मोदी शाह खुद अपने उद्बोधन में राम लला के भव्य मंदिर में विराजने की तारीख 22 जनवरी की याद दिला रहे.. कांग्रेस के लिए बूथ प्रबंधन और चुनाव परिणाम आने के बाद भी बागियों में अपनों को पहचाना ही किसी चुनौती से कम नहीं.. क्योंकि टिकट वितरण से मचे बवाल के बीच कांग्रेस के डैमेज कंट्रोल पर पहले ही सवाल खड़े हो चुके.. जिसने कांग्रेस की बढ़त को लेकर बने माहौल को न सिर्फ बिगाड़ दिया था बल्कि उसे संभालना अब भी बड़ी चुनौती बनकर सामने है.. ऐसे में बूथ मैनेजमेंट यदि कमजोर कड़ी साबित हुआ तो मतदान के बाद परिणाम की तारीख के इंतजार में प्रबंधन को कारगर ही नहीं असरदार साबित करना भी उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा..