लोकसभा चुनाव 2024 के पहले दो चरण के मतदान के आंकड़ों से लेफ्ट लिबरल समूहों में खुशी का माहौल है। उनको लग रहा है कि मतदान कम हो रहा है इसका मतलब है कि सरकार से और सरकार चला रही पार्टी से मोहभंग है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? मतदाताओं में उत्साह ही कमी क्या सरकार से नाराजगी का संकेत है? कम मतदान की शास्त्रीय राजनीतिक व्याख्या तो कुछ और होती है।
एस. सुनील
आमतौर पर माना जाता है कि कम मतदान का फायदा इन्कम्बैंट यानी सत्तारूढ़ दल को होता है और ज्यादा मतदान का फायदा विपक्ष को होता है। कम मतदान का मतलब यथास्थिति बनाए रखने की चाहत है और ज्यादा मतदान बदलाव की इच्छा का प्रगटीकरण है। इसके अपवाद भी हैं लेकिन अपवादों से तो नियम प्रमाणित ही होते हैं। हैरानी है कि इस बार दो चरण के मतदान से ही राष्ट्रीय औसत निकाला जा रहा है और कम मतदान की उलटी व्याख्या की जा रही है। माना जा रहा है कि कम मतदान का मतलब सरकार बदलने की चाहत है। यह पूरे चुनावी परिदृश्य को सिर के बल खड़ा करके देखना है।
यह राजनीति शास्त्र का नियम है कि किसी भी चुनाव में मतदान का प्रतिशत तभी बढ़ता है, जब या तो बहुत अच्छी लड़ाई हो या बहुत अच्छा कोई मुद्दा हो। इस बार विपक्ष न तो अच्छी लड़ाई बना पाया है और न अच्छा मुद्दा मतदाताओं के सामने रख पाया है। इसके उलट भारतीय जनता पार्टी ने 10 साल के राज की निरंतरता को कायम रखने का वादा किया है। विपक्ष के नेता बहुत बड़ी बड़ी बातें कर रहे हैं। आसमान से चांद तारे तोड़ कर लाने का भरोसा दिला रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि मतदाताओं का उनके ऊपर भरोसा नहीं बन पा रहा है। वे भाजपा की निरंतरता के वादे पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। उनको इस बात का विश्वास है कि अगर प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदीका कार्यकाल कायम रहता है तो भारत अगले तीन साल में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा और 2047 तक यानी आजादी के सौ साल पूरे होने तक भारत विकसित देश बन जाएगा। सो, चुनाव में अगर बहुत उत्साह नहीं दिख रहा है तो इसका यह मतलब नहीं है कि सरकार से मोहभंग हो गया है। इसका मतलब यह है कि विपक्ष अच्छी लड़ाई नहीं बना पाया है। विपक्ष लोगों को यह यकीन नहीं दिला पाया है कि उसके पास नरेंद्र मोदीकी सरकार के मुकाबले बेहतर मुद्दे हैं।
यह ध्यान रखने की जरुरत है कि चुनाव में उत्साह हमेशा बदलाव करने के लिए होता है। यथास्थिति बनाए रखने के लिए मंथर गति से चलना होता है। लोगों ने 2014 में बदलाव के लिए वोट किया था। अगर आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो 2009 में 58.21 फीसदी मतदान हुआ था, जो 2014 में बढ़ कर 66.44 फीसदी हो गया। यानी आठ फीसदी से ज्यादा मतदान प्रतिशत बढ़ा और नतीजा सबके सामने था। पहली बार भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था। पांच साल बाद यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में 67.40 फीसदी मतदान हुआ। यानी एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई। यानी देश में स्थिरता आ गई थी और इसलिए एक फीसदी की मामूली बढ़त पर भी भाजपा की सीटों में 21 सीट का इजाफा हो गया। 2024 में अभी तक पहले दो चरण में लगभग 69 फीसदी मतदान हुआ है। यानी पिछली बार के राष्ट्रीय औसत से ज्यादा मतदान इस बार भी हो रहा है। अगर यही ट्रेंड बरकरार रहा तो हो सकता है कि पिछली बार के औसत के बराबर या उससे कुछ ज्यादा मतदान हो।
यहां यह ध्यान रखने की जरुरत है कि एक बार 70 फीसदी मतदान तक पहुंच जाने के बाद मत प्रतिशत में बहुत मामूली बढ़ोतरी होगी। मतदान प्रतिशत में एक लॉन्ग जम्प 2014 के चुनाव में आ चुका है। अब उस तरह का उछाल नहीं दिखाई देगा। जो लोग इस बात को नहीं समझ रहे हैं उनके ज्ञानचक्षु 2009 के चुनाव के आंकड़े से खुल सकते हैं। उस चुनाव में राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत में सिर्फ 0.14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी और कांग्रेस का वोट 2.02 फीसदी बढ़ा था। लेकिन इतने भर से कांग्रेस की सीटों में 61 सीटों का इजाफा हो गया था। वह 145 से 206 सीटों पर पहुंच गई थी। इसलिए भाजपा को अपनी मौजूदा स्थिति बनाए रखने के लिए न तो राष्ट्रीय स्तर पर मतदान प्रतिशत में बड़े उछाल की जरुरत है और न भाजपा के अपने मत प्रतिशत में बड़ी बढ़ोतरी की जरुरत है। वह 37 फीसदी वोट पर है, जबकि कांग्रेस उससे 17 फीसदी पीछे 20 फीसदी पर है।
अब यह पूछा जा सकता है कि इस भरोसे के पीछे क्या तर्क है कि भाजपा अपने 37 फीसदी वोट में कुछ इजाफा करेगी और उसकी सीटों में कोई कमी नहीं आएगी? इसके तर्क बहुत स्पष्ट और ठोस हैं। पहला तर्क खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीहैं। यह दुनिया भर की सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों और राजनीति शास्त्र के जानकारों का मानना है कि अगर प्रधानमंत्री की लोकप्रियता रेटिंग बहुत ज्यादा है तो उसका लाभ उसकी पार्टी को मिलता है। यानी अगर प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदीबहुत लोकप्रिय हैं तो इसका लाभ भाजपा और उसके सभी प्रत्याशियों को मिलेगा। अब अगर मोदीकी लोकप्रियता देखें तो देश का कोई दूसरा नेता उनके आसपास भी नहीं है। इस मामले में सबसे ताजा सर्वेक्षण देश की सबसे भरोसेमंद एजेंसियों में से एक सीएसडीएस और लोकनीति का है।
उसने देश के लोगों से प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पसंद पूछी तो 48 फीसदी ने नरेंद्र मोदीका नाम लिया। दूसरे स्थान पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी रहे, जिनको 27 फीसदी लोगों ने समर्थन दिया। दोनों के बीच 21 फीसदी का अंतर है। अगर सरकार बनाने की बात करें तो इसी सर्वेक्षण के मुताबिक 40 फीसदी ने नरेंद्र मोदीके नेतृत्व में भाजपा की सरकार को समर्थन दिया, जबकि 21 फीसदी ने कांग्रेस की सरकार का समर्थन किया। यहां भी फर्क 19 फीसदी का है। सो, प्रधानमंत्री मोदीकी निजी लोकप्रियता और उनकी सरकार के प्रति लोगों का सकारात्मक रूझान यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि भाजपा के मत प्रतिशत में कमी नहीं आने जा रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले विपक्ष की ओर से जो विकल्प पेश किए जा रहे हैं उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे वास्तविक अर्थ में विकल्प माना जा सके। राहुल गांधी को तो 21 फीसदी लोगों ने समर्थन भी दिया लेकिन ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव को सिर्फ तीन तीन फीसदी लोगों का समर्थन मिला। सोचें, इन चारों लोगों को मिला कर भी 30 फीसदी ही समर्थन बनता है, जो मोदीसे 18 फीसदी कम है। यह सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि इन नेताओं के अपने कामकाज और इनकी पार्टियों के शासन की उपलब्धियां भी ऐसी नहीं हैं कि उन्हें नरेंद्र मोदीके शासन की उपलब्धियों के सामने रखा जा सके। अगर इनकी राजनीति की बात करें तो उसका ट्रैक रिकॉर्ड और भी खराब है। ये सभी नेता खुद भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे हैं और दूसरे आरोपी नेताओं के समर्थन में रैलियां करते हैं। इनकी पार्टियों की राजनीति हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण और क्षेत्रीय विभाजन वाली रही है। जाति और समुदाय के नाम पर तुष्टिकरण और भौगोलिक आधार पर विभाजन की बात उनकी राजनीतिक पहचान है। ये कभी अपने परिवार के हित से आगे जाकर देश के 140करोड़ लोगों के हित के बारे में सोच ही नहीं सकते हैं और इनकी सरकारों का कामकाज अक्षमता और भ्रष्टाचार का स्मारक है।
इनकी तुलना में नरेंद्र मोदीका 10 साल का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा है। उनके कार्यकाल में दुनिया में भारत का मान बढ़ा है। करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। देश में आर्थिक व राजनीतिक स्थिरता आई है। भारत दुनिया की स्टार्टअप राजधानी बन रहा है। दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां भारत में निवेश के अवसर देख रही हैं। क्या देश के लोग विकास की इस रफ्तार को रोक कर भारत को फिर से उन काले दिन में ले जाना चाहेंगे, जिससे इतनी मुश्किल से निकले हैं? कांग्रेस ने देश में करीब छह दशक तक शासन किया और वो छह दशक ऐसे हैं, जिन्हें ‘लॉस्ट डिकेड्स’ कह जा सकता है। वह भारत का अंधेरा युग था, जिससे देश को नरेंद्र मोदीने निकाला है। वे देश को अंधेरे से उजाले की ओर ले जा रहे हैं और यह बात देश के नागरिक समझ रहे हैं। उनको पता है कि नरेंद्र मोदीका कोई विकल्प नहीं है। विपक्ष के जितने नेता अभी सक्रिय हैं, उनमें से मोदीका विकल्प बनने योग्य एक भी नहीं है। देश के मतदाता भी इस बात को समझ रहे हैं इसलिए वे कोई जोखिम नहीं लेने वाले हैं। (लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)